डॉ. सुशील उपाध्याय
एक राष्ट्र और एक राष्ट्रभाषा का विचार सैद्धांतिक तौर पर बहुत प्रभावपूर्ण दिखाई देता है, लेकिन जब इसके व्यावहारिक पहलुओं को देखते हैं तो अनेक चुनौतियां इसकी राह में खड़ी होती है। भारत के हिंदी क्षेत्र में जब भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग उठती है तो एक गहन गौरव का भाव इसके साथ जुड़ा होता है प्रकारांतर से इसका अर्थ यह होता है कि हिंदी ही राष्ट्र है और राष्ट्र ही हिंदी है। इस ध्वनि से देश के वे हिस्से अचानक ही असहयोगिता से भर जाते हैं जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है। उन्हें इस विचार के साथ किसी प्रकार का अपनत्व और साहचर्य, प्रायः अनुभव नहीं होता। सामान्य तौर पर भाषा को किसी राष्ट्र (जैसे कि यूरोप के अनेक देश) को एक सूत्र में बांधने का सबसे आवश्यक और अनिवार्य आधार माना जाता है, लेकिन यह आधार भारत जैसे भाषिक विविधता वाले देश में एक अलग ही प्रकार की चुनौती लेकर सामने आता है। अब प्रश्न यह है कि भारत के संदर्भ में हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर ही देखा जाना चाहिए या इसे राष्ट्र की संपर्क भाषा के रूप में स्थान दिया जाना चाहिए ? यहां पर भी दो दृष्टियां साफ दिखाई देती हैं-हिंदी पट्टी का जोर है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में ही स्थान मिलना चाहिए, जबकि गैर हिंदी भाषी लोगों का कहना और मानना है कि उनकी भाषा हिंदी से किसी भी मामले में कमतर नहीं है तो फिर वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में क्यों स्वीकार करें ?
दोनों प्रश्न और उनके उत्तर के रूप में प्रस्तुत किए जाने वाले तर्क अपने-अपने स्थान पर सही प्रतीत होते हैं, लेकिन भावनात्मक दृष्टि को कुछ देर के लिए अलग कर दिया जाए तो देश और हिंदी के हित में सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि यही होगी कि इसे राष्ट्रभाषा की बजाय संपर्क भाषा के रूप में विकसित किया जाए। सामान्यतः प्रत्येक देश के पास एक भाषा होती है जिसमें वह प्रशासनिक और राजकीय कार्य करता है। इसके समानांतर एक या अधिक भाषाएं ऐसी भी हो सकती हैं जिनके जरिए लोग आपस में संपर्क करते हैं और देश के भीतर उसे माध्यम के रूप में अपनाते हैं। यह भाषा कुछ संदर्भ में व्यापार की भाषा भी होती है। इसके साथ एक और भाषा भी हो सकती है जिसे ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यदि किसी राष्ट्र में ये तीनों कार्य कोई एक ही भाषा कर रही है तो वह एक आदर्श स्थिति होगी। उदाहरण के लिए फ्रांस में फ्रेंच, जर्मनी में जर्मन, रूस में रूसी और इंग्लैंड एवं अमेरिका में अंग्रेजी, उपर्युक्त तीनों कार्यों को करने में सक्षम है।
इसी बात को भारत पर लागू करें तो स्थिति भिन्न दिखाई देती है। भारत एक राष्ट्र होने के साथ-साथ अपने भीतर कई उप राष्ट्रीयताओं को भी समेटे हुए इसलिए यहां किसी एक भाषा को शासकीय कार्य की भाषा, देश के भीतर संपर्क की भाषा और ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाया जाना लगभग असंभव प्रतीत होता है। यह बात अवश्य है कि जब विकल्पों के विषय में विचार किया जाता है तो हिंदी सबसे समर्थ विकल्प के रूप में दिखाई देती है क्योंकि अन्य भाषाओं की तुलना में हिंदी का भौगोलिक क्षेत्र और बोलने वालों की संख्या दोनों ही बहुत अधिक है। (बोलने वालों की संख्या और भौगोलिक क्षेत्र, दोनों पैमानों पर भारत में हिंदी का हिस्सा आधे से अधिक है।) यहां यह बात भी ध्यान रखने वाली है कि हिंदी के भीतर पांच उप भाषाएं और 18 बोलियां सम्मिलित हैं। यानी हिंदी एक गुलदस्ता है, लेकिन यह गुलदस्ता उपर्युक्त तीनों कार्य एक साथ करने में समर्थ नहीं है। इस गुलदस्ते के साथ अंग्रेजी को नत्थी करना पड़ता है, तभी तीनों कार्य सध पाते हैं। भारत में आजादी के बाद भाषा के संदर्भ में दो उल्लेखनीय बातें हुई हैं। पहली, अंग्रेजी का प्रयोग व्यापक रूप से बढ़ा है और दूसरी, देश के हिंदीतर क्षेत्र में हिंदी को एक-दूसरे के साथ संपर्क बनाने की भाषा के रूप में लोगों ने ग्रहण किया है। ये दोनों ही बातें अब भी एक साथ आगे बढ़ रही हैं अर्थात देश के समर्थ-समृद्ध वर्ग में अंग्रेेजी जानने-सीखने वालों की संख्या गुणात्मक रूप से बढ़ी है और अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे, गरीब तबके में हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग करने वालों का आंकड़ा भी बढ़ रहा है।
उपर्युक्त परिस्थितियों में एक राष्ट्र और एक भाषा का विचार कितना व्यावहारिक है और इसे किस स्तर तक लागू किया जा सकता है, इस पर अतिरिक्त गंभीरता से विमर्श की आवश्यकता है। यह विमर्श, सरकारी, गैर सरकारी, अकादमिक और आम लोगों, सभी के बीच होना जरूरी है। यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में कठोरता से लागू करने की नीति पर विचार किया जाए तो इसका दक्षिणी राज्यों द्वारा निश्चित रूप से विरोध किया जाएगा क्योंकि दक्षिण भारत के सभी राज्यों में अपनी-अपनी भाषा को लेकर अतिरिक्त रूप से संवेदनशीलता मौजूद है। (अन्यों की तुलना में तमिलनाड़ू में यह अधिक है।)
केवल दक्षिण में ही नहीं, बल्कि पूर्व में उड़िया और बांग्ला तथा पूर्वोत्तर में असमिया एवं अन्य भाषाओं के क्षेत्रों में भी यही स्थिति है। इसी प्रकार पश्चिम, दक्षिण-पश्चिम में पंजाबी, गुजराती, मराठी और कोंकणी क्षेत्र के लोग भी संभवतः इस विचार को स्वीकार नहीं करेंगे कि उनकी अपनी भाषाओं पर हिंदी हावी हो जाए।
वर्तमान में भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाओं से संबंधित अनुसूची में शामिल किया गया है। हिंदी भी इनमें से एक है। (इन 22 भाषाओं में अंग्रेजी शामिल नहीं है।) ऐसे में यह विचार सहज ही अस्वीकार किए जाने योग्य हो जाता है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में कोई एक भाषा राष्ट्रभाषा बना दी जाए, बल्कि यहां अनेक राष्ट्रभाषाएं होंगी और जो हैं भी। फिर सवाल यह है कि यदि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती तो देश में हिंदी का स्थान क्या होगा ? इस सवाल का उत्तर बहुत ही आसान है कि हिंदी का स्थान देश की संपर्क भाषा के रूप में होगा। इस विचार का शायद ही कहीं कोई विरोध हो। वस्तुतः हिंदी को ही देश की संपर्क भाषा के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। अतीत को देखें तो राष्ट्रभाषा के विचार से हिंदी को काफी नुकसान हुआ है क्योंकि जब भी दक्षिण को ऐसा लगता है कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है तो वे हिंदी के सामने अंग्रेजी को लाकर खड़ा कर देते हैं। जैसा कि वर्ष 2023 और 2024 में लोकसभा में बहसों के दौरान दक्षिणी राज्यों, विशेष रूप से तमिलनाड़ू के सांसदों ने अंग्रेजी का समर्थन और हिंदी का सायास विरोध किया है। ऐसा करना प्रकारांतर से उनकी राजनीतिक मजबूरी भी है।
आजादी के समय दक्षिणी राज्यों, पूर्व एवं पूर्वोत्तर के राज्यों तथा पश्चिमी राज्यों में अपनी मातृभाषा के बाद हिंदी को स्थान दिया जाता था, लेकिन जैसे ही इन राज्यों के मन में शंकाएं पैदा हुई तो इन्होंने हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी को प्राथमिकता देनी शुरू की। इसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर राज्यों में हिंदी तीसरे स्थान पर या कई राज्यों में इससे भी नीचे की स्थिति में चली गई। इन चुनौतीपूर्ण स्थितियों में यदि हम हिंदी को राष्ट्रभाषा की बजाय संपर्क भाषा के रूप में बढ़ावा दें तो हिंदी स्वाभाविक रूप से हिंदीतर राज्यों में दूसरे स्थान पर आ सकेगी। एक बार हिंदी संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो जाए तो इसके स्थान को और बेहतर करने में ज्यादा आसानी होगी। इस क्रमिक संभावित परिवर्तन के बाद चाहे हिंदी को किसी भी संज्ञा (राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, देश भाषा आदि) से विभूषित कर लें।
नई शिक्षा नीति में हिंदी को काफी प्राथमिकता दी गई है, लेकिन जैसे यह नीति सामने आई देश के हिंदीतर राज्यों में विरोध की आवाज उठने लगी। परिणाम यह हुआ कि हिंदी को विस्तार देने का कार्य आरंभ होने से पहले ही मंद गति का शिकार हो गया। इस विमर्श में यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि राजभाषा के रूप में हिंदी का कहीं कोई विरोध नहीं है। भारत सरकार के नियमों के अनुसार जहां-जहां पर राजभाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग किया जाना चाहिए वहां इस रूप में हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है, लेकिन जब राजभाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की बात सामने आती है तो वहीं पर विरोध शुरू हो जाता है। इस स्थिति में एक ही प्रश्न है कि इस चुनौती का समाधान क्या है? इसका समाधान यह है कि हिंदी को देश की राजभाषा के साथ-साथ संपर्क भाषा के रूप में विकसित किया जाए यानी संपर्क भाषा के रूप में होने वाले विकास में राजभाषा भी सहयोगी भूमिका निभा सकेगी।
यहां यह भी ध्यान रखा जाए कि संपर्क भाषा वैसी हिंदी नहीं होगी, जैसी हिंदी प्रदेशों में बोली जाती है, बल्कि इसका स्वरूप काफी हद तक उन राज्यों या क्षेत्रों की भाषिक प्रकृति के अनुरूप होगा, जहां इसका प्रयोग किया जाएगा। उदाहरण के लिए केरल में प्रयोग की जाने वाली हिंदी, हिंदी की एक नई बोली होगी जिसे मलयाली हिंदी कहा जा सकेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे, हैदराबादी हिंदी, मद्रासी हिंदी या कलकतिया (कोलकतिया) हिंदी। ऐसी हिंदी को स्वीकार करने में देश के किसी भी गैर हिंदी भाषी क्षेत्र को संभवतः ऐतराज नहीं होगा। इस मामले में हिंदी पट्टी के लोगों और हिंदी विद्वानों को व्यापक उदारता दिखानी होगी। हिंदी में पहले से मौजूद 18 बोलियांे की संख्या बढ़ाते हुए इनमें मलयाली हिंदी, मद्रासी हिंदी, तेलुगू हिंदी, कन्नड़ हिंदी, बांग्ला हिंदी, उड़िया हिंदी, गुजराती हिंदी, मराठी हिंदी, असमिया हिंदी, मणिपुरी हिंदी आदि को भी बोली के रूप में स्थान देना होगा। इन सभी बोलियों में संपर्क भाषा का ढांचा हिंदी का होगा, जबकि जरूरत के अनुरूप स्थानीय भाषा के शब्दों का सहज प्रयोग किया जा सकेगा। हिंदी पट्टी की बोलियों में भी ऐसा ही होता है। जहां तक इन नई बोलियों के दूसरों की समझ में न आने की बात है तो हिंदी की कुछ बोलियों को दूसरी बोलियों के लोग भी आसानी से नहीं समझ पाते। जैसे हरियाणवी बोली के लोगों को आसानी से कुमाउंनी समझ नहीं आएगी, इसी प्रकार कन्नौजी क्षेत्र के लोगों के लिए छत्तीसगढ़ी मुश्किल होगी। इस मुश्किल के बावजूद इन्हें हिंदी का भाषिक ढांचा साथ में जोड़ता है। इसी तरह हिंदीतर भाषाओं के साथ मिलकर विकसित होने वाली हिंदी बोलियां भी वृहद हिंदी परिवार का हिस्सा बन जाएंगी और संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी को संबल प्रदान करेंगी। इस तरह के प्रयोग से संबंधित राज्यों को हिंदी के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने का अवसर मिलेगा। इन नई बोलियों में मूल आधार के रूप में हिंदी ही मौजूद होगी लेकिन भाषिक और सांस्कृतिक परिवेश संबंधित राज्य के अनुरूप होगा।
भाषाओं की एक प्रवृत्ति होती है कि वे कठिनता से सरलता की ओर जाती हैं। जो लोग यह समझते हैं कि हिंदी को संस्कृतनिष्ठ कर देने से उसे पूरे देश में स्वीकार कर लिया जाएगा, वे संभवतः सही नहीं सोच रहे हैं। इसके उलट, हिंदी में अन्य भाषाओं के सामान्य बोलचाल के ऐसे शब्दों को भी स्थान देने का प्रयास होना चाहिए जिन्हें हिंदीतर राज्यों में बड़ी संख्या में प्रयोग में लाया जाता है। वैसे, यह कार्य फिल्म जगत और सोशल मीडिया के माध्यम से पहले से ही हो भी रहा है, लेकिन सांस्थानिक स्तर पर नहीं हो रहा है। इस प्रक्रिया में अंग्रेजी के उन शब्दों को स्वीकार करने के मामले में भी उदार दृष्टि होनी चाहिए जो प्रायः भारत की सभी भाषाओं में इस्तेमाल किया जा रहे हैं। यह कार्य महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तुत किए गए हिंदुस्तानी भाषा के विचार (कुछ देर के लिए वर्तनी की बात को अलग रखते हैं।) के माध्यम से भी किया जा सकता है। इसी विचार को सामने रखकर देश भर में ऐसा नेटवर्क तैयार किया जाना चाहिए जो संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के सरल और स्थानीय भाषाओं के सहयोगी रूप को पूरे देश में फैला सके। पूरे देश को इसका दुतरफा लाभ होगा। देश के भीतर ज्यादा मजबूत भाषिक संपर्क हो सकेगा और हिंदी पट्टी के उस अहं को भी तुष्टि मिल सकेगी कि पूरे देश ने हिंदी को स्वीकार कर लिया है। वैसे भी इस समय देश के दक्षिणी राज्यों और पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए एक मजबूत संपर्क भाषा की बहुत जरूरत है और यह मजबूत संपर्क भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती क्योंकि अंग्रेजी का फैलाव उच्च वर्ग तक ही है।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो भारत की भाषाओं के एक दूसरे के निकट आने का जो काम बीते 500 साल में हुआ है, आज व्यापक संचार संपर्कों के चलते इससे भी अधिक काम को अगले 50 साल के भीतर अंजाम दिया जा सकता है। विगत दशकों में हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में विकसित करने में हिंदी फिल्मों, केंद्रीय सेवाओं के अधिकारियों-कर्मचारियों, सैन्य सेवाओं के लोगों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और यहां तक कि रेलवे ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। (हिंदीतर क्षेत्रों के राजनीतिक नेता इस बात को अच्छी प्रकार समझते हैं कि देश की राजनीति में छाप छोड़ने के लिए हिंदी का ज्ञान बहुत जरूरी है।) नगरीय क्षेत्रों में हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में विकसित करने में लंबी दूरी तय करने वाले ड्राइवरों, राजमार्गों के किनारे मौजूद ढाबा संचालकों, होटल इंडस्ट्री से जुड़े लोगों, नगर क्षेत्र के दुकानदारों और सर्विस सेक्टर से जुड़े लोगों ने एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इन लोगों के माध्यम से भी हिंदी को देश की संपर्क भाषा बनाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई जा सकती है।
ये सभी वर्ग हिंदी के संपर्क सैनिक है, लेकिन जब हिंदी की नीतियों को दिल्ली केंद्रित (हिंदी पट्टी केंद्रित) बनाया जाता है तो ये नीतियां गैर हिंदी भाषा क्षेत्रों के लिए किसी काम की नहीं होती। जब हिंदी के लिए नीतियों का निर्धारण करना हो तो यह समझना होगा कि जो नीति तमिलनाडु के लिए उपयोगी है, यह निश्चित नहीं है कि वही नीति असम के लिए भी उपयोगी होगी। इसका अर्थ यह है कि गैर हिंदी भाषी राज्यों में संबंधित क्षेत्र की प्रकृति के अनुरूप अलग-अलग प्रकार की नीति का निर्धारण करना आवश्यक होगा। और ऐसी नीति के निर्धारण में इतना बारीक अंतर भी रखना होगा कि नगरीय क्षेत्रों और ग्रामीण क्षेत्र की भाषा एक जैसी नहीं होती। ऐसे में, गांवों और शहरों के लिए एक समान नीति कारगर नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए यदि आप भुवनेश्वर से विशाखापट्टनम और वहां से आगे चेन्नई तक की यात्रा सड़क मार्ग से करते हैं तो इस हिस्से में जितने भी बड़े नगर होंगे वहां पर संपर्क-संवाद की भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग में कोई विशेष कठिनाई नहीं आएगी, लेकिन जैसी आप ग्रामीण क्षेत्र की तरफ जाएंगे हिंदी का प्रयोग कम दिखाई देने लगेगा और संवाद में मुश्किलें पैदा होंगी। इसलिए दोनों प्रकार के क्षेत्रों के लिए अलग नीति की जरूरत होगी।
राष्ट्रभाषा के विचार के संदर्भ में यह भी समझने की आवश्यकता है कि हर एक भाषा की अपनी अलग संस्कृति एवं परिवेश होता है। जब किसी अन्य भाषा को सरकारी संरक्षण देकर लागू करने का प्रयास होता है तो संबंधित भाषा के लोगों को अपनी संस्कृति को खोने का डर पैदा होने लगता है। इस बात को हिंदी को सरकारी स्तर पर देश भर में लागू करने के मामले में देखें तो यह विचार गैर हिंदी भाषी क्षेत्र के लिए डर का कारण बनता है। इस प्रक्रिया में भाषाई अस्मिता एक बड़ा प्रश्न बन जाती है।
इस विमर्श में एक अन्य पहलू यह भी है कि उत्तर भारत के लोग हिंदी और अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा को सिखने में रुचि नहीं लेते। दूर दक्षिण और पूर्वाेत्तर की भाषाओं की बात छोड़िए, वे हिंदी पट्टी से मिली पंजाबी, गुजराती, मराठी, बांग्ला और उड़िया जैसी भाषाएं सीखने में भी उत्सुक नहीं होते। इसके उलट दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्यों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी मातृभाषा तथा अंग्रेजी के अलावा हिंदी भी सीखेंगे। यह एक प्रकार से गैर हिंदी भाषी राज्यों के लोगों पर एक बड़ा बोझ बन जाता है। इसके चलते राजनीतिक विरोध भी शुरू होता।
गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों के जिन लोगों ने अकादमिक रूप से हिंदी भाषा का अध्ययन किया है वे एक अलग प्रकार की चुनौती का सामना करते हैं। चुनौती यह है कि हिंदी पट्टी का बच्चा अपने परिवार के भीतर से हिंदी सीख कर आता है। उसका परिवेश भी उसे हिंदी में प्रोत्साहित करता है जबकि दक्षिण या अन्य गैर हिंदी भाषी क्षेत्र के जो युवा अकादमिक रूप से हिंदी पढ़ते हैं, उन्हें हिंदी को एक पराई भाषा अर्थात अपने सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से भिन्न भाषा के रूप में ही पढ़ना होता है। ऐसे मामलों में जब राष्ट्रीय स्तर पर तुलना, प्रतिस्पर्धा अथवा प्रयोगात्मक परीक्षा की बात आती है तो हिंदी भाषी राज्यों और हिंदीतर राज्यों के युवाओं के मूल्यांकन का पैमाना एक समान होता है। उदाहरण के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवाओं और यूजीसी की नेट परीक्षा में हिंदी का पाठ्यक्रम गैर हिंदी भाषा क्षेत्र और हिंदी भाषा क्षेत्र के लिए एक जैसा है, जबकि इसे अलग-अलग रखा जाना चाहिए क्योंकि गैर हिंदी भाषा क्षेत्र का युवा दशकों के लंबे अभ्यास के बाद भी उस स्तर पर आसानी से नहीं पहुंच सकेगा जिस स्तर पर हिंदी भाषा क्षेत्र का युवा खड़ा हुआ। भाषा के मामले में ऐसा वर्गीकरण कोई नई बात नहीं है क्योंकि दुनिया के अनेक देशों में एक ही भाषा को मातृभाषा और सीखी हुई भाषा के तौर अलग वर्गीकृत किया जाता है।
सारतः यह कहा जा सकता है कि देशभर में हिंदी के किसी एक रूप को लागू करने की बजाय उसके विविध रूपों को बढ़ावा दिया जाए और इन भाषा रूपों का निर्धारण संबंधित क्षेत्र के लोगों की जरूरतों के अनुरूप होना चाहिए। त्रिभाषा फार्मूले से अच्छे लाभ मिल सकते हैं, लेकिन शर्त यह होनी चाहिए कि हिंदी पट्टी में सेकेंडरी स्तर तक हिंदी पट्टी से बाहर की कोई भाषा पढ़ाई जानी चाहिए। ये भाषा पंजाबी से लेकर कोंकणी और मलयालम से लेकर मणिपुरी तक कोई भी हो सकती है। भले ही बच्चा इसमें पारंगत न हो पाए, लेकिन इसके प्रति लगाव का भाव जरूर पैदा होगा। हिंदी को संपर्क भाषा के तौर पर विकसित करने के लिए अपरंपरागत तरीकों को भी अमल लाए जाने की जरूरत है।