आलेख : मज़्कूर आलम
आह! एक दिन पहले देश आपातकाल की घोषणा के पचासवें साल में प्रवेश कर गया। 26 जून 1975 की सुबह देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो से यह घोषणा की थी कि राष्ट्र पर आंतरिक अशांति का ख़तरा है ; इसी आधार पर राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल लगाया है।
अब ज़रा देखते हैं कि आंतरिक अशांति के ख़तरे का मूल्यांकन इंदिरा सरकार ने कैसे किया? वह भी इतनी बड़ी कि मौखिक ही मंत्रिपरिषद की संस्तुति कर दी राष्ट्रपति से। इसके लिए ज़्यादा नहीं, 26 जून से क़रीब एक पखवाड़े पीछे चलते हैं।
*इंदिरा पर अचानक आई विपदाओं की बाढ़*
12 जून! 1975 की यही वह तारीख़ थी, जिसने आपातकाल की आधारशिला रखी। यह दिन निजी तौर पर इंदिरा गांधी के लिए हथौड़े की तरह था, जिसकी चोट घम्म से भारतीयों पर पड़ी।
इंदिरा के दिन की शुरुआत उनके बेहद क़रीबी डीपी धर (दुर्गा प्रसाद धर) के निधन की सूचना से हुई। वह दुख की बदली में घिरी थीं, तभी मध्यांतर बाद दुखी मिसेज गांधी को हताशा बढ़ाने वाली ख़बर मिली। गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई है। गुजरात का परिदृश्य बदलने की ख़बर ने इंदिरा के इर्द-गिर्द छा रही दुख के बदली को घनी निराशा के कोहरे में बदल दिया। राज्य में जनता मोर्चा को बहुमत मिल गया था। 182 सीटों वाली गुजरात विधानसभा में कांग्रेस को सिर्फ़ 74 सीटें मिलीं। वहां बाबू भाई के नेतृत्व में फिर कुछ दिनों में जनता मोर्चा की सरकार भी क़ायम हो गई थी। यही वजह थी कि आपातकाल में गुजरात के नेताओं को ज़्यादा उत्पीड़न नहीं झेलना पड़ा था। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तब गुजरात में ही आरएसएस के प्रचारक हुआ करते थे, यह तथ्य सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अपनी एक स्पीच में सामने रखा और उनकी जेपी आंदोलन की सक्रिय भागीदारी पर सवाल उठाया। उनका कहना है कि गुजरात में जनता मोर्चा की सरकार होने की वजह से वहां आपातकाल का ज़्यादा प्रभाव नहीं था।
लेकिन अभी दिन की सबसे बड़ी विस्फोटक ख़बर आनी बाक़ी थी, जो मिसेज गांधी के दुःख, हताशा, निराशा में गुस्से का दावानल भी भड़का देती। दिन की निराशा और दुःख के सुरमई होने से पहले इंदिरा के बचपन के शहर से आई ख़बर ने उनके राजनीतिक जीवन में आग लगा दी। शाम से पहले ही उन्हें अपने राजनीति की स्याह रात दिखाई देने लगी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ‘इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण’ मामले में 1971 के रायबरेली लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने एक लाख (तब एक लाख की जीत बहुत बड़ी होती थी, क्योंकि मतदाता आज के मुक़ाबले बहुत कम होते थे) से ज़्यादा वोटों से राज नारायण को हराया था। चुनाव रद्द करने के साथ जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने निर्णय की तारीख़ से 6 साल तक इंदिरा गांधी के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध भी लगा दिया।
अदालत ने चुनाव के दौरान इंदिरा गांधी को कदाचार का दोषी पाया था। उन पर दो दोष सिद्ध हुए थे:
1. चुनाव प्रचार के दौरान अपने निर्वाचन क्षेत्र में सरकारी अधिकारियों से मदद लेने का।
2. चुनाव प्रचार के दौरान अपने सचिव यशपाल कपूर की मदद लेने का। यशपाल कपूर ने इंदिरा की रैलियों के प्रबंधन का कार्यभार संभाला था। अदालत का मानना था कि कपूर चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री सचिवालय में स्पेशल ड्यूटी पर नियुक्त थे। जबकि यशपाल कपूर और इंदिरा गांधी का कहना था कि वे चुनाव से पहले ही इस्तीफ़ा दे चुके थे। काग़ज़ात भी यही कह रहे थे। लेकिन अदालत ने इस दलील को ख़ारिज कर दिया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय देते हुए इसे चुनौती देने के लिए इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 20 दिन का समय दिया था।
शीर्ष अदालत से भी मिसेज गांधी को कोई ज़्यादा राहत नहीं मिली। 24 जून 1975 को आए फैसले में उसने बस इतना भर किया कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की इजाज़त दे दी, मगर लोकसभा की कार्यवाही में भाग लेने पर रोक लगा दी।
*राजनीति पर ग्रहण का अंदेशा*
इससे इंदिरा गांधी के सामने ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि वे तत्काल पद छोड़तीं तो उनके राजनीतिक करियर के अंत की आशंका थी और बनी रहतीं, तो उसे उचित ठहराना मुश्किल हो जाता।
उस पर से जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन लगातार तेज़ होता जा रहा था। वे अदालतों के फ़ैसले के आलोक में इंदिरा सरकार को असंवैधानिक साबित करने में लगे थे और इंदिरा गांधी पर इस्तीफ़े का दबाव बना रहे थे। जनता के भीतर भी चिंगारी भड़क गई थी। वह केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ दीवानों की तरह सड़कों पर निकल गई थी और अपने आक्रोश का प्रदर्शन कर रही थी।
तब इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन को बचाने के लिए ऐसा क़दम उठाया जो अक्सर ‘तानाशाह’ उठाते हैं। उन्होंने देश में आंतरिक अशांति का ख़तरा बताते हुए संविधान के ही आर्टिकल 352 का सहारा लेकर आपातकाल लागू कर दिया। यानी संविधान का ही सहारा लेकर ‘संविधान की आत्मा की हत्या’ कर दी।
*आंतरिक अशांति के लिए विपक्ष को ठहराया ज़िम्मेदार*
आंतरिक अशांति के संभावित ख़तरे के लिए इंदिरा ने विपक्ष और जनता के आंदोलनों को आधार बनाया। आपातकाल लगाने का आधार जयप्रकाश नारायण के उस भाषण को बनाया गया था, जिसमें इंदिरा के ख़िलाफ़ आए अदालतों के फ़ैसले के आलोक में नारायण सरकार को अवैधानिक बताते हुए जनता और सेना से आह्वान कर रहे थे कि वह सरकार की बात न मानें। सीधे-सीधे कहा जाए तो इंदिरा सरकार विपक्ष पर यह आरोप लगा रही थी कि वह देश की सेना, अधिकारियों समेत जनता को भड़का रहा है। इस वजह से गृहयुद्ध की आशंका पैदा हो गई हैं। एक शब्द में कहा जाए, तो इंदिरा सरकार का कहना ये था कि इस स्थिति के लिए वह नहीं, बल्कि विपक्ष ज़िम्मेदार है। जनता को उनसे नहीं, बल्कि विपक्ष से सवाल पूछना चाहिए।
*‘कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने’*
21 मार्च 1977 को इमरजेंसी हट गया। करीब 21 महीने बाद जनता ने बिना किसी प्रतिबंध के खुली हवा में सांस ली। इसके तुरंत बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में जनसंघ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने जो कहा था, वह क़ाबिले गौर है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में देश की जनता को चेतावनी दी कि भविष्य में कोई और सरकार भी इमरजेंसी लगा सकती है या वैसे हालात पैदा कर सकती है। दिल्ली रामलीला मैदान में जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा :
बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने
कहने सुनने को बहुत हैं अफसाने
खुली हवा में जरा सांस तो ले लें
कब तक रहेगी आजादी कौन जाने!
*जनता पार्टी ने आर्टिकल 352 में किया संशोधन*
आपातकाल हटने के बाद हुए लोकसभा चुनाव में जनता ने अपने आक्रोश का प्रदर्शन मतदान के ज़रिये किया। इंदिरा गांधी, संजय गांधी समेत पूरे देश में कांग्रेस की हार हुई। इसके बाद 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। तब जनता पार्टी ने यह कोशिश की कि संविधान में संशोधन कर आपातकाल को लागू करना मुश्किल बनाया जाए। जनता पार्टी ने 44वें संशोधन के ज़रिये आर्टिकल 352 में कुछ ऐसे प्रावधान जोड़े, जिससे किसी सरकार के लिए राष्ट्रपति से राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कराना 1975 जितना आसान न रहे। संशोधन के बाद आपातकाल लगाने के लिए किसी सरकार को केंद्रीय मंत्रिमंडल का लिखित प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजना ज़रूरी कर दिया गया। इसके अलावा आर्टिकल 352 में इमरजेंसी के लिए’आंतरिक अशांति’ की जगह ‘सशस्त्र विद्रोह’ की अनिवार्यता कर दी गई। साथ ही, इमरजेंसी की घोषणा के एक माह के भीतर दोनों सदनों से अनुमोदन लेना भी ज़रूरी कर दिया गया। इतना ही नहीं, एक बार में आपातकाल अधिकतम छह महीने के लिए ही लगाया जा सकता है। छह माह बाद बढ़ाना हो, तो फिर दोनों सदनों के स्वीकृति ज़रूरी होगी।
*संशोधन नहीं, नीयत ज़रूरी*
इन संशोधनों को गौर से देखें तो स्पष्ट है कि किसी भी बहुमत की सरकार के लिए आपातकाल लगाना कोई दुरूह कार्य नहीं है। उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर और मणिपुर में जैसे हालात पिछले दिनों थे या अन्य राज्यों में कभी नक्सल, कभी आतंकवाद आदि के नाम पर होते रहते हैं, उन्हें सशस्त्र विद्रोह साबित करना किसी बहुमत की सरकार के लिए मुश्किल नहीं होगा, अगर उसकी नीयत ठीक न हो। वैसे ही बहुमत की सरकार के लिए आपातकाल को हर छह महीने पर बढ़वा लेना भी उतना ही आसान है। यानी एक पंक्ति में कहें तो संविधान का सहारा लेकर ही ‘संविधान की आत्मा की हत्या’ किया जाना संभव है। कोई भी क़ानून कितना भी परफेक्ट क्यों न हो, अगर परम्परा का निर्वहन न हो, उसे बार-बार कोई सरकार तोड़ती रहे, तो लोकतंत्र स्वस्थ रूप में नहीं चल सकता।
*क्या ज़रूरी है लोकतंत्र के लिए*
लोकतंत्र के सुचारु रूप से चलने के लिए ज़रूरी है कि संवैधानिक अंगों के अलावा मीडिया मुक्त रहे, सत्ता के मद में विपक्ष को ख़ामोश न कराया जाए। देश की तरक्की और मूलभूत सुविधा-असुविधा के लिए सरकार ज़िम्मेदार-जवाबदेह हो, न कि विपक्ष।
प्रशासन तंत्र सरकार की कठपुतली न हो। कर्मचारियों को यूनियन बनाने और जनता को आंदोलन का अधिकार हो, अभिव्यक्ति की आज़ादी हो। सरकार से लेकर राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री तक किसी की भी कार्यालोचना का अधिकार जनता को संवैधानिक रूप से मिले।
कुल मिलाकर यह कि आप चाहे जितना अच्छा क़ानून-संविधान बना लें, अगर सरकार लोकतांत्रिक मिज़ाज की होगी तो लोकतंत्र बचा रहेगा और अगर तानाशाह होगी, तो इसी संविधान के आर्टिकल से घोषित-अघोषित आपातकाल लागू कर-करवा सकती है और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आशंका को सच साबित कर सकती है।
अब आप ही सोचिये, पिछले दस सालों से इस देश में क्या हो रहा है?
*(मज़्कूर आलम कहानीकार और पत्रकार हैं। संपर्क : mazkooralam@gmail.com)*