जवरीमल्ल पारख
समानांतर सिनेमा आंदोलन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण फ़िल्मकार श्याम बेनेगल का 90 वर्ष की अवस्था में अभी 23 दिसम्बर 2024 को देहावसान हो गया। श्याम बेनेगल की पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘अंकुर’ का प्रदर्शन 1974 में हुआ था और उनकी अंतिम फ़िल्म ‘मुजीब : द मेकिंग ऑफ़ ए नेशन’ का प्रदर्शन 2023 में हुआ। लगभग 50 सालों में उन्होंने 24 फ़ीचर फ़िल्मों का निर्देशन किया और ये सभी फ़िल्में चर्चित भी रहीं और उल्लेखनीय भी। उन्होंने पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘अंकुर’ का निर्देशन तब किया था, जब उनकी उम्र 40 वर्ष थी। लेकिन मीडिया से वे 1960 के दशक के आरंभ से ही जुड़ गये थे। उन्होंने पहली लघु फ़िल्म ‘घेर बेठा गंगा’ का निर्माण 1962 में कर लिया था और पहला वृत्तचित्र ‘क्लोज़ टू नेचर’ का निर्माण 1967 में कर लिया था। इसी वर्ष एक और वृत्तचित्र ‘ए चाइल्ड ऑफ़ द स्ट्रीट’ का निर्माण किया था। ‘अंकुर’ के निर्देशन से पहले श्याम बेनेगल 17 वृत्तचित्र और 3 लघु चित्र बना चुके थे। यही नहीं, 1966 से 1973 के बीच उन्होंने पुणे स्थित फ़िल्म एण्ड टेलिविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया में अध्यापन कार्य भी किया था। इसने उन्हें प्रतिभावान कलाकारों को पहचानने का अवसर दिया।
श्याम बेनेगल का जन्म 14 दिसम्बर 1934 को हुआ था। उन्हें आरंभ से ही फ़िल्म निर्माण में गहरी रुचि थी। अपने पिता से प्राप्त कैमरे से उन्होंने 12 वर्ष की अवस्था में फ़िल्म बनायी थी। हालांकि वे अर्थशास्त्र में एम ए थे, उन्होंने मीडिया को ही अपने कैरियर के लिए चुना। मीडिया के क्षेत्र में अपने कैरियर की शुरुआत उन्होंने मुंबई की एक विज्ञापन कंपनी में कॉपीराइटर के रूप में 1959 में कर दी थी। कॉपीराइटिंग, लघुचित्र, वृत्तचित्र, फ़िल्म अध्यापन में सक्रिय योगदान के 15 साल बाद ही वे कथाचित्रों के निर्माण की ओर अग्रसर हुए और आगे के लगभग 50 साल वे लगातार फ़िल्में बनाते रहे। लेकिन इन 50 सालों में उन्होंने कुछ ऐसे काम भी किये, जिसकी शायद किसी और फ़िल्मकार से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी। उन्होंने 1986 से 2014 के बीच विभिन्न विषयों पर दूरदर्शन के लिए छह धारावाहिकों का निर्माण किया। वैसे तो उनके सभी धारावाहिक महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन 1988 में निर्मित ‘भारत : एक खोज’ और 2014 में निर्मित ‘संविधान’ का ऐतिहासिक महत्त्व है। 53 आख्यानों मे बना धारावाहिक ‘भारत : एक खोज’ भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की प्रख्यात पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ का कथात्मक रूपांतरण है। भारतीय इतिहास के संदर्भ में नेहरू जी की यह पुस्तक ही नहीं, श्याम बेनेगल द्वारा निर्मित इस धारावाहिक का भी उतना ही महत्व और प्रासंगिकता है। विशेष रूप से वर्तमान दौर में जब सांप्रदायिक फ़ासीवाद की ताक़तें भारतीय इतिहास को अपने हिंदुत्ववादी राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विकृत करने के अभियान में लगी हुई हैं, श्याम बेनेगल का यह धारावाहिक उसका ठोस, तथ्यात्मक और ऐतिहासिक रूप से प्रभावशाली जवाब है। इस धारावाहिक में उन्होंने भारतीय इतिहास के विभिन्न युगों का वर्णन करते हुए उनसे सम्बद्ध साहित्यिक कृतियों के महत्त्वपूर्ण अंशों को कथात्मक रूपांतरण से अंतर्ग्रथित कर इस धारावाहिक को एक कालजयी रचना बना दिया है।
‘भारत : एक खोज’ से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है ‘संविधान’ धारावाहिक। भारतीय संविधान के निर्माण के लगभग तीन सालों में संविधान सभा में जो बहसें चली थीं, उन्हीं को आधार बनाकर उन्होंने इस धारावाहिक का निर्माण किया। इस धारावाहिक को देखकर यह समझा जा सकता है कि आज जिस संविधान पर हम इतना गर्व करते हैं, उसे ऐसे ही हासिल नहीं कर लिया गया था। यदि इसके पीछे आज़ादी के लगभग दो सौ साल के संघर्ष का इतिहास था, तो इन्हीं दो सौ सालों में मध्ययुगीनता की जकड़बंदी से मुक्त होने के लिए किया जाने वाला सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष भी था, जिसे पुनर्जागरण के दौर के नाम से जाना जाता है। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू का यह एक सुविचारित निर्णय था कि संविधान निर्माण की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बाबा साहब अंबेडकर को बनाया जाए। वैसे तो मौजूदा संविधान के निर्माण में पूरी संविधान सभा का सामूहिक योगदान रहा है, लेकिन संविधान को वैचारिक दिशा देने में निश्चय ही अंबेडकर और नेहरू का ही योगदान सबसे ज़्यादा था। श्याम बेनेगल नेहरू युग की चिंतनशीलता का प्रतिनिधित्व करने वाले अंतिम, लेकिन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण फ़िल्मकार कहे जा सकते हैं। यह महज़ संयोग नहीं है कि श्याम बेनेगल ने जवाहरलाल नेहरू पर ‘नेहरू’ (1982) के नाम से वृत्तचित्र बनाया तो ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ पर टेलिविज़न के लिए धारावाहिक बनाया।
श्याम बेनेगल ने अपनी पहली फ़िल्म ‘अंकुर’ से ही यह साबित कर दिया कि वे एक और फ़िल्मकार नहीं है, बल्कि अपनी तरह के अकेले फ़िल्मकार हैं, जिनकी तुलना किसी और से नहीं की जा सकती। अन्य कई फ़िल्मकारों की तरह श्याम बेनेगल की मातृभाषा हिन्दी नहीं थी, लेकिन उन्होंने अधिकतर फ़िल्में हिन्दी में बनायीं। कुछ फ़िल्में उन्होंने दो भाषाओं में भी बनायीं। 1978 की ‘कोंडुरा’ हिन्दी के साथ-साथ तेलुगु में भी बनी। इसी तरह नेताजी सुभाषचंद्र बोस पर बनी फ़िल्म में हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं का प्रयोग हुआ है। मुजीबुर्रहमान पर बनी फ़िल्म बांग्ला और हिन्दी दोनों में है, तो ‘द मैकिंग ऑफ़ द महात्मा’ मूलरूप में अंग्रेजी में बनी है। शेष सभी 20 फीचर फ़िल्में हिन्दी भाषा में हैं। लेकिन हिन्दी में बनी फ़िल्मों की भाषा में श्याम बेनेगल ने इस बात का ध्यान रखा है कि फ़िल्म के कथानक का संबंध जिस प्रांत से है, पात्रों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा भी उनके अनुकूल हो ताकि फ़िल्म कथानक के आधार पर ही नहीं, संवादों की प्रस्तुति के आधार पर भी यथार्थवादी लगे। उदाहरण के लिए, ‘मंथन’ (1976) के संवादों पर गुजराती का प्रभाव दिखता है, तो ‘निशांत’ (1975) में तेलुगु भाषा, ‘भूमिका’ (1977) में मराठी भाषा, ‘जुनून’ (1979) के संवादों पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली खड़ी बोली के प्रभाव को देखा जा सकता है। क्षेत्रीय भाषाओं का ये प्रभाव शब्दों के चयन से ज़्यादा उसके उच्चारण पर दिखायी देता है। श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में गीतों का प्रयोग कम हुआ है, लेकिन जब भी हुआ है, भाषा के प्रयोग की इस विशिष्टता को वहाँ भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, ‘मंथन’ का गीत जो काफ़ी लोकप्रिय भी है, “मेरो गाम काथा पारे जाँ, दूध की नदिया वारे जाँ”, उसमें हिन्दी और गुजराती भाषा को इस तरह मिला दिया गया है कि हिन्दी भाषी उसे समझ भी सकता है और गुजराती भाषा का आस्वादन भी कर सकता है।
श्याम बेनेगल सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक जागरूक फ़िल्मकार थे और वैचारिक रूप से प्रगतिशील भी। उन पर वामपंथी विचारों का गहरा असर था, जिसे उनकी शुरुआती फ़िल्मों में देखा जा सकता है। उनकी फ़िल्मों के आधार पर उनकी वैचारिक संरचना को वामपंथी झुकाव के साथ गांधी, नेहरू और अंबेडकर की विचारधारा माना जा सकता है। उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म से इस बात का अहसास करा दिया था कि उनका मक़सद सिनेमा द्वारा मनोरंजन करना या पैसा बनाना नहीं है। ‘अंकुर’ जिस कहानी पर बनी है, उस पर फ़िल्म बनाने का विचार 1960 के आसपास आ चुका था और उन्होंने कई निर्माताओं से संपर्क भी किया था, लेकिन उन्हें कामयाबी 1974 में जाकर मिली। वे इस फ़िल्म को क्षेत्रीय भाषा में बनाना चाहते थे, लेकिन जिस मीडिया कंपनी ने फ़िल्म का निर्माण करने की सहमति दी, उसने उन्हें हिन्दी में बनाने का सुझाव भी दिया, ताकि फ़िल्म ज्यादा दर्शकों तक पहुंच सके। लेकिन हिन्दी में जिस तरह की फ़िल्में बन रही थीं, ‘अंकुर’ की कहानी उससे बिल्कुल अलग थी। यह ज़मींदारों द्वारा ग़रीब दलितों के आर्थिक और दैहिक शोषण पर आधारित कहानी थी, जिसे बहुत ही यथार्थवादी शैली में बनाया गया था। शबाना आज़मी की यह पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म के अंत में एक बच्चे द्वारा ज़मींदार सूर्या के घर पर पत्थर फेंका जाना एक सांकेतिक प्रतिरोध था, जो उनकी अगली फ़िल्म ‘निशांत’ में विद्रोह के रूप में घटित होते हुए देखा जा सकता है। गांव के ज़मींदार द्वारा एक अध्यापक की पत्नी को उठा ले जाना और ज़मींदार और उसके भाइयों द्वारा उसका दैहिक शोषण करना और अंत में ज़मींदार के विरुद्ध गांव वालों का विद्रोह करना ‘निशांत’ का मुख्य कथानक है। ‘अंकुर’ में शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध जो प्रतिरोध अंकुरित होता है, वही ‘निशांत’ में विद्रोह के रूप में फूट पड़ता है। ‘मंथन’ की कहानी गुजरात की पृष्ठभूमि में चित्रित की गयी है। गुजरात में दूध उत्पादकों द्वारा सहकारी समिति बनाने का जो संघर्ष हुआ था, उसी को कहानी का आधार बनाया गया है। हिन्दी फ़िल्मों में जातिवादी शोषण को कभी कहानी का विषय नहीं बनाया गया था, लेकिन श्याम बेनेगल ने इसे अपनी पहली फ़िल्म में ही कथानक का हिस्सा बना लिया था। ‘अंकुर’ में फ़िल्म की नायिका लक्ष्मी (शबाना आज़मी) एक दलित स्त्री होती है। इसी तरह ‘मंथन’ में भी दूध उत्पादकों के बीच उच्च और निम्न जातियों के बीच टकराव को कहानी में शामिल किया गया है। ‘मंथन’ में नसीरुद्दीन शाह ने विद्रोही दलित की भूमिका निभायी है। 1999 में उन्होंने ‘समर’ फ़िल्म के माध्यम से मध्यवर्ग में, विशेष रूप से सवर्ण युवाओं में जातिवाद के गहरे प्रभाव की तीखी आलोचना की।
श्याम बेनेगल ने स्त्री शोषण और उनके मुक्ति के संघर्ष पर भी कई फ़िल्में बनायी हैं। वैसे तो उनकी लगभग सभी फ़िल्मों में स्त्री चरित्र बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं, लेकिन भूमिका, मंडी, मम्मो, सरदारी बेगम, हरी-भरी, ज़ुबैदा, सूरज का सातवां घोड़ा उनकी स्त्री केंद्रित फ़िल्में हैं और ये सभी महत्त्वपूर्ण फ़िल्में भी हैं। श्याम बेनेगल ने अपनी फ़िल्मों में दलित यथार्थ (अंकुर, मंथन, समर) को चित्रित किया है तो मम्मो, हरी-भरी, सरदारी बेगम, ज़ुबैदा में मुस्लिम समुदाय को अपनी फ़िल्मों के केंद्र में रखा है। उन्होंने महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और मुजीबुर्रहमान जैसे इतिहास पुरुषों पर भी फ़िल्में बनायी हैं, तो कई साहित्यिक रचनाओं का भी रूपांतरण किया है। राजस्थानी लोककथाओं को आधार बनाकर कहानी रचना करने वाले राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा की रचना ‘चरणदास चोर’ का हबीब तनवीर ने नाट्य रूपांतरण किया था, उसका श्याम बेनेगल ने फ़िल्मांतरण किया है। ‘भूमिका’ फ़िल्म मराठी फ़िल्म अभिनेत्री हंसा वाडेकर की आत्मकथा पर आधारित है, ‘कोंडुरा’ मराठी लेखक चिंतामणि टी. खानोलकर के उपन्यास पर आधारित है, ‘जुनून’ अंग्रेजी लेखक रस्किन बॉन्ड के उपन्यास ‘ए फ्लाइट ऑफ पीजंस’ पर आधारित है, ‘मंडी’ उर्दू लेखक ग़ुलाम अब्बास की कहानी पर आधारित है और ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ हिन्दी लेखक धर्मवीर भारती के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है।
श्याम बेनेगल को इस बात का श्रेय भी जाता है कि उन्होंने अपनी फ़िल्मों के माध्यम से प्रथम श्रेणी के ऐसे प्रतिभावान कलाकार हिन्दी सिनेमा को प्रदान किये, जिन्होंने अपनी भूमिकाओं के द्वारा अभिनय कला को शीर्ष पर पहुंचा दिया। स्मिता पाटील, शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, कुलभूषण खरबन्दा, गिरीश कर्नाड, अनंत नाग, अमोल पालेकर, नीना गुप्ता आदि कई नाम लिये जा सकते हैं। इसी तरह गोविंद निहलानी जो उनकी कई आरंभिक फ़िल्मों के छायाकार रहे, न केवल श्रेष्ठ छायाकार थे, बल्कि फ़िल्मकार भी थे, जिन्होंने आक्रोश, तमस, पार्टी आदि कई महत्त्वपूर्ण फ़िल्में बनायीं। उनकी अधिकतर फ़िल्मों का संगीत वनराज भाटिया ने दिया है, जो बहुत ही उच्च कोटी के संगीतकार थे।
श्याम बेनेगल को अपनी फ़िल्मों के लिए 18 राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए और 2005 में दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड भी प्रदान किया गया। 1976 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया और 1991 में पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया। श्याम बेनेगल ने हिन्दी सिनेमा को ही नहीं, भारतीय सिनेमा को जिस शीर्ष पर पहुंचाया, वह अतुलनीय है। लेकिन साथ ही उनके द्वारा बनाये गये वृत्तचित्र और टीवी धारावाहिक भी कम महत्त्व के नहीं है। एक महान फ़िल्मकार के रूप में वे सदैव याद किये जाएंगे। भारत के अतीत और वर्तमान को अपनी विशिष्टताओं और दुर्बलताओं के साथ समझने और एक बेहतर समतावादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत को बनाये रखने के संघर्ष में श्याम बेनेगल के सिनेमा के महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता।
(लेखक इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्ति के बाद अब स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हैं। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष है। संपर्क : jparakh@gmail.com)