शिमला से लौटकर, शीशपाल गुसाईं
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में, महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के दौरान, सिख साम्राज्य ने हिमाचल प्रदेश के कई क्षेत्रों, जैसे कांगड़ा, कुल्लू, और चंबा, को अपने अधीन कर लिया था। इस काल में, सिख साम्राज्य की सैन्य और प्रशासनिक शक्ति ने इन पहाड़ी क्षेत्रों को एकीकृत किया, जिससे पंजाबी संस्कृति और प्रशासनिक प्रभाव इन क्षेत्रों में प्रबल हुआ। किंतु, यह एकीकरण स्थायी नहीं रहा। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में, गोरखा युद्ध (1815-16) के पश्चात, हिमाचल के अधिकांश पहाड़ी क्षेत्र ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए। इस परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम शिमला का उदय था, जिसे ब्रिटिश भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। शिमला का यह प्रशासनिक और सांस्कृतिक केंद्र बनना हिमाचल की पहचान को आकार देने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
स्वतंत्रता के पश्चात, शिमला को प्रारंभ में पंजाब की राजधानी बनाया गया, जिसके कारण हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र पंजाब के प्रशासनिक ढांचे के अधीन रहे। किंतु, हिमाचल की भौगोलिक और सांस्कृतिक विशिष्टता, विशेष रूप से इसकी पहाड़ी बोलियों (जैसे कांगड़ी, मंड्याली, कुल्लवी) और परंपराओं ने, पंजाबी प्रभाव को कम करने की मांग को बल दिया। हिमाचल के नेताओं ने तर्क दिया कि उनकी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान पंजाब की सिख-प्रधान संस्कृति से भिन्न है। इन बोलियों को बढ़ावा देकर और स्थानीय सांस्कृतिक परंपराओं को प्रोत्साहित करके, उन्होंने हिमाचल की स्वतंत्र क्षेत्रीय पहचान को स्थापित करने का प्रयास किया। दूसरी ओर, पंजाब का नेतृत्व, विशेष रूप से सिख समुदाय का एक प्रभावशाली वर्ग, हिमाचल को अपने सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र में बनाए रखना चाहता था। यह इच्छा भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर टकराव का कारण बनी, क्योंकि हिमाचल की पहाड़ी जनता ने अपनी विशिष्ट पहचान को प्राथमिकता दी।
इसी काल में, हरियाणा के क्षेत्रों में भी भाषाई और सांस्कृतिक अलगाव की मांग प्रबल हुई। हरियाणा में हरियाणवी (जो हिंदी की एक उपबोली मानी जाती है) को बढ़ावा देने की मांग ने जोर पकड़ा। यह मांग विशेष रूप से पंजाबी सूबा आंदोलन के जवाब में उभरी, जिसमें पंजाबी भाषा और सिख संस्कृति को प्राथमिकता देने की मांग की गई थी। हरियाणा के हिंदू समुदाय ने तर्क दिया कि उनकी भाषा (हरियाणवी और हिंदी) और संस्कृति सिख-प्रधान पंजाबी संस्कृति से भिन्न है। इस आधार पर, उन्होंने हरियाणवी भाषी क्षेत्रों को पंजाब से अलग करने और हिंदी या हरियाणवी को आधिकारिक भाषा बनाने की मांग की।
इस संदर्भ में, 1958 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की। आयोग ने पंजाब के विभाजन को समर्थन देते हुए यह माना कि भाषा और संस्कृति क्षेत्रीय पहचान के महत्त्वपूर्ण आधार हैं। हरियाणा के नेताओं ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए तर्क दिया कि हरियाणवी भाषी क्षेत्रों की सांस्कृतिक और भाषाई विशिष्टता पंजाब की पंजाबी-सिख संस्कृति से स्पष्ट रूप से भिन्न है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि हरियाणा की ग्रामीण और हिंदी-प्रधान संस्कृति, पंजाब के शहरी और सिख-प्रधान सांस्कृतिक ढांचे से अलग है। इस प्रकार, भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर हरियाणा का पृथक्करण अपरिहार्य हो गया।
ब्रिटिश भारत से आधुनिक भारत तक: पंजाब का विभाजन और पुनर्गठन
ब्रिटिश भारत में पंजाब एक विशाल प्रांत था, जिसमें वर्तमान पंजाब (भारत), पंजाब (पाकिस्तान), हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से और चंडीगढ़ शामिल थे। इसका क्षेत्रफल लगभग 3,50,000 वर्ग किलोमीटर था, जिसमें लाहौर, अमृतसर, लुधियाना जैसे प्रमुख शहर शामिल थे। पंजाब की सांस्कृतिक और आर्थिक शक्ति इसे ब्रिटिश भारत का एक प्रमुख प्रांत बनाती थी 1947 के बाद (पूर्वी पंजाब) विभाजन के बाद, पंजाब का पश्चिमी हिस्सा (लाहौर सहित) पाकिस्तान को मिला, और पूर्वी पंजाब भारत का हिस्सा बना। पूर्वी पंजाब का क्षेत्रफल लगभग 1,50,000 वर्ग किलोमीटर था। इसमें वर्तमान पंजाब, हरियाणा, हिमाचल के कुछ हिस्से और चंडीगढ़ शामिल थे। पूर्वी पंजाब एक हिंदू बहुल राज्य था, जिसमें सिख आबादी भी महत्वपूर्ण थी (लगभग 35%)। 1966 में पंजाब पुनर्गठन अधिनियम के तहत, पंजाब का और विभाजन हुआ। पंजाब का क्षेत्रफल घटकर लगभग 50,362 वर्ग किलोमीटर रह गया, जो पंजाबी बहुल क्षेत्रों तक सीमित था। हरियाणा का क्षेत्रफल लगभग 44,212 वर्ग किलोमीटर और हिमाचल का क्षेत्रफल 55,673 वर्ग किलोमीटर निर्धारित हुआ। चंडीगढ़ को केंद्रशासित प्रदेश बनाया गया, जो पंजाब और हरियाणा की साझा राजधानी बना। 1947 के विभाजन ने पंजाब को आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से कमजोर किया, क्योंकि लाहौर जैसे महत्वपूर्ण शहर पाकिस्तान में चले गए। 1966 के पुनर्गठन ने पंजाब को भाषाई रूप से अधिक एकसमान बनाया, लेकिन इसका क्षेत्रफल और प्रभाव पहले की तुलना में काफी कम हो गया।
1950-60 के दशक में पहाड़ी बोली और संस्कृति को बचाने की मांग एक महत्वपूर्ण भाषाई और सांस्कृतिक आंदोलन था, जो पंजाबी भाषा के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ उभरा। इसने न केवल पहाड़ी समुदायों को अपनी पहचान को संरक्षित करने का अवसर दिया, बल्कि भारत में भाषा आधारित राज्य पुनर्गठन की प्रक्रिया को भी प्रभावित किया। हिमाचल प्रदेश का गठन इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी, जिसने पहाड़ी संस्कृति को एक नया मंच प्रदान किया। हालांकि, पहाड़ी बोलियों का संरक्षण आज भी एक चुनौती है, और इसके लिए शिक्षा, साहित्य और सांस्कृतिक पहल में और प्रयासों की जरूरत है l
संदर्भ :
– श्रीराम शर्मा- हरियाणा का इतिहास
-डॉ. वी.सी. ओहरी- History of Himachal Pradesh
– सतपाल सांघवान -पंजाब का इतिहास
– समाचार लेख और स्थानीय साहित्य