सवालों में नैक की ग्रेडिंग

डॉ. सुशील उपाध्याय

पिछले कुछ वर्षों से यह चर्चा चल रही थी कि उच्च शिक्षा संस्थानों का मूल्यांकन एवं प्रत्यायन करने वाली संस्था NAAC द्वारा दी जाने वाली ग्रेडिंग उतनी पारदर्शी और साफ-सुथरी नहीं है, जितनी कि इसके होने की उम्मीद की जाती है। बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र के ऐसे औसत विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को उच्च रेटिंग दी जा रही थी, जिनकी सुविधाओं, उपलब्धियों और अकादमिक प्रदर्शन पर सवालिया निशान मौजूद हैं। जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों और बड़े शहरों के चुनिंदा प्रतिष्ठित कॉलेजों को छोड़ दें, तो सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का प्रदर्शन NAAC की ग्रेडिंग के मामले में काफी कमजोर दिखता रहा है। इनकी तुलना में निजी संस्थानों को जो ग्रेडिंग मिलती रही है, इसका ताज़ा उदाहरण आंध्र प्रदेश के केएलईएफ विश्वविद्यालय के मामले में देखने को मिला है, जहां रिश्वत लेकर NAAC की सर्वोच्च ग्रेडिंग देने का खेल चल रहा था। इस मामले में सीबीआई ने देश भर में छापे मारे और पैसे लेकर ग्रेडिंग देने वाले उन कथित विद्वानों को गिरफ्तार किया है, जो इस धंधे का हिस्सा थे।
सीबीआई ने अभी तक जो साक्ष्य और सामग्री जुटाई है, उससे यह तय होता दिख रहा है कि यह अकेली घटना नहीं है, बल्कि पूर्व में भी अन्य संस्थानों को इस तरह की ग्रेडिंग दी जाती रही होगी। यह मामला NAAC की प्रतिष्ठा और कार्यपद्धति पर गंभीर सवाल खड़ा करता है। अभी तक की मूल्यांकन एवं प्रत्यायन प्रक्रिया में NAAC द्वारा संबंधित आवेदक संस्था में एक उच्च स्तर की टीम भेजी जाती है, जिसमें कुलपति, पूर्व कुलपति, सीनियर प्रोफेसर, डीन, कॉलेज प्राचार्य आदि शामिल होते हैं। इस टीम द्वारा भौतिक निरीक्षण एवं मूल्यांकन के दौरान कुल 100 अंकों (वेटेज) में से 30 प्रतिशत अंकों (वेटेज) का निर्धारण किया जाता है।
कई बार ऐसा होता है कि 70 प्रतिशत अंक (वेटेज), जो संबंधित संस्था द्वारा उपलब्ध कराए गए दस्तावेजों पर आधारित होते हैं, उनमें संस्था की ग्रेडिंग का स्तर बहुत ऊंचा नहीं होता है। लेकिन भौतिक निरीक्षण में पीयर टीम द्वारा इसे बहुत ऊंचा ग्रेड देकर ओवरऑल ग्रेडिंग को A अथवा A+ में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता है। जिन निजी संस्थानों को NAAC की ऊंची ग्रेडिंग मिलती है, वे इसे अपने प्रचार अभियान में बड़े पैमाने पर शामिल करते हैं और इसी को आधार बनाकर अपनी उपाधियों के शुल्क को अन्य संस्थानों की तुलना में बहुत ऊंचा रखते हैं। यह एक तरह का बिजनेस मॉडल बन जाता है, और इस मॉडल के असली पीड़ित वे लोग होते हैं, जो NAAC की ऊंची ग्रेडिंग को ध्यान में रखकर अपने बच्चों को संबंधित संस्थानों में प्रवेश दिलाते हैं।
वस्तुतः यह पैसे खर्च करके पैसे कमाने का धंधा बन जाता है, इसका उच्च शिक्षा की गुणवत्ता से कोई वास्ता नहीं रह जाता। इसकी एक वजह यह भी है कि NAAC में उच्च ग्रेड दिलाने के लिए निजी क्षेत्र की अनेक संस्थाएं लगातार सक्रिय हैं। ये संस्थाएं ऐसे दस्तावेजों, प्रमाण पत्रों और शोध उपलब्धियों का बंदोबस्त करती हैं, जिनके आधार पर उच्च ग्रेड हासिल किया जाता है। इस कार्य के लिए इन संस्थाओं की फीस इतनी अधिक होती है कि शायद ही कोई सरकारी या सहायता प्राप्त संस्था इसे वहन कर सके। इस राशि का वहन केवल निजी क्षेत्र की संस्थाएं ही करने में सक्षम हैं। इसलिए NAAC की उच्च ग्रेडिंग का खेल और अधिक फलता-फूलता जाता है।
ये प्राइवेट प्लेयर अक्सर अवसंरचना, फैकल्टी योग्यता, छात्र-शिक्षक अनुपात, शोध प्रकाशन या प्लेसमेंट रिकॉर्ड जैसे मापदंडों में हेराफेरी कराते हैं। उदाहरण के लिए, अस्थायी फैकल्टी को स्थायी दिखाना। इसी तरह NAAC की पीयर टीम के दौरे से पहले अस्थायी रूप से लैब, लाइब्रेरी या क्लासरूम बनाना, जो वास्तविकता में होते ही नहीं हैं। इसमें कर्मचारियों और छात्रों की संख्या अस्थायी रूप से बढ़ाना भी शामिल है। NAAC मूल्यांकन के दौरान छात्रों या शिक्षकों पर दबाव डालना या उन्हें प्रलोभन देकर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर करना भी आम बात हो जाती है। ये निजी संस्थान कागजों पर ऐसे फैकल्टी सदस्यों और छात्रों के नाम दर्ज कराने में भी माहिर हैं, जो वास्तव में संस्थान से जुड़े नहीं होते। बजट आवंटन, अनुदान या खर्चों के बारे में गलत जानकारी तैयार कराना ताकि संसाधनों की उपलब्धता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा सके।
इस बारे में NAAC अभी तक केवल सुझाव देने तक ही सीमित रहा है कि ऐसे प्राइवेट प्लेयर्स का सहयोग न लिया जाए। फिलहाल, NAAC ने भविष्य के लिए एक नई मूल्यांकन एवं प्रत्यायन व्यवस्था का ड्राफ्ट जारी किया है। इसके तहत मूल्यांकन दो स्तरों पर होगा, जिसमें पहली श्रेणी प्रत्यायन और गैर-प्रत्यायन के रूप में होगी, तथा अगली श्रेणी में संस्थाओं की ग्रेडिंग होगी। इस नई व्यवस्था में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में पीयर टीम भेजने की प्रक्रिया को खत्म किया जाएगा। नई व्यवस्था को वर्ष 2025 से लागू किए जाने की संभावना है, लेकिन यह व्यवस्था कितनी सुदृढ़ होगी, इसे लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता।
अभी इसमें भी कई तरह के छेद दिखाई दे रहे हैं। ग्रेडिंग की नई प्रस्तावित व्यवस्था में भी जिस तरह के प्रावधान किए गए हैं, उनसे निजी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों और संस्थानों को ही परोक्ष रूप से लाभ होगा। नई व्यवस्था का सबसे बड़ा नुकसान दूर-दराज के सरकारी संस्थानों को होने जा रहा है, जिनके सामने अभी गुणवत्ता की नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा के फैलाव या प्रसार की चुनौती खड़ी हुई है। दूरस्थ सरकारी संस्थाओं को निम्नतर ग्रेड मिलने की वजह यह भी है कि NAAC द्वारा निर्धारित सभी पैमाने दूरस्थ स्थानों के उच्च शिक्षा संस्थानों की भौतिक वस्तुस्थिति से पूरी तरह अलग हैं।
केएलईएफ विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा रिश्वत देकर सर्वोच्च ग्रेड हासिल करने का मामला न तो पहला है और न ही अंतिम। जब तक NAAC अपनी मूल्यांकन प्रक्रिया को और पारदर्शी नहीं बनाएगा, तब तक इस तरह की घटनाएं आगे भी होती रहेंगी, भले ही यह सब कुछ वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत हो अथवा नई प्रस्तावित व्यवस्था के अंतर्गत। पिछले दिनों NAAC ने डिजिटल डेटा सत्यापन, यादृच्छिक निरीक्षण और सार्वजनिक शिकायत प्रणाली जैसे उपाय शुरू किए हैं। हालाँकि, संस्थानों द्वारा नए-नए तरीकों से फर्जीवाड़ा जारी है, जिससे प्रक्रिया की विश्वसनीयता प्रभावित हो रही है। इसके समाधान के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही और सख्त दंडात्मक कार्रवाई की आवश्यकता है।

 

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