
वीके माहेश्वरी
बाल्यकाल से यही पढ़ाया गया है, सिखाया गया है, सुनाया गया है कि, भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र है। भारत के सत्तर प्रतिशत नागरिक खेती करते हैं। किसान ही सबका अन्नदाता है। बचपन में महाकवि घाघ जो कि आकाश का रंग, हवा की दिशा एवं पक्षियों की आवाज से मौसम का सटीक पूर्वानुमान लगा लेते थे और दोहों में प्रकट करते थे। जिससे किसानों को बहुत लाभ होता था, खेती की बहुत सी तकनीक भी उन्होंने छोटे-छोटे दोहों के माध्यम से बताई थी, जो किसानों में बहुत प्रचलित थी। उनका एक दोहा भी सुना एवं पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा भी था।
उत्तम खेती मध्यम बाण
निषिद्ध चाकरी भीख निदान
अर्थात् खेती ही उत्तम है दूसरे स्थान पर वाणिज्य तथा तीसरे स्थान पर चाकरी अर्थात् नौकरी आती है। परन्तु नौकरी को उन्होंने निषिद्ध बताया था। मेरे पूर्वज भी किसान थे मेरे परिवार में लगभग छः पीढ़ियों से खेती होती थी। मैने बचपन में अपने पिताजी को खेती करते देखा था। मंैने बचपन में स्वयं भी खेती में पिता जी का सहयोग किया था अतः खेती का मन- मस्तिष्क पर इतना प्रबल प्रभाव था जो अभी भी है, कि बस खेती करने का ही मन करता है। परन्तु मैं जीवन भर तो खेती-किसानी नहीं कर पाया, क्योंकि एक छोटे से काल के लिये मेरा राजकीय सेवा में चयन हो गया था। मुझमें तो उस राजकीय सेवा की योग्यता नहीं थी, ऐसा लगता है कि किसी गलती या मात्र भाग्यवश ऐसा हुआ होगा। राजकीय सेवा में रहते हुए भी खेती से मेरा नाता टूटा नहीं था। परिवार जन खेती ही करते थे, मैं तो नहीं कर पाता था। परन्तु लगाव निरंतर बना रहा। राजकीय सेवा में होने के कारण मेरी माता मुझे अकसर कहती थी अपने हिस्से की कृषि भूमि बेच दे, अब तू क्या खेती करेगा, परन्तु खेती से एवं धरती माँ से इतना स्नेह था कि मैंने कृषि भूमि कभी बेचने की कल्पना भी नहीं की। सोने पर सुहागा यह था कि ससुराल भी ऐसा मिला था जहाँ पर खेती होती थी। अतः राजकीय सेवा से निवृत होते ही मैंने गाँव की ओर प्रस्थान किया तथा खेती के सभी उपकरण जुटाये, एक सहायक भी रखा और खेती करने लगा।
खेती करने के साथ गांव के अपने पुराने साथियों से भी मिलना-जुलना आरंभ हो गया जिनका साथ छूट-सा गया था। जो जीवन भर खेती करते रहे थे। वे मुझे खेती के बारे मे परामर्श देते रहते थे।ं उनका परामर्श भी मेरे लिये अत्यंत सहायक एवं उपयोगी रहता था। वे सब कहते थे कि भईया, गेहँू, गन्ना, धान, मक्का, सरसों इत्यादि की खेतीे करने से कोई बचत नहीं होती अपना पेट भी नहीं पाल पाओगे। एक काम करो खेत की मेढ़ के चारों ओर ‘‘युकेलिप्टस‘‘ के पेड़ लगा लो, यह पाँच-छह साल में कटने योग्य हो जाते हैं। इनके कटने पर कोई रोक भी नहीं है। इनकी मण्डी भी पास में अर्थात् हरियाणा राज्य के यमुनानगर में ही है जहाँ पर इनकी लकड़ी अच्छे दामों में बिक जाती है, बस किसान की तो यही बचत है, और खेती करने पर मुझे उनकी बात सत्य प्रतीत हुई। मैंने भी खेतों की मेढ़ पर युकेलिप्टस के पौधों की रोपाई करदी एवं खेतों में गेहँूं और धान इत्यादि की फसल उगाने लगा। 5-6 वर्षों तक, मैंने गेहूँ, गन्ना, धान, इत्यादि की खेती की परन्तु जो फसल उगती थी उसका अधिकांश भाग, बीज, खाद, सिंचाई, निराई, गुडाई एवं गहाई में ही व्यय हो जाता था। बस इतना ही बच पाता था कि मैं अपने परिवार के भोजन का प्रबंध कर सकूं। उस फसल से अन्य खर्चे निकालना संभव नहीं हो पा रहा था, परन्तु मैंने हार नहीं मानी, खेती के नवीनतम विधियों से खेती करता रहा खेती करने से मालूम हुआ कि सरकार कृषकों कि बड़ी हितैषी है। अब तो सरकार की ओर से अन्नदाता किसान को भीख भी मिलनी आरंभ हो गयी हैे क्षमा किजिये, सम्मान राशी भी मिलनी शुरू हो गयी है। तब यह अनुभव हुआ कि हम किसान कहाँ से कहाँ पहुँच गये हंै। जो अन्नदाता था उसे स्वयं को सहायता की आवश्यकता होने लगी है। सम्मान राशी ही नहीं, खेती करते समय यह भी जानकारी में आया कि सरकार ने तो किसानों के सामने कितने ही विभाग खड़े किये हुए हैं, क्षमा करें, सामने नहीं, किसानों के साथ में अनेकों विभाग खड़े किये हुए हैं जो किसान की समस्या का कारण होते हैं, नहीं-नहीं किसान कि हर समस्या का निवारण होते हैं। कोई भी विभाग कभी भी किसान की सहायता के लिये नहीं आता, क्षमा कीजिए हर समय सहायता के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहते हैं। यह विभाग है राजस्व विभाग, वन विभाग, पुलिस विभाग, सहकारिता विभाग, विद्युत विभाग, पशु पालन विभाग, पंजीकरण विभाग, कीट नाशक विभाग, पर्यावरण विभाग, परिवहन विभाग, कृषि विभाग, छात्र संघ, खाद्य निगम, मण्डी विभाग पर्यावरण विभाग इत्यादि। जब तक मैंने गेहूँ, धान इत्यादि की खेती की जो मेरे पास राजस्व विभाग का कोई कर्मचारी नहीं आया ना ही उनसे कोई सहायता प्राप्त हुई। बस मण्डी या खाद्य निगम से ही अधिकतर कार्य पड़ता था।
समय के साथ साथ मेरे द्वारा रोपे गये युकेलिप्टस के पौधे भी वृक्ष का रूप ले चुके थे। सभी गांव-वासियों ने परामर्श दिया कि अब यह वृक्ष कटाई योग्य हो गये हैं। अतः इन्हें कटवा कर यमुनानगर मण्डी में बेच आओ। तब मेरे मन में भी प्रसन्ना की अनुभूति हुई कि छः वर्ष के उपरान्त ही सही, अब मुझे नकदी फसल का धन मिलेगा, जिससे मेरी बहुत सी समस्याओं का निदान हो जायेगा। मैंने एक दिन युकेलिप्टस के कुछ पेड़ कटवाये, उन्हें टैक्टर-ट्राॅली में लदवाया व एक सहायक के साथ यमुनानगर की ओर प्रस्थान किया। जैसे ही मैं ट्रैक्टर लेकर कच्चे मार्ग से पक्के मार्ग पर चला तो सामने से चमचमाती मोटर साइकिल पर चमचमाते कपड़े पहने एक व्यक्ति आया, उसने कहा टैªक्टर रोको। मुझे लगा पटवारी है, तभी सहायक ने बताया, भैया यह पटवारी जी नहीं हैं यह तो पटवारी जी के सहायक हैं। मेरा माथा चकराया, पटवारी के सहायक सरकार की ओर से दिये गये हैं क्या? तब मेरे सहायक ने मुझे समझाया अब पटवारी किसी के खेत पर नहीं जाते, सभी ने सहायक रखे हैं, जिन्हें वह अपनी जेब से वेतन देते हैं। यही लोग पटवारी का काम करते हैं। मैं इन बातों पर सोच ही रहा था कि उसने रोबदार एवं इन्द्राज खसरे में करना है। मैंने कहा पिछले 6 वर्षों में तो मेरे खेत की फसल या पेड़ो का इन्द्राज करने अर्थात् पड़ताल करने कोई पटवारी नहीं आया मैं तो हर वर्ष खसरे की प्रति लेता हूँ, जिसमें पेड़ों का कोई उल्लेख नहीं होता था। वह मुझ पर चीखा, चुप रहो, हमको अक्ल मत सिखाओ। सारी लकड़ी ट्राॅली से नीचे उतारो मुझे पेड़ गिनती करने दो अन्यथा सरकारी कार्य में बाधा डालने में रिपोर्ट थाने में लिखा दूंगा। ट्राॅली से 100 कुंतल लकड़ी उतारना व फिर चढ़ाना -हाय राम- अब क्या करूँ। मुझे विवशता प्रतीत हुई तभी मेरे सहायक ने मेरी सहायता की। भैया, यह सब हमारी सुविधा के लिए ही है। बस कुछ सुविधा शुल्क लगता है उसने बिना किसी विलंब के मेरी बिना अनुमति के मेरी जेब से कुछ रूपये निकाले और सुविधा शुल्क का भुगतान किया, तब उस पटवारी जी का क्रोध शांत हुआ।
मैं ट्रैक्टर आगे बढ़ाने लगा तो सामने से मोटर साईकिल पर दो सिपाही पुलिस की ड्रैस पहने, मोटरसाइकिल पर डन्डा लिये ट्रैक्टर के सामने धमके और आदेश दिया, कि ट्रैक्टर रोको। हमें लकड़ी चैक करनी है। मैंने बताया कि यह तो ‘‘युकेलिप्टस’’ की लकड़ी है, इस पर तो कोई रोक नहीं है। इसका क्या चेक करना है ? उन्होंने कहा हो सकता है कि तुमने लकड़ियों के अन्दर भाँग छुपाई हो ? सभी लकड़ी ट्राॅली से नीचे उतारो। इतना सुनते ही मेरा तो चेहरा फक्क हो गया। समस्त लकड़ी उतारनी, चढ़ानी – हे भगवान कुछ सहायता करो। तभी ईश्वर ने मेरे सहायक के द्वारा सहायता की। भईया सुविधा शुल्क। यह पुलिस तो हमारी सहायता के लिए ही है। सुविधा शुल्क का भुगतान हुआ, और ट्रैक्टर आगे चला।
कुछ ही दूर चला था कि सामने से वन विभाग के अधिकारी आ गये। फिर वही आदेश ट्रैक्टर रोको, लकड़ी उतारो, हमें चेक करना है। तुमने वन विभाग की अनुमति के बिना लकड़ी काटी है। मैंने समझाने का असफल प्रयास किया कि युकेलिप्टस पर अनुमति की आवश्यकता नहीं है। परन्तु उन्होंने मुझे धमकाया हम तेरे जैसों को अच्छी तरह से जानते हैं, जो युकेलिप्टस की आढ़ में, छुपाकर, शीशम, आम व साल के पेड़ काटते एवं ले जाते हैं। समस्त लकड़ी उतारो। हमें चेक करने दो यह हमारी ड्यूटी हैै मैं कुछ सोच पाता कि फिर मेरे सहायक ने सहायता की भईया यह सब हमारी सुविधा के लिए है। बस कुछ सुविधा शुल्क की ही बात है, और तब बात बनी, और फिर रास्ते में परिवहन विभाग के कर्मचारी मिले जिन्होंने टैªक्टर-ट्राॅली को वअमतसवंक बताया परन्तु सुविधा शुल्क से ट्राॅली का भार कम हो गया।
तभी, छात्र संघ के युवा विद्यार्थी मिले जो पर्यावरण के प्रति बड़े जागरूक थे वे चिल्लाए कि आप जैसे लोगों ने ही पूरा पर्यावरण बिगाड़ रखा है। अन्धाधुंध पेड़ों की कटाई करते हो हम ऐसा नहीं होने देंगे। और टैªक्टर के आगे………बढ़ गया। परन्तु सुविधा शुल्क से पर्यावरण भी ठीक हो गया। इसी प्रकार कई अन्य विभागों ने भी मेरी सहायता की जिसके फलस्वरूप मैं अपनी लकड़ी यमुनानगर मण्डी में ले जाने में सफल हो सका।
परन्तु मण्डी में आते ही मण्डी समिति ने घेर लिया कि मण्डी का शुल्क दो और साथ ही यह भी कहा पावति नहीं चाहिए तो आधे शुल्क में काम चल जाएगा। पुनः शुल्क का भुगतान किया और आढ़ती के पास जाने से पहले मैंने चतुराई यह की कि एक प्राइवेट तोल-केन्द्र पर लकड़ी की तुलाई करवाली। जो कि 100 कुंतल हुई। मैं मन ही मन हिसाब लगाया कि 100 कुतंल लकड़ी जिसका भाव 100 रुपये प्रति कुंतल है। अतः मुझे 10,000 रु तो प्राप्त हो ही जायेंगे। परन्तु जब आढ़ती नेे अपने तोलकेन्द्र पर. लकड़ी की तुलाई की तो केवल 90 कुंतल ही लकड़ी निकली। मैंने कहना भी चाहा कि मैंने अभी-अभी तुलाई करवाई है। यह तो पूरी 100 कुंतल है। परन्तु उसने कहा 90 कुंतल है। यदि इतने का पैसा लेना है तो लो, वरना जाओ यहां से, देखो तुम्हारे पीछे कितनी ट्राॅली खड़ी हैं। मेरे पास इतना समय नहीं है। और मुझे 90 कुंतल लकड़ी के मूल्य पर ही संतोष करना पड़ा। मेरे हाथ में 9,000 रु थमाये।यह रूपये पाकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु जब मैंने उसमें से दिया गया सुविधा शुल्क घटाया जो मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे हाथ में केवल 5,000 रु आये हैं। फिर भी मैं सतुष्ट था कि कम से कम 5000 तो पाये। यदि सब स्थानों पर लकड़ी उतारी व लदवानी पड़ती तो शायद व्यय 15,000 होता और तब 3,000रु जेब से जाते अर्थात् पेंशन से ही जाते। और प्राप्ति शून्य पारिश्रमिक भी नहीं मिलता।
मैं अपनी जेब में 5,000 रु पाकर फूला नहीं समा रहा था। मेरे चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। मैं आज स्वयं को वास्तव में अन्नदाता मान रहा था। और इस बात से सन्तोष हो रहा था, कि इन सभी घरों के अन्न का दायित्व भी तो अन्नदाता पर ही है और इस सांत्वना के साथ मैं अभी भी खेती में लगा हुआ हूँं। मेरे मन में किसी से ना बैर है ना ही किसी से द्वेष। मैं सरकार के सभी विभागों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ, जो किसानों के हितैषी, सहायक, मार्ग निर्देशकहैं और निरंतर अर्थात् अन्नदाता की सेवा में लगे हुए हैं।
(लेखक उत्तराखंड हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल रह चुके है)