नयी राजमाता का राज्याभिषेक और गांधी की माफ़ी

राजेंद्र शर्मा 

गांधी ही थे। राजघाट से निकल कर फुटपाथ पर दौड़-सी लगाते हुए। साथ रहने के लिए करीब दौड़ते हुए पूछा, इतने सुबह-सुबह कहां दौड़े जा रहे हैं, वह भी अपने बर्थ डे पर। बुजुर्ग फिस्स से हंस दिए, पर न रुके और न जवाब दिया। दोबारा और आग्रहपूर्वक पूछा, पर सुबह-सुबह दौड़ कहां की हो रही है। अब बुजुर्ग ने अपनी चाल जरा धीमी की और चश्मे के गोल-गोल शीशों के पीछे झांकती आंखों में शरारत भरी मुस्कुराहट के साथ लगभग फुसफुसा कर बोले — देसी गौमाता की तलाश में। हैरानी से सुर कुछ तेज हो गया — देसी गौमाता की तलाश में, जन्म दिन पर? अब बुजुर्ग रुक गए और समझाने की मुद्रा में आ गए — अपनी गलतियों की क्षमा मांगने से अच्छी जन्म दिन की शुरूआत क्या हो सकती है? अब हैरानी और बढ़ गयी — पहेलियां क्यों बुझा रहे हैं, ये गौमाता तो ठीक है, पर ये देसी गौमाता का क्या चक्कर है? और आपको काहे की क्षमा मांगनी है और वह भी देसी गौमाता से। बुजुर्ग बोले — काहे के खबरची हो, इतना भी नहीं पता कि देसी गौमाता को राजमाता का दर्जा दिया जा रहा है। महाराष्ट्र से शुरूआत हो गयी है, अब एक-एक कर के कम से कम डबल इंजनिया सरकारों वाले सभी राज्य तो राज्यमाता का दर्जा दे ही देंगे। इतने सारे राज्यों की राज्यमाता, पूरे देश की ही राजमाता हुई कि नहीं!

धड़ से पूछ डाला — पर इसमें आपके माफी मांगने की बात कहां से आ गयी। राजमाता का दर्जा मिलने की बधाई तो फिर भी बनती है, पर ये माफी क्या चक्कर है? बुजुर्ग ने दोनों कानों पर हाथ लगाए और लगे कहने कि माफी इसकी कि नयी राजमाता का पद हासिल करने के लिए, देसी गौमाता को आजादी के तीन कम अस्सी साल इंतजार करना पड़ा। माफी राजमाता के पद के बिना देसी गौमाता को गलियों में, सड़कों पर और न जाने कहां-कहां भटकना पड़ा, कूड़े-कचरे में मुंह मारना पड़ा, पॉलिथीन तक को निगलना पड़ा, उसके लिए। सच पूछिए तो जितना बड़ा पाप हमसे हुआ है, उसके लिए माफी तो बहुत छोटी है। नयी राजमाता अगर कोई सजा भी दें तो, मुझे तो वह भी मंजूर है। दूध वगैरह से वंचित रखने की सजा नहीं, वह तो मैं पहले ही छोड़ चुका था। कुछ पाप हो रहा था, इसका मुझे अंदर से आभास मिल रहा था, तभी तो मैंने खुद ही गौमाता का दूध पीना बंद कर दिया था। फिर भी पाप करने से खुद को नहीं बचा पाया। देश की स्वतंत्रता के समय पर, गौमाता को राजमाता का दर्जा नहीं दिला सका। दुर्दशा के अस्सी साल से गौमाता को नहीं बचा पाया। आसान था, हम अंगरेजों से कह सकते थे कि हमें आजादी बाद में देना, पहले हमारी देसी गौमाता को राजमाता का दर्जा दो। अंगरेज सौदेबाजी करते, हम पांच-दस साल और गुलामी में रह लेते, पर देसी गौमाता को तभी राजमाता के आसन पर बैठा सकते थे। बेचारी राजमाता को मोदी जी के आने और दुर्दशा से उबारने की, इतने साल लंबी प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ती!

बुढ़ऊ के चेहरे पर तैरते शरारत के भावों ने और भी कन्फ्यूज कर के रख दिया। मजा लेने की सूझी, तो पूछ दिया कि अंगरेज अगर गौमाता को राजमाता का दर्जा देने के लिए तैयार हो भी जाते, तब भी क्या सिर्फ देसी गौमाता के लिए ये दर्जा सुरक्षित करने के लिए तैयार होते? क्या ‘गाय-गाय सब बराबर’ का बहाना बनाकर, राजमाता के आसन का अधिकार एक हाथ देकर, दूसरे हाथ से देसी गौमाता को इस पद से वंचित करने की चतुराई नहीं करते? गौमाता के नाम पर, विदेशी गौमौसी को ही इस आसन पर बैठाने की कोशिश नहीं करते? बुजुर्ग की आंखें इस संभावना को पहचान कर कुछ और फैल गयीं। हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ बोले, बेशक अंगरेज अपनी तरफ से सारी शरारत करते। पर हम भी डटे रहते। लड़ाई होती। लंबी लड़ाई होती। पर दुनिया देखती कि अंतत: सत्याग्रह के शस्त्र की विजय होती। ना-ना करते-करतेे भी अंगरेजों को देसी गौमाता को राजमाता के पद पर आसीन करना ही पड़ता। वही हमारा सच्चा स्वतंत्रता दिवस होता। कंगना रणावत जी को भी असली स्वतंत्रता के लिए, मोदी जी के आने तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। काश, हमारे हाथों से देसी गौमाता के साथ ऐसा महापाप नहीं होता।

बात पटरी से उतरती लगी, तो संभालने की कोशिश में समझाने लगा। जो जब होना होता है, तभी होता है। अपने वक्त से पहले कुछ भी नहीं होता है। देसी गौमाता को राजमाता पद के लिए 2024 तक प्रतीक्षा करनी थी, तो करनी ही थी। आप नाहक अपने को दोष दे रहे हैं। पर बुजुर्ग के चेहरे पर खिसियाहट सी उतर आयी, शायद उन्हें मुझसे यह उम्मीद नहीं थी। समझाने लगे कि गलती इतनी नहीं थी कि हमें इतनी सिंपल सी मांग नहीं सूझी। गलती यह थी कि हम तो उल्टे ही रास्ते पर चल रहे थे। हम देसी गौमाता के लिए राजमाता के आसन की मांग क्या करते, हम तो बेचारे राजाओं-महाराजाओं के आसन मिटवाने के चक्कर में पड़े हुए थे। प्रजा-प्रजा के चक्कर में, जब राजाओं के राज जा रहे थे, तब बेचारी गौमाता को राजमाता के आसन पर कौन बैठाता! हम तो ऐसे सारे आसन ही मिटाने पर तुले थे। शुक्र है कि मोदी जी का जमाना आ गया और राजों-रजवाड़ों को दोबारा सम्मान मिलने लगा। तभी तो बढ़ते-बढ़ते बात अब राजमाता के आसन तक पहुंची है और अपनी देसी गौमाता, राजमाता के आसन तक पहुंची है। अब जब राजमाता कहलाएगी, तो कम से कम देसी गौमाता कचरे में तो मुंंह नहीं लगाएगी। हमारी देसी गौमाता, अपने कौल की पक्की है, राजमाता के आसान की आन निभाएगी, भूखी मर जाएगी, पर कचरे को मुंह नहीं लगाएगी! विदेशी गोमौसी में वो बात कहां!

कन्फ्यूजन में मुंह से निकल गया, बर्थ डे पर कोई और पछतावा, कोई और माफी? बुजुर्ग ने पहले अपनी नजरों से तोला और जब भरोसा हो गया कि सवाल गंभीरता से पूछा जा रहा है, लगे कहने कि पछतावे और भी कई हैं। पूरे तीन कम अस्सी साल ही देश को तमिलनाडु के गवर्नर के यह याद दिलाने की प्रतीक्षा करनी पड़ी कि सेकुलरिज्म तो विदेशी चीज है, हमें उससे परहेज करना चाहिए! और इससे याद आ रहा है कि हमें सूझा ही नहीं कि हमें संसद वगैरह से भी परहेज करना चाहिए था, वे सब भी तो विदेशी हैं। हमें राजाओं-महाराजाओं के स्वदेशी चरणों में पड़े रहना चाहिए था। और बेशक नयी राजमाता के भी। और बुजुर्ग, दुहाई, माफी राजमाता, माफी की गुहार लगाते हुए, तेज-तेज कदमों से देसी गौमाता की तलाश में शांति वन की तरफ निकल गए।
जाति ही पूछो भगवान की

कम से कम अब तो मीडिया वालों को यह झूठ फैलाना बंद कर देना चाहिए कि योगी जी का राज, सिर्फ ‘ठोक दो’ का राज है। अब तो यह खुद मीडिया वालों की आपबीती हो चुकी है कि योगी जी का राज, ‘ठूंस दो’ यानी सलाखों के पीछे ठूंसने का राज भी है। तभी तो पत्रकार अभिषेक उपाध्याय और उनके ही जैसे एक और पत्रकार के खिलाफ पुलिस इतनी मेहरबान है कि उनके खिलाफ सिर्फ एफआइआर दर्ज की गयी है। जी हां, न ठोक दो, न ऑपरेशन लंगड़ा, सिंपल एफआइआर। और वह भी तब, जबकि इन पत्रकारों ने यह लिखने की जुर्रत की है कि यूपी में न ‘ठोक दो’ राज है, न ‘बुलडोजर राज’ है, यूपी में तो ठाकुरवाद है।

याद रहे कि पत्रकारों के मामले में योगी जी की पुलिस ने इतनी नरमी इसके बावजूद बरती है कि उपाध्याय के मामले में एफआइआर में खुद पुलिस ने लिखा है कि आदित्यनाथ महाराज जी उनके लिए ईश्वर के अवतार के समान हैं। वैसे लिखने को एफआइआर में यह भी लिखा गया है कि देश के सभी मुख्यमंत्रियों में कोई और मुख्यमंत्री उनकी लोकप्रियता के करीब तक नहीं पहुंचता है, कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर योगी जी के सबसे ज्यादा फोलोवर हैं आदि, आदि। लेकिन, असली बात है, योगी जी का ईश्वर के अवतार के समान होना। जो महाराज ईश्वर के अवतार के समान हैं, उनकी भी शान में गुस्ताखी करने वालों के साथ भी पुलिस एफआइआर-एफआइआर ही खेल रही है। फिर भी शोर मच रहा है, ठोक दो राज का। ऐसा ही ‘ठोक दो राज’ होता, तो ईश्वर के अवतार की बेअदबी में उपाध्याय जी ठोक न दिए गए होते।

कहीं ऐसा तो नहीं कि योगी महाराज को ईश्वर का अवतार डिक्लेअर करने के बावजूद, पुलिस वाले कन्फ्यूज हों कि उपाध्याय वगैरह ने अवतार की बेअदबी की है, तो कैसे? योगी जी के राज में जो चल रहा है, उसे ठाकुरवाद बताकर? पर क्या योगी जी ठाकुर नहीं हैं? जो ठाकुर है, वह ठाकुरवाद नहीं चलाएगा, तो क्या जाति-तोड़ोवाद चलाएगा? वैसे यह दलील फिर भी बनती है कि योगी जी ठाकुर हैं नहीं, पहले थे। योगी बनने के बाद, ठाकुर-ठाकुर नहीं रहते हैं। कहा भी है, जाति न पूछो साधु की। पर पुलिस की मानें, तो योगी जी साधु कहां, वह तो ईश्वर के अवतार हैं। और हमारे यहां ईश्वर के अवतारों की जाति कहीं नहीं जाती है। ईश्वर के अवतारों की तो जाति ही पूछी जाती है। और जिन अवतारों की जाति का मामला साफ नहीं है, अब तो उनकी जाति भी रिसर्च कर-कर के खोजकर निकाली जा रही है। फिर ईश्वर के अवतार की जाति का जिक्र करने में बेअदबी होने का क्या चांस है?

वैसे यूपी पुलिस के कन्फ्यूज होने की एक और वजह हो सकती है। योगी महाराज को तो अब ईश्वर का अवतार डिक्लेअर किया गया है, मोदी जी ने तो अप्रैल में आम चुनाव के दौरान ही अपने नॉन-बायोलॉजीकल यानी देव लोक का प्राणी होने की स्वत: घोषणा कर दी थी। सेंटर में गद्दी पर ईश्वर का एक अवतार, यूपी में गद्दी पर ईश्वर का एक और अवतार, लगता है कि यूपी पुलिस वाले चकराए हुए हैं कि इन अवतारों में किसे बड़ा मानें, किसकी पूजा पहले करें। लखनऊ यूनिवर्सिटी में चांसलर और वाइस चांसलर से अपने बर्थ डे पर आरती करा के मोदी जी ने पहले ही बाजी भी मार ली है। रही बात अवतारों की जाति के जिक्र से बेअदबी होने की तो, मोदी जी तो खुद आए दिन चुनाव अपने ओबीसी होने का ढोल पीटते रहते हैं। वह तो इंतजार करते हैं कि कोई उनके राज में मनुवाद नहीं, ओबीसीवाद चल रहा बताए। फिर योगी माहाराज को ठाकुरवाद का नाम लेने से क्या प्राब्लम है।

डंका तो बज रहा है!
अब भाई कोई कुछ भी कहे‚ मोदी जी का डंका तो बज रहा है। हल्का–धीमा नहीं‚ जोर–जोर से बज रहा है। अब सिर्फ इसलिए कि अमेरिका में मोदी–मोदी करने के लिए भक्तों को मोदी जी के पीछे–पीछे ढोकर ले जाया गया था‚ डंके की आवाज कोई कमजोर नहीं हो जाएगी। एनआरआई बन कर अमेरिका में करें या आरआई यानी रेजीडेंट इंडियन बन कर भारत में करें‚ भारत वाले कर तो मोदी–मोदी ही रहे हैं। अगर यह भी डंका बजना नहीं है‚ तो डंका बजना किसे कहेंगेॽ

फिर मोदी जी का डंका सिर्फ भारतीय ही थोड़े बजा रहे हैं। भारत और भारतीयों की छोड़ो‚ सिर्फ एशिया वाले भी नहीं‚ योरप वाले भी मोदी जी के नाम के डंके बजा रहे हैं, और डंके बजाने ही पड़ेंगे। पट्ठे योरप वालों ने शौक–शौक में यूक्रेन–रूस वाली लड़ाई तो छेड़ ली‚ लेकिन उनकी गति सांप–छंछूदर वाली हो गई है। न लड़ाई उगलते बनती है‚ न निगलते। और कोई रास्ता नहीं दिखा, तो हमारे मोदी जी से विनतियां कर रहे हैं कि प्लीज‚ हमारी लड़ाई रुकवा दो। यूक्रेन वाले जेलेंस्की साहब ने तो अब मुगले आजम के प्रसिद्ध डॉयलाग की पूरी कॉमेडी ही कर के रख दी है – यूक्रेन वालो‚ रूसी तुम्हें जीने नहीं देंगे और अमेरिकी तुम्हें मरने नहीं देंगे ; तुम फिलहाल युद्ध की दीवार में चिने रहो! मजा ये कि जेलेंस्की साहब कभी मिलने जा रहे हैं‚ तो कभी मिलने बुला रहे हैं‚ पर किसी न किसी बहाने से मोदी जी के गले पड़ रहे हैं। और पूतिनॽ मिलने भी बुला रहे हैं और मोदी जी के खास दूत बन कर पहुंचे‚ डोवाल साहब को कुर्सी के इतने किनारे पर‚ इतने किनारे पर बैठा रहे हैं‚ कि देखने वालों को देख कर ही डर लगता है कि पूतिन जोर से गला खखार न दे‚ वर्ना बंदा कहीं कुर्सी से टपक ही न पड़े। ये सब भी तो डंका पिटने के ही लक्षण हैं।

और रेजीडेंट इंडियनों के डंके पीटने की तो पूछो ही मत। सुना है बारिश ने बीच में टांग अड़ा दी‚ वर्ना पुणे वालों ने तो अपनी मैट्रो का मोदी जी से छठवीं बार उद्घाटन करा लिया होता। लोग फिर भी मान नहीं रहे हैं और छठी बार का उद्घाटन रिमोट से ही करने की मांग कर रहे हैं‚ ताकि सातवीं बार के लिए ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़े। यह डंका नहीं तो और क्या हैॽ

भारतीय रेल में पेरू की रेल की मिलावट

इन सेकुलर वालों की यही प्राब्लम है। मोदी पार्टी का हाथ जिस चीज में भी लग जाए, उसके मुकाबले हर चीज चलने लायक हो जाती है। अब बताइए चंद्रबाबू नायडू ने तिरुपति के मंदिर के लड्डू में गाय की चर्बी से लेकर मछली के तेल तक का शोर मचाया, फिर भी भाई लोग पी गए। ठीक से हाय-हाय तक नहीं की। उल्टे इसकी नसीहतें और कि यह संवेदनशील मुद्दा है, इसका सांप्रदायीकरण नहीं किया जाना चाहिए, वगैरह। क्यों? इसीलिए ना कि चंद्रबाबू नायडू मोदी जी के संगी हैं। कहते हैं कि मान लो जरा-सी मिलावट हो भी गयी, तो आसमान सिर पर क्यों उठाया जा रहा है, तिल का ताड़ क्यों बनाया जा रहा है। और यह भी कि ऐसे मुद्दे उछालकर लोगों को क्यों भरमाया जा रहा है? पर वही लोग, जी हां वही सेकुलर वाले इतनी-सी बात के लिए रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव की जान के पीछे पड़ गए हैं कि उन्होंने रील बनाकर मोदी जी के टैम की भारतीय रेलवे की एक झलक दिखायी, तो उसमें पेरू की रेल की तस्वीरें कैसे चली आयीं। शोर मचा रहे हैं कि भारतीय रेल में, पेरू की रेल की मिलावट क्यों?

एक सोचने वाली बात है, वंदे भारत की तस्वीर में पेरू की रेल की तस्वीर की मिलावट से किसी का क्या नुकसान हो सकता है? तस्वीर और वह भी रेलवे की, कोई खाने-पीने का सामान तो है नहीं कि स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो। उल्टे वास्तविक से सुंदर तस्वीर देखने से, चाहे तस्वीर रेलगाड़ी की ही क्यों न हो, दर्शकों को कुछ न कुछ नैन सुख ही मिलता है। और इतना ही क्यों? रेलमंत्री की रीलें देख-देखकर दुनिया भर में भारत की जो छवि बनेगी वो! एक अच्छी तस्वीर से अच्छा विज्ञापन किसी देश का क्या हो सकता है? लोग देखें और अश-अश करें, और क्या चाहिए! अब प्लीज कोई ये मत कहना कि तस्वीरों की मिलावट का बाकी सारी दुनिया को पता चल गया, तो भारत की मशहूरी होगी या बदनामी? सिंपल है, किसी को मिलावट का पता ही कैसे चलेगा? बाहर थोड़े ही किसी को इसकी छानबीन करने की फुर्सत है कि वंदे भारत के नाम पर कहां की तस्वीर चलायी जा रही है। बस जरा, अपने यहां ही फैक्ट चेकरों की चूड़ी ठीक से टाइट करने की जरूरत है। मोदी जी ने चूड़ी टाइट तो की है, पर देश को बदनाम करने वाली खबरें तो फिर भी आ ही जाती हैं। चूड़ी जरा और टाइट, फिर सब कुछ राइट।
वही लोग जो पेरू की रेल की तस्वीर लगाने पर इतना शोर मचा रहे हैं, तिरुपति के लड्डू में मिलावट को हानिरहित बताने पर लगे हुए थे। यह साबित करने के लिए कि अगर थोड़ी-बहुत मिलावट हो भी गयी, तो कुछ गजब नहीं हो गया, कैसी-कैसी दलीलें ढूंढ लाए। कहते हैं कि नाम प्रसादम होने से क्या हुआ, है तो घी का लड्डू। और घी का लड्डू जरा-सा टेढ़ा हो जाए, तो क्या घी का लड्डू नहीं रहेेगा! वैसे मिलावट बुरी बात है, नहीं होनी चाहिए। शुद्धता ही होनी चाहिए। लेकिन, मिलावट के इस जमाने में शुद्धता कहां? जब तक शुद्धता नहीं आती है, तब तक भक्तों को भगवान के प्रसादम से वंचित तो नहीं रख सकते। फिर घी में पशु चर्बी की मिलावट पर हाय-हाय करना तो और भी फालतू बात है। घी तो खुद पशु चर्बी है। पशु चर्बी में पशु चर्बी की मिलावट तो ऐसे ही है, जैसे पानी में पानी की मिलावट। यह मिलावट भी कोई मिलावट है लल्लू!

आखिर में एक बात और। पेरू जैसे छोटे देश की रेलगाड़ी की तस्वीर को अपनाना और अपनी तस्वीर की तरह सारी दुनिया को दिखाना, क्या यह विश्व गुरु होने के नाते हमारी जिम्मेदारी नहीं है!!

(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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