रांची। झारखंड मुक्ति मोर्चा में किसी भी नेता को अपमानित कर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना एक आम बात माना जाता है ।पिछले चार दशक में सैकड़ो की संख्या में कई बड़े नेताओं ने अपमानित होकर अथवा विवश होकर या तो पार्टी या राजनीति से सन्यास लिया है ।कई नेता ने भाजपा,कांग्रेस और राजद की सदस्यता ग्रहण कर अपनी राजनीति को सक्रीय रखा ।मोर्चा छोड़ने वाले कुछ नेता विफलता की ढलान में फिसलकर समाप्त भी हो गये।यह सच है की मोर्चा की राजनीति अन्य पार्टी की अपेक्षा अनोखी है।मोर्चा में कब किसी बाट लग जाए कहना कठिन है।हां अलबत्ता चार पांच नेता की अपनी पैठ अवश्य है जो आलाकमान को सलाह दिशा-निर्देश देकर अपना मतलब साध रहे है। झारखंड में 1995 से पहले तक किसी अन्य दल की इतनी औकात नही थी की वो झामुमो के समझ किसी तरह की चुनौती खड़ा कर सके ।सिंहभूम, चाईबासा,जमशेदपुर, धनबाद, गिरीडीह कोडरमा,गुमला,सिमडेगा ,लोहरदगा,संथाल परगना का पुरा क्षेत्र मोर्चा के कब्जे में संचालित हो रहा था।मोर्चा हर दस बर्ष के अंतराल में बिखरता रहा।मोर्चा के तेज तरार नेता शैलेन्द्र महतो ,विधूतवरण महतो ने भी इसी प्रकार पार्टी छोड़ी थी। कुछ समय पूर्व ही सीता सोरेन सोरेन ने भी मोर्चा बाय बाय कह कर भाजपा में चली गई। सिंहभूम के क्षेत्र से कई सक्रिय नेता ने मोर्चा में अपनी बात रखने की कोशिश में अपमानित होकर या पार्टी से निष्कासित किया गया अथवा उन्होने स्वयं किनारा ले लिया । मोर्चा मे यह कहा जाता था की शिबू सोरेन और सूरज मंडल की जोड़ी कभी टूट सकती ।परन्तु सूरज मंडल को विवश होकर मोर्चा से किनारा होना पड़ा। यह कहा जाता था की चम्पाई सोरेन शिबू सोरेन के सबसे सच्चे और अति विश्वासी नेता के रूप मे माने जाते थे। जैसा की चम्पाई सोरेन ने अपने खुले पत्र मे लिखा है की मुझे अपमानित और उपेक्षित किया जा रहा था ।अतः उन्होने अपनी डगर तलाशने को विवश हो गये ।मोर्चा के शीर्ष नेता जिसमें कृष्णा मारडी को भी इसी तरह मोर्चा छोड़ना पड़ा था। यह बात तय है की पहले की अपेक्षा मोर्चा की शक्ति मे लगातार कमी आई है। यह तय है की चम्पाई सोरेन यदि अपनी राह बदलते है तो उनके समर्थक भी मोर्चा को छोड़ सकते है। मोर्चा एक बार फिर कमजोर हो सकता है।