सुभाष गाताडे
आस्था और गंदगी सहयात्री रहते आए हैं। आस्था के तमाम जाने-माने केन्द्रों पर या अपनी आस्था को सेलिब्रेट करने के नाम पर मनाए जाने वाले समारोहों में, प्रचंड ध्वनि प्रदूषण और रौशनी का प्रदूषण आदि के माध्यम से, इसकी मिसाल अक्सर देखने को मिलती है। प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों से भरे गंदे जलाशय, जिनकी मौजूदगी पानी के ऑक्सीजन की मात्रा पर विपरीत असर डालती है, पानी में ही फेंकी गयी सूखे फूलों की मालाएं आदि-आदि से महानगर भी अछूते नहीं रहते हैं।
इस सम्बन्ध में ताज़ी मिसाल महाकुंभ के बहाने से उजागर हुई है, जब केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की रिपोर्ट ने इस बात को उजागर किया कि किस तरह प्रयागराज के पानी में उन्हें उच्च स्तर पर मल के जीवाणु मिले हैं, जो किसी भी सूरत में नहाने योग्य नहीं है। इस सिलसिले में नेशनल ग्रीन टिब्यूनल ने उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) के अधिकारियों को तलब भी किया है कि ‘प्रयागराज/इलाहाबाद में गंगा, यमुना के पानी की गुणवत्ता के उल्लंघन को लेकर, उन्होंने जो दिशानिर्दश जारी किए थे, उस पर उन्होंने अमल नहीं किया है।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय ग्रीन टिब्यूनल (एनजीटी) ने उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की इस बात के लिए भी आलोचना की है कि अपनी जो रिपोर्ट उन्होंने प्रस्तुत की है, उसके सैम्पल पुराने है और सभी 12 जनवरी के पहले के, अर्थात कुंभ मेला शुरू होने के पहले के है। प्रयागराज में गंगा और यमुना में असंशोधित सीवेज डालने के मसले पर सुनवाई करते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अपने इस आरोप को दोहराया है कि किस तरह महाकुंभ में उन्हें कई स्थानों पर जल की जांच में मल सम्बन्धी जीवाणु और टोटल काॅलीफाॅर्म के तत्व मिले हैं।
दिलचस्प है कि विधानसभा के पटल पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट को ही खारिज किया है और अपनी तरफ से ऐलान किया है कि गंगा-यमुना का पानी न केवल नहाने योग्य है, बल्कि ‘पीने’ योग्य भी है। वैसे इस बयान से भले ही सरकार समर्थक लोगों, समूहों के आत्मविश्वास को बल मिले, मगर जब उत्तर प्रदेश प्रदूषण बोर्ड के अधिकारियों को सार्वजनिक तौर पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की तरफ से लताड़ लग रही हो, तब इस वक्तव्य को कैसे समझा जाए, यह अहम सवाल है।
प्रश्न उठता है कि राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की गंगा के प्रदूषण पर जब मुहर लगी है, तब क्या यह तर्क दूर तक जायेगा कि यह सवाल उठाना ‘करोड़ो लोगों की आस्था पर हमला’ है? तय बात है कि सत्ताधारी जमात के प्रकट राजनीतिक विरोधियों ने भी यह सोचा नहीं होगा कि महाकुम्भ के सम्पन्न होने के अवसर पर मुख्यमंत्री महोदय को मिलते तारीफों के गुलदस्तों के साथ-साथ वह ख़बर भी हवा में तैर रही होगी कि जिस श्रद्धा के साथ लोगों ने कुंभ के अवसर पर गंगा-यमुना में स्नान किया, वह पानी, बकौल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, ‘कहीं से भी नहाने लायक नहीं था’।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड द्वारा पानी की गुणवत्ता पर जो अध्ययन किया गया है तथा इस बात की विधिवत जांच की गयी है कि इलाहाबाद/प्रयागराज में जितने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे है, वह उन तक पहुंचने वाले सभी सीवेज को पूरी तरह से संशोधित करने में अक्षम है और बहुत सारा असंशोधित पानी सीधे नदी में छोड़ा जाता है, उसके चलते इन आरोपों को सहसा खारिज करना उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के लिए आसान नहीं होगा।
यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि असंशोधित पानी के सीधे गंगा-यमुना में छोड़े जाने से तथा कुंभ नहाने के लिए पहुंचे लोगों द्वारा मल विसर्जन को खुले में करने से भी दिक्कतें बढ़ गयी है। निश्चित ही राज्य सरकार ने यात्रियों के लिए टेम्पररी स्तर पर संडासों का निर्माण किया था, सफाईकर्मी भी तैनात किए थे, लेकिन जब तमाम आकलनों को धता बताते हुए वहां पहुंचनेवाले लोगों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी देखी गयी, उसके चलते खुले में मल विसर्जन होना ही था।
गौरतलब है कि प्रयागराज में गंगा-यमुना के गुणवत्ता की जांच किसी देश की बाहरी एजेंसी ने नहीं, बल्कि केन्द्र सरकार के अधीन आने वाले केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने की है, जिसकी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में सुनवाई हो रही है, जो एक केन्द्रीय संस्था है, इसके चलते इन विस्फोटक खुलासों को अचानक ‘सनातन विरोधियों की साजिश’ कहना भी सूबाई सरकार के लिए या उसके अगुआओं के लिए संभव नहीं होगा।
अब प्रयागराज में गंगा-यमुना में खास कर संगम के इलाके में सुरक्षित एवं स्वच्छ वातावरण में स्नान करने के सरकारी दावों और वास्तविक स्थिति पर गहरे अंतराल को लेकर सवाल अधिक जोर से उठेंगे और तेज होंगे। एक जानकार का कहना था कि अब ‘परीक्षार्थी के लिए यह दावा करना मुश्किल होगा कि वह कहने लगे कि प्रश्न सिलेबस के बाहर का आया था।’
इस बात पर भी जोर देना आवश्यक है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा पानी की खराब क्वालिटी, इसमें मिले कोलीफॉर्म के जंतु, पानी में ऑक्सीजन की घटती मात्रा आदि को लेकर उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जो सख्त आलोचना की गयी है, वह न केवल राज्य सरकार, बल्कि केन्द्र सरकार के तथा उसके नुमाइंदों के खोखले दावों को भी बेनकाब करता है।
सभी को याद होगा कि दो सप्ताह पहले विज्ञान और टेक्नोलॉजी के केन्द्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह कुंभ में स्नान के लिए आए थे, उस दिन उन्होंने पत्रकारों के सामने यह दावा भी किया था कि ‘पानी की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए’ भारत के नाभिकीय अनुसंधान केन्द्रों द्वारा प्रयोग में लायी जा रही तकनीक का भी यहां इस्तेमाल हो रहा है और इन प्रयासों को लेकर उन्होंने अपने महकमे की पीठ ठोंकी थी। उन्होंने यह भी साफ किया था मुंबई में स्थित भाभा अणु अनुसंधान केन्द्र और कल्पकम में स्थित ‘इंदिरा गांधी सेन्टर फाॅर एटोमिक रिसर्च’ ने पानी की शुद्धता बनाए रखने के लिए वहां गंदे पानी को साफ करने के लिए फिल्टरेशन प्लांट भी लगाए हैं।
अगर हम राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल के अवलोकनों पर गौर करें और उनके इन निष्कर्षों को देखें कि किस तरह प्रदूषित जल की अधिकतम मात्रा संगम के पास देखी गई और वहां जुटे श्रद्धालुओं द्वारा इस्तेमाल किया गया पानी किसी भी सूरत में नहाने योग्य नहीं था, क्योंकि वह सीवेज के पानी से मिला था, तब कुछ अहम सवाल उठते हैं जिनके बारे में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को साफ-साफ जवाब देने ही होंगे :
एक, आखिर उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मेला के पहले ही ऐसी प्रणालियां क्यों नहीं कायम की, जबकि वह जानते थे कि 12 जनवरी के बाद जनता का महासमुद्र वहां स्नान करने पहुंच रहा है?
दो, वह इस बात को क्यों सुनिश्चित नहीं कर सका कि प्रयागराज में स्थापित सभी सीवेज संशोधन प्लांट पूरी तरह कार्यरत हैं और सीवेज का एक भी बूंद सीधे नदी में नहीं पहुंच रहा है?
तीन, जब केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड के अधिकारियों ने शहर में अलग-अलग स्थानों पर पानी की गुणवत्ता की जांच की और बताया कि पानी प्रदूषित है और इसे ठीक किया जाए, तब यूपीपीसीबी ने तेजी से ऐसे कदम क्यों नहीं उठाए, ताकि देश के कोने-कोने से आए यात्रियों में से किसी को भी सीवेज के पानी में नहाना ना पडे़े।
चार, जब यूपीपीसीबी बोर्ड ने पाया कि उसके सामने जो कार्यभार उपस्थित है, जिसे पूरा करना उसके लिए असंभव है, तो क्यों नहीं उसने आपातकालीन कदम उठाया और सरकार को आगाह किया कि वह कुम्भ में आने से लोगों को रोके, उन्हें वहां पहुंचने से मना करे।
सभी जानते हैं कि भले ही औपचारिक तौर पर सभी प्रश्न उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को पूछे जा रहे हैं, जो सरकारी आदेश के मातहत काम करता है, स्नान के लिए सीवेज युक्त पानी उपलब्ध रहने के प्रसंग की पूरी जिम्मेदारी निश्चित ही राज्य और केन्द्र सरकार के अग्रणियों के कंधों पर आती है, जिनकी साझा पहल के तहत ही इस ‘महाकुंभ’ के लिए लोगों को न्यौता दिया गया।
क्या यह सरकारें इस बात से इंकार कर सकती हैं कि आधिकारिक तौर पर 7,300 करोड़ रुपए सरकार द्वारा इस मेले के लिए आबंटित किया गया, ताकि जनता के लिए एक सुरक्षित एव सुविधाजनक ढंग से स्नान उपलब्ध हो सके। अगर इतनी अधिक मात्रा में पैसा आबंटित हुआ था, तो फिर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को पूरी तरह चलने में क्यों नहीं सक्षम बनाया गया, क्यों पानी की अच्छी खासी मात्रा बिना संशोधित किए, नदी में सीधे डाली जाती रही?
अपनी कमियों को स्वीकारने के बजाय अब यही सुर अपनाया जा रहा है कि ‘कमियां थी ही नहीं’, सब कुछ ठीक था।
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जहां नेशनल ग्रीन टिब्युनल के अग्रणियों के सामने अपनी सफाई नहीं पेश कर पा रहा है, वहां उसे पूछा जा रहा है कि पानी की गुणवत्ता के उसके आंकड़े कुंभ मेले के पहले के हैं और उसने ताजे आंकड़ों को क्यों नहीं इकटठा किया है, क्या वह किसी दबाव में काम कर रहा है और अब अचानक किसी विशेषज्ञ महोदय को सामने लाया गया है और पानी की गुणवत्ता पर उनके ‘अनुसंधान’ का ढोल पीटा जा रहा है, जहां वह पानी के बिल्कुल शुद्ध होने का सर्टिफिकेट बांट रहे हैं। इस विशेषज्ञ की विद्वत्ता पर कौन सवाल करेगा? सवाल यह है कि क्या वह यूपीपीसीबी के मुलाज़िम है या स्वतत्र एक्सपर्ट है, उनकी क्लीन चिट आखिर यूपीपीसीबी या सीपीसीबी के विद्वानों द्वारा कही गयी बातों को झूठला दे सकती है?
क्या यह मुमकिन भी होगा उनकी राय केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों और वैज्ञानिकों की मेहनत को, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अग्रणियों द्वारा सुनवाई के दौरान उठे जायज सवालों पर एक ही झटके में परदा डाल दे, अपने कार्य निष्पादन में बेहद अक्षम साबित हुए उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अग्रणियों को ही क्लीन चिट दिलवा दें?
दरअसल यह स्थिति कि ‘महाकुंभ’ के दौरान जनता के लिए उपलब्ध ‘सीवेज युक्त पानी’, जो नहाने योग्य कत्तई नहीं है, केन्द्र और राज्य में सत्तासीन भाजपा सरकार की एक और प्रचंड असफलता को बेनकाब करती है, जिसे हम नमामि गंगे नाम से जानते हैं। याद रहे 2014 में ही मोदी सरकार द्वारा शुरू की गयी नमामि गंगे परियोजना में, विगत एक दशक में हजारों करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं।
जागरूक लोगों से अब यह सवाल भी उठ रहे हैं कि अगर गंगा के जल में स्वयं शुद्धिकरण की बात को, जैसा कि भाजपा के एक अग्रणी महानुभाव दावा कर रहे हैं, मान लिया जाए, तो फिर इस परियोजना को शुरू क्यों किया गया? नवम्बर 2024 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्राी ने यह दावा क्यों किया कि प्रधानमंत्री के प्रयासों से गंगा शुद्ध हो गयी है। इन दावों की असलियत का केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अग्रणी उपयुक्त जवाब दे देंगे, मगर ऐसे दावे संविधान के अंतर्गत वैज्ञानिक चिन्तन के प्रति हमारे कर्तव्य की अवहेलना करते दिखते हैं।
योगगुरु से अब बड़े उद्यमी बनने की तरफ़ बढ़ रहे महानुभाव द्वारा प्रस्तुत कोरोनिल की असलियत उजागर होने में अधिक वक्त़ नहीं लगा, मगर इस कवायद में उन मंत्रियों ने अपनी भदद पिटवा ली।
वैसे उन सभी लोगों को, जो सीवेज पानी बिना संशोधित किए गंगा में छोड़े जाने पर भी, कथित तौर पर पचास करोड़ से अधिक लोगों द्वारा वहां स्नान करने के बावजूद और शौचालयों की पर्याप्त मात्रा में अनुपलब्धता के चलते वहां खुले में हो रहे मल-विसर्जन की चुनौती के बावजूद, गंगा के पानी के शुद्ध होने के दावे कर रहे हैं और योगी-मोदी सरकार की तरफदारी में जुटे हैं, उन्हें आंखे खोल कर कुछ पुराने कतरनों या अध्ययनों पर निगाह दौड़ानी चाहिए कि किस तरह धार्मिक आयोजन सार्वजनिक जलाशयों को कितने बड़े पैमाने पर विभिन्न स्तरों पर प्रदूषित करते हैं।
ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं। 2019 में ही उसी इलाहाबाद/प्रयागराज में अर्द्धकुंभ का आयोजन हुआ था, उस दौरान भी इसी तरह मानव या जानवर के मल से उत्पन्न जीवाणुओं की पानी में उपस्थिति में छलांग दिखायी दी थी। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में बताया गया था : ‘‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाईडलाईन्स कहती है कि अगर मल से उत्पन्न कोलीफार्म की मात्रा, 100 मिलीलीटर में 2,500 मिलियन हो, तो वह पानी नहाने के उपयुक्त नहीं होता। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार संगम घाट पर, मल से उत्पन्न कोलीफॉर्म की मात्रा प्रति 100 मिलीलीटर पानी में 12,500 मिलियन थी और शास्त्री पुल पर वह प्रति 100 मिलीलीटर पानी मं 10,150 थी। जाहिर सी बात है कि कुंभ के दौरान गंगा का पानी पीने के लिए बिल्कुल बेकार था।“
अगर हम ऐसे अन्य आयोजनों पर गौर करें, तो उसी किस्म की तस्वीर सामने आती है। कुंभ से गोदावरी नदी पर जीवाणुओं का बोझ 130 गुना बढ़ जाता है। गोदावरी नदी के किनारे पांच स्थानों पर वैज्ञानिकों द्वारा जो अध्ययन किया गया, वह यही बताता है कि इसके लिए यात्रियों द्वारा किया जा रहा खुले में मल विसर्जन, सीवेज टीटमेंट की और कचरा निपटान की बुरी स्थिति जिम्मेदार है।”
हम धार्मिक आयोजनों के जरिए सार्वजनिक जलाशयों के होने वाले प्रचंड प्रदूषण से सम्बद्ध अन्य सामग्रियों को देख सकते हैं, जो ‘शुद्धिकरण के विरोधाभास’ को उजागर करता है।
“लाखों लोग पवित्र नदियों में स्नान के लिए तथा अपने आध्यात्मिक शुद्धि के लिए कुंभ मेला पहुंचते हैं। अब भले ही निजी स्तर पर उसकी अहमियत कितनी भी हो, वह उसी पानी में नहाते हैं, जिसकी वह पूजा करते है। यह विरोधाभास की स्थिति है। अन्य प्रदूषकों के अलावा यात्रियों में से हर व्यक्ति मल के रास्ते जीवाणु को पानी में पहुंचाता है। …”
निस्संदेह महाकुंभ के अवसर पर सीवेज युक्त पानी को लेकर उठे सवाल अब दबना मुश्किल है। सरकार जो भी प्रचार करे, अधिक से अधिक लोग अब इस बात का अनुभव करेंगे कि गंगा किनारे उन्होंने जो ‘पवित्र स्नान’ किया था, उस वक्त वह पानी कत्तई शुद्ध नहीं था।
यात्रियों का एक छोटा सा हिस्सा अब यह कहने का साहस भी जुटाएगा कि किस तरह सत्ताधारी समूह ने उनकी धार्मिक आस्था का दोहन किया है।