अज्ञान और अविवेक का विजय-पर्व?

जवरीमल्ल पारख

20 सितंबर, 1995 के दिन दक्षिण दिल्ली के एक मंदिर में गणेश जी की मूर्ति की सूंड को दूध पिलाया गया और कुछ ही क्षणों में वह दूध ग़ायब हो गया। यह बात कुछ ही देर में एक जगह से दूसरी जगह फैलती गयी और जगह-जगह लोग गणेशजी की मूर्तियों को दूध पिलाने लगे। यहां तक कि अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा आदि देशों में रहने वाले हिंदू भी यह कहने लगे कि उनके यहां भी गणेश की मूर्ति ने दूध पिया है। विश्व हिंदू परिषद ने यह दावा किया कि यह चमत्कार सचमुच घटित हुआ है। चमत्कार की यह पहली घटना नहीं थी। एक बार यह अफ़वाह फैली या फैलायी गयी कि स्टोव को बीच में रखकर अगर उससे भविष्य के बारे में सवाल पूछा जाये, तो वह हिलकर हां या ना में जवाब देता है। इस तरह के बहुत से दावे समय-समय पर किये जाते रहे हैं। दरअसल, ये सामूहिक सम्मोहन की घटनाएं थीं, जिनमें लोग वही देखने लगते हैं, जो उन्हें देखने के लिए प्रेरित किया जाता है।

इससे थोड़ी अलग तरह की घटना उस समय की है, जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। तब ज्योतिषियों ने यह फैला दिया था कि नौ ग्रह पहली बार एक ही पंक्ति में आ रहे हैं और इससे प्रलय आयेगी और दुनिया नष्ट हो जायेगी। नतीजा यह हुआ कि ग्रहों के प्रकोप से बचने के लिए जगह-जगह यज्ञ-हवन होने लगे। भजन-कीर्तन और व्रत-उपवास बढ़ गये। मंदिरों और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना बढ़ गया। यहां तक कि होली महीने भर पहले मना ली गयी, क्योंकि दुनिया तो होली आते-आते ख़त्म होने वाली थी! इस अफ़वाह से पैदा हुए डर को समाप्त करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू को लोगों से अपील करनी पड़ी कि वे ऐसी बातों पर ध्यान न दें, ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है। लेकिन लोगों ने उन पर यक़ीन नहीं किया और प्रलय का इंतजार करते रहे। जब बतायी गयी तारीख़ निकल गयी और प्रलय तो दूर की बात, हल्का-सा भूकंप तक नहीं आया, तभी जाकर लोगों ने माना कि सचमुच वे प्रलय से बच गये हैं। साफ़ था कि भविष्यवाणी पूरी तरह से मिथ्या थी।

इसके बावजूद लोग इस तरह की भविष्यवाणियों पर यक़ीन करना नहीं छोड़ते। ऐसी सभी अफ़वाहों, भविष्यवाणियों या सचमुच के संकटों (जैसे किसी महामारी का फैलना) के समय शासन का कर्त्तव्य होता है कि वह ऐसी अफ़वाहों और भविष्यवाणियों का दृढ़तापूर्वक खंडन करे, जिनके परिणाम भयावह भी हो सकते हैं। विशेष रूप से महामारियों के फैलने के समय उससे बचाव और उपचार के लिए आवश्यक क़दम उठाये, न कि उसका लाभ उठाकर जनता को अंधविश्वासों की ओर धकेले, जैसा कि कोरोना महामारी के समय स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। जवाहरलाल नेहरू लोगों को अंधविश्वासों के दलदल से निकालने को अपना कर्त्तव्य समझते थे, जबकि नरेंद्र मोदी के लिए हर आपदा एक अवसर की तरह होती है, चाहे उसके परिणाम कितने ही विध्वंसकारी क्यों न हों।

2020 में जब कोरोना महामारी तेज़ी से फैल रही थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 दिन का लॉकडाउन लागू किया। स्वयं उनका दावा था कि कोरोना के विरुद्ध लड़ाई 21 दिनों में जीत ली जायेगी। इन भविष्यवाणियों का मक़सद यह साबित करना भी था कि नरेंद्र मोदी महान भविष्यद्रष्टा, वैज्ञानिक और महामानव (और कुछ की नज़रों में अवतार) हैं। लॉकडाउन की पहली घोषणा 25 मार्च से 14 अप्रैल के लिए की गयी थी। यह दावा किया जाने लगा कि लॉकडाउन के दौरान वायरस का प्रकोप कम होने लगेगा और 14 अप्रैल 2020 को महामारी समाप्त हो जायेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और प्रधानमंत्री को लॉकडाउन की अवधि तीन मई तक बढ़ानी पड़ी। जब 22 मार्च को प्रधानमंत्री द्वारा जनता कर्फ्यू लागू किया गया था और उसी दिन शाम पांच बजे ताली और थाली बजाने का आह्वान किया गया, तो मोदी के अंधभक्तों द्वारा यह प्रचारित किया गया कि इससे वायरस समाप्त हो जायेगा, क्योंकि सामाजिक दूरी के कारण वायरस को फैलने के लिए संपर्क सूत्र नहीं मिलेगा और ताली-थाली की आवाज़ से जो ऊर्जा पैदा होगी, उससे वायरस दुम दबाकर भाग खड़ा होगा। उनके इस दावे का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। यह एक तानाशाह द्वारा अपनी ही जनता की ली गयी परीक्षा थी कि लोग किस तरह आंख मूंदकर उसका अनुकरण कर सकते हैं। 22 मार्च को ठीक पांच बजे पूरे देश में लोग सड़कों पर, चौराहों पर, घर की बालकनी और छतों पर आकर थालियां और ढोल-नगाड़े बजाने लगे। ऐसा लग रहा था कि पूरा देश सामूहिक उन्माद से ग्रस्त हो गया है। अमीर-ग़रीब, शिक्षित-अशिक्षित, शहरी-ग्रामीण, साधारण और सेलेब्रिटीज़, सभी थालियां बजाकर देश और उसके सबसे बड़े नेता के प्रति अपनी भक्ति का प्रमाण दे रहे थे। माहौल कुछ इस तरह का बना दिया गया कि ताली-थाली न बजाने वाले दरअसल देशद्रोही हैं। 140 करोड़ की आबादी वाले लगभग पूरे देश का इस तरह एक साथ ताली-थाली बजाना यह साबित कर रहा था कि एक तानाशाह किस तरह लोगों को विवेकहीन भेड़ों में तब्दील कर देता है।

जैसा कि होना ही था, इस ताली-थाली बजाने का वायरस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। इसके विपरीत वायरस से संक्रमित होने वाले रोगियों की संख्या बढ़ती गयी। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नया मंत्र दिया कि सारे भारतवासी पांच अप्रैल को रात नौ बजे सारी बत्तियां बंद करके नौ मिनट के लिए मोमबत्ती, दीये या मोबाइल की टॉर्च जलायें। इसको लेकर भी यह दावा किया गया कि 22 मार्च के कर्फ्यू से 95 प्रतिशत वायरस ख़त्म हो गये थे। लेकिन जो पांच प्रतिशत वायरस बच गये हैं, वे भी पांच अप्रैल को मोमबत्ती, दीया और टॉर्च जलाने से जो ऊर्जा पैदा होगी, उससे समाप्त हो जायेंगे। प्रधानमंत्री के इस आह्वान के बारे में यह दावा किया गया कि ज्योतिष शास्त्र में नौ की संख्या का ख़ास महत्व होता है। 5 तारीख़ और अप्रैल यानी चौथा महीना। दोनों का जोड़ नौ होता है। फिर नौ बजे और नौ मिनट में भी नौ की संख्या है। ज्योतिष के अनुसार यह इतना शुभकाल है कि उस अवधि में दीये और मोमबती जलाने से जो शक्ति पैदा होगी, वह वायरस को ख़त्म कर देगी। लेकिन 130 करोड़ लोगों द्वारा दीया जलाने से जिस ऊर्जा के पैदा होने का दावा किया गया, ऐसा दावा करने वाले यह भूल गये कि दिन में सूर्य की रोशनी से जितनी ऊर्जा पैदा होती है, उतनी ऊर्जा 130 करोड़ ही नहीं 130 अरब दीये एक साथ जलाने से भी पैदा नहीं हो सकती। अगर ऐसा होता, तो वायरस तो दिन में ख़त्म हो जाना चाहिए था, जबकि वायरस की महामारी लगातार बढ़ती रही है और प्रधानमंत्री द्वारा किये गये इन टोने-टोटकों से न केवल वायरस का कुछ नहीं बिगड़ा, बल्कि महामारी की रोकथाम और उपचार के लिए जो ज़रूरी कदम उठाये जाने चाहिए थे, उसके प्रति मोदी सरकार द्वारा आपराधिक लापरवाही बरती गयी। लोग अस्पतालों में बिस्तर के लिए, ऑक्सीजन के लिए और ज़रूरी दवाइयों और इंजेक्शन के लिए दर-दर भटकते रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, कोरोना महामारी के दौरान समय पर उपचार न हो पाने के कारण भारत में 40 लाख से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। कोई भी जागरूक देश अपने शासकों के इन जघन्य अपराधों के विरुद्ध उठ खड़ा होता। लेकिन अपने प्रमुख शासक के प्रति अंधभक्ति ने लोगों को आंखें होते हुए भी अंधा बना दिया था। इतने भयावह अनुभव से गुज़रने के बावजूद लोगों का इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अंधभक्ति और अंधमोह में ग्रस्त रहना क्या कम चिंता का विषय था?

26 जनवरी 1950 को जो संविधान पूरे देश पर लागू किया गया था, उसके आर्टिकल 51 (ए) में जिन मूलभूत कर्त्तव्यों का उल्लेख है, उनमें एक प्रमुख कर्त्तव्य वैज्ञानिक स्वभाव (साइंटिफिक टेंपर) का विकास करना भी शामिल है। वैज्ञानिक स्वभाव के विकास का अर्थ है, वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना, वैज्ञानिक विकास को प्रोत्साहित करना और अंधविश्वासों, धार्मिक कट्टरताओं और हर तरह के छद्म विज्ञान से देश को मुक्त करना। वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने का अर्थ है, विवेकपूर्ण और तार्किक सोच को बढ़ावा देना। दरअसल वैज्ञानिक स्वभाव का विकास व्यक्ति के बौद्धिक विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास के लिए भी ज़रूरी है। कोरोना का जो उदाहरण पहले दिया गया है, उससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में थोड़ी भी विवेकशीलता होती, तो वे ताली और थाली या मोमबत्ती और दीये जलाने के अवैज्ञानिक टोने-टोटकों में देश को नहीं फंसाते और प्रधानमंत्री होने के नाते महामारी से बचाने के लिए जो ज़रूरी कदम उठाने चाहिए थे, उन पर पूरा ध्यान देते। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि नरेंद्र मोदी डॉक्टरों और वैज्ञानिकों की सभा में यह बेखौफ़ दावा करते हैं कि प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि इतने ज्ञानवान थे कि मरे हुए मनुष्य के कटे सिर पर हाथी का सिर जोड़कर उसे ज़िंदा कर देते थे। एक मिथकीय कथा को सचमुच हुई घटना समझना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें न विज्ञान की समझ है, न इतिहास की और न पुराण कथाओं की। लेकिन इससे बड़ी चिंता की बात यह थी कि वहां मौजूद किसी डॉक्टर या वैज्ञानिक ने उनकी ऐसी बातों को चुनौती देने की आवश्यकता नहीं समझी। बहुत मुमकिन है कि उनमें से कुछ प्रधानमंत्री की तरह इस बात में यकीन भी करते हों।

पौराणिक कथाओं में इतिहास खोजना या पौराणिक कपोल-कल्पनाओं पर वर्तमान युग की वैज्ञानिक उपलब्धियों को आरोपित करना बौद्धिक दिवालियेपन की निशानी है। हमारी शिक्षा व्यवस्था कुछ इस तरह की है कि जो कक्षाओं में या किताबों द्वारा पढ़ाया जाता है, उसका हमारे जीवन से जैसे कोई संबंध ही नहीं है। इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है। हमारे यहां ज्ञान हासिल करने की दो व्यवस्थाएं हैं। पहली व्यवस्था, जिसमें हम स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों से ज्ञान हासिल करते हैं। दूसरी ज्ञान की परंपरागत व्यवस्था है, जिसमें हम अपने घर-परिवार और समाज से ज्ञान हासिल करते हैं। हम स्कूल में भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, समाज विज्ञान आदि का अध्ययन करते हैं और उच्च शिक्षा संस्थानों में इनके अतिरिक्त वाणिज्य, प्रबंधन, इंजीनियरिंग, प्रोद्यौगिकी, चिकित्सा आदि विभिन्न विषयों का अध्ययन करते हैं। जैसे-जैसे हम आगे की कक्षाओं में जाते हैं, हमारे ज्ञान के क्षेत्र का विस्तार भी होता है और उसमें गहराई भी आती जाती है। इसके साथ ही साथ हम ज्ञान ही हासिल नहीं करते, कौशल भी हासिल करते हैं जिसे व्यापक अर्थ में प्रौद्योगिकी कह सकते हैं। प्रौद्योगिकी को कई बार विज्ञान समझ लिया जाता है। उसमें विज्ञान का उपयोग तो होता है, लेकिन वह विज्ञान नहीं है। दरअसल, शिक्षा ज्ञान (जिसमें विज्ञान का ज्ञान भी शामिल है) और कौशल (जिसमें प्रोद्यौगिकी भी शामिल है) का मिलाजुला रूप है। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन इस स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा का मक़सद सेवा और व्यवसाय के क्षेत्र में रोज़गार हासिल करना और उसके माध्यम से जीवन में आर्थिक और व्यवसायगत कामयाबी हासिल करना होता है। लेकिन जीवन के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और राजनीतिक पक्षों को स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा से बिल्कुल अलग रखते हैं, उनसे जोड़कर नहीं देखते। इनके बारे में हम फ़ैसले अपने परिवार की सामाजिक संरचना, परंपरा और मान्यताओं के आधार पर लेते हैं। यानी कि हमारा धर्म क्या है, हमारी जाति क्या है, हम कहां के रहने वाले हैं, इन सबके आधार पर हम फ़ैसले लेते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ, इसे हम स्कूल और कालेज में पढ़ते हैं। उससे संबंधित प्रश्नों का उत्तर भी परीक्षा में सही-सही लिखकर आते हैं और अच्छे अंक हासिल करते हैं, लेकिन अपने परिवार की धार्मिक परंपरा से हमने सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में जो कथित ‘ज्ञान’ हासिल किया है, पारिवारिक और सामाजिक जीवन के फ़ैसले हम उसी के अनुसार लेते हैं। बच्चे के पैदा होते ही हम उसकी जन्मपत्री बनवाते हैं। विवाह का फ़ैसला भी जन्मपत्री मिलाकर करते हैं। कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय ज्योतिष के द्वारा बतायी गयी तिथि और समय के अनुसार करते हैं। हम इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि चेचक का टीका लगवाकर हम चेचक की बीमारी से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त हो चुके हैं, क्योंकि यह टीका इस जानकारी के आधार पर खोजा गया था कि चेचक शरीर में किस विकार के पनपने से पैदा होता है और टीका उस विकार को शरीर में पनपने से हमेशा के लिए रोक देता है। इसके लिए वैज्ञानिक प्रविधि से कई तरह के प्रयोग किये गये और फिर निष्कर्षों पर पहुंचा गया। विज्ञान अनुमान से नहीं, प्रमाण और प्रयोग के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचता है। फिर भी हर साल लाखों की संख्या में लोग ‘शीतला माता’ के मंदिर में दर्शन करने और माथा टेकने जाते हैं, क्योंकि उनका विश्वास है कि चेचक माता के प्रकोप का परिणाम है और पूजा द्वारा उन्हें प्रसन्न करना आवश्यक है। यह भी सही है कि इतनी समझदारी हम में आ चुकी है कि हम बच्चों को टीके लगवाने में किसी तरह की कोताही नहीं बरतते। फिर भी बच्चे को बुखार हो जाये या कोई बीमारी हो जाये तो हम तत्काल मान लेते हैं कि उसे किसी की नज़र लग गयी है, या वह अपशकुन का शिकार हो गया है और फिर हम डॉक्टर को दिखाने और दवाई देने के साथ-साथ नज़र या अपशकुन उतारने के लिए तरह-तरह के टोने-टोटके करने लगते हैं। इन सब मामलों में हमारे पथ-प्रदर्शक बनते हैं हमारे घर के बड़े-बूढ़े, जिनकी मान्यताओं और विश्वासों को बिना सोचे-विचारे हम अपनी मान्यताएं और विश्वास बना लेते हैं और उन्हें ही अपने बच्चों को भी हस्तांतरित कर देते हैं।

धर्मों के विकास का भी एक इतिहास रहा है। आदिम काल में जब सभ्यताओं का विकास आरंभिक चरण में था, तब से लेकर मध्ययुग तक धर्म विभिन्न रूपों में विकसित होता रहा है। टोटेम से बहुदेववाद, बहुदेववाद से एकेश्वरवाद और एकेश्वरवाद से निर्गुण-निराकार परब्रह्म दरअसल सामाजिक संगठन के विकास के विभिन्न चरणों की ही अभिव्यक्ति है। जब मनुष्य विभिन्न समुदायों में संगठित होने लगा और उन्हें अनुशासनबद्ध रखने के लिए शासक और शासित के रूप में संगठनों में आंतरिक विभाजन किया जाने लगा, तो उन्हीं से बहुदेववाद की अवधारणा विकसित हुई। लेकिन जब इन विभिन्न समुदायों के आधार पर राज्य की संकल्पना सामने आयी तो यह बहुदेववाद एकेश्वरवाद की ओर उन्मुख हुआ। बाद में जब विभिन्न राज्य विशाल साम्राज्यों में बदलने लगे और साम्राज्य का सबसे बड़े शासक की स्थिति ऐसी हुई कि उसका अपनी विशाल जनता से सीधे तौर पर कोई संबंध नहीं रहा और उसे व्यक्तिगत तौर पर देखने-जानने का अवसर भी नहीं मिलता था, लेकिन उसी के नाम पर शासन चलता था और उसकी अपरिमित शक्ति का एहसास प्रत्येक नागरिक को होता था, तब इसी सर्वोच्च शासक ने एक ऐसे ईश्वर की संकल्पना को संभव बनाया, जो सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ तो है, लेकिन साथ ही निर्गुण और निराकार भी है।

धर्म और ईश्वर की संकल्पना सभी कालों में और सभी स्थानों में एक-सी नहीं रही, उनमें थोड़ा-बहुत अंतर भी रहा है। मसलन, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, भाग्यवाद आदि की अवधारणाएं लगभग सभी धर्मों में रही हैं। लेकिन वर्णव्यवस्था, अवतारवाद, लीलावाद, गो-पूजा जैसी धारणाएं ब्राह्मण धर्म की अपनी विशिष्टता है। भारत की धरती पर जन्मे बौद्ध, जैन, सिख आदि विभिन्न धर्मों ने ब्राह्मण धर्म की अवतारवाद, लीलावाद, वर्णव्यवस्था जैसी अवधारणाओं को स्वीकार नहीं किया था। यह और बात है कि वर्णव्यवस्था से व्यवहार में मुक्ति इन धर्मावलंबियों को भी नहीं मिल सकी। धर्म की इन सभी अवधारणाओं का वैज्ञानिक सोच से कोई संबंध नहीं है। इन धारणाओं में यक़ीन करके हम न अपनी और न इस दुनिया की किसी भी समस्या से छुटकारा पा सकते हैं। यही वजह है कि इन सभी धारणाओं की विज्ञान में कोई जगह नहीं है और ठीक इसी वजह से हमारे संविधान में भी इन्हें न कोई जगह दी गयी है और न मान्यता दी गयी है। राम और कृष्ण अवतारवाद की संकल्पना की देन हैं, न कि वे इतिहास पुरुष हैं। इतिहास से इनका संबंध सिर्फ़ इतना है कि इनसे जुड़ी कथाओं का अपना एक इतिहास है, जिनमें लगातार परिवर्तन होता रहा है। राम और कृष्ण के विपरीत बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक आदि इतिहास पुरुष हैं, भले ही इनका संबंध विभिन्न धर्मों से रहा हो। इसका कारण यह है कि ये सभी महापुरुष धर्म विशेष के संस्थापक तो हैं, लेकिन न तो ईश्वर हैं और न ईश्वर के अवतार, और न ऐसा कोई दावा इनमें से किसी ने भी किया है।

संविधान में धर्म और ईश्वर में विश्वास को लोगों के व्यक्तिगत विश्वास के रूप में मान्यता दी गयी है और राज्य को ईश्वर और धर्म की अवधारणाओं से मुक्त रखा गया है। यानी कि राज्य का न कोई धर्म होगा और न राज्य का काम-काज किसी भी धर्म की मान्यताओं से संचालित होगा। इसी अर्थ में भारत एक सेक्युलर राष्ट्र-राज्य है। संविधान की प्रस्तावना (प्रिएंबल) में सेक्युलर शब्द के प्रयोग के कारण ही हमारा देश सेक्युलर नहीं है, बल्कि पूरी प्रस्तावना में जो कहा गया है, उसमें ही सेक्युलर की अवधारणा अंतर्निहित है। संविधान के हिंदी अनुवाद में सेक्युलर का अर्थ पंथनिरपेक्षता किया गया है, जो इसका अधूरा अनुवाद है। दरअसल, सेक्युलर पंथनरपेक्ष या धर्मनरपेक्ष के अर्थ तक सीमित नहीं है, बल्कि वह हर तरह की अलौकिकता के अस्वीकार के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, यानी जो कुछ लौकिक है, वही सेक्युलर है। संविधान की प्रस्तावना भारत के ‘समस्त नागरिकों’ की बात करती है और उनके बीच किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं करती। वह अपने समस्त नागरिकों को ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए ; तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने’ की बात करता है। प्रस्तावना में जिन संदर्भों में स्वतंत्रता की बात की गयी है, उसी में सेक्युलरिज्म का विचार अंतिर्निहित है। इसी तरह प्रस्तावना में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता की बात की गयी है, उसी में समाजवाद की बात अंतर्निहित है। इन धारणाओं को मूल अधिकारों और कर्त्तव्यों से जुड़े विभिन्न अनुच्छेदों में और अधिक स्पष्ट किया गया है। संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकारों और कर्त्तव्यों को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संविधान में भारत को एक ऐसा देश बनाने पर बल दिया गया है, जो भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं को सुरक्षित रखते हुए और अपनी समावेशी परंपराओं का संरक्षण करते हुए एक आधुनिक, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समता पर आधारित न्यायपूर्ण समाज हो। यह तब तक संभव नहीं है, जब तक कि हम मध्ययुगीन प्रतिगामी अवधारणाओं से पूरी तरह मुक्त नहीं होते और ऐसा तभी हो सकता है, जब इनके विरुद्ध मिलजुलकर संघर्ष किया जाये। संविधान लागू होने के लगभग 75 साल बाद भी हम वैसा देश नहीं बना सके हैं, जिसकी संकल्पना उसमें की गयी है।

इसकी बड़ी वजह है हमारा पारिवारिक और सामाजिक ढांचा, जो अब भी कमोबेश वैसा ही है, जैसा आज़ादी से पहले था। उसमें बाहरी तौर पर भले ही कुछ बदलाव हुए हों, उसकी आंतरिक संरचना अब भी मध्ययुगीन और प्रतिगामी ही है। अब भी भारतीय परिवार अपने सत्व में अलोकतांत्रिक और असमतावादी है तथा पितृसत्तात्मक सामंती मूल्यों से गहरे रूप में प्रभावित है। यह ज़रूर है कि बाहरी ढांचे में कुछ बदलाव आया है, जैसे संयुक्त परिवार शहरों और महानगरों से लगभग लुप्त होते जा रहे हैं और एकल परिवार उनकी जगह ले रहे हैं– ऐसे एकल परिवार जहां पति और पत्नी दोनों नौकरी करते हैं और जिनके एक या दो से ज़्यादा बच्चे नहीं है। अंतर्जातीय विवाह और तलाक़ अब हिंदू परिवारों के लिए भी अजनबी शब्द नहीं रह गये हैं। यहां तक कि छोटे शहरों में भी इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। इसके बावजूद बहुत कुछ ऐसा है, जिसे बदले जाने की ज़रूरत है। इसका कारण यह है कि एकल परिवार हो या अंतर्जातीय विवाह या तलाक़, इन्हें स्वाभाविक नहीं माना जाता। स्वाभाविक और आदर्श तो संयुक्त परिवार ही है। प्रेम विवाह करने वाली लड़की भी मांग में सिंदूर भरना और हर साल करवा चौथ का व्रत रखकर अपने पति की लंबी उम्र की कामना करना अपना धर्म समझती है।

संयुक्त परिवार हो या एकल परिवार, परंपराएं कमोबेश वे ही चली आ रही हैं, जिनका संयुक्त परिवारों में पालन होता था। हमारे बहुत से पारिवारिक और सामाजिक कार्यों में ब्राह्मणों की उपस्थिति ज़रूरी होती है। उनसे यज्ञ, पूजा-पाठ करवाते हैं। उन्हें विभिन्न अवसरों पर दान-दक्षिणा देते हैं। ब्राह्मणों को खिलाया गया भोजन या दिया गया दान हमारे पूर्वजों की आत्मा की मुक्ति में सहायक बनता है– यह विश्वास हमारे अंदर गहरे तक जड़ जमाये हुए है। श्राद्ध जैसी परंपरा का होना इसी अंधविश्वास का परिणाम है और आज भी इन परंपराओं का व्यापक पैमाने पर अनुपालन होना इस बात को बताता है कि किस हद तक हम रूढ़िवादी परंपराओं से घिरे हुए हैं। हमारे प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक कार्यों में ब्राह्मण की उपस्थिति, उसके द्वारा धार्मिक कार्यों का संपन्न कराया जाना उन्हें स्वत: ही सामाजिक स्तरीकरण में सर्वोच्च पद पर आसीन कर देता है और शेष स्वत: ही ब्राह्मण की तुलना में नीचे हो जाते हैं। विडंबना यह है कि ब्राह्मणों को जो दिया जाता है, वह दान है, लेकिन निम्न समझी जाने वाली जातियों को दी जाने वाली भिक्षा भी पुण्य का काम समझी जाती है और लेने वाले इसे धार्मिक कार्य समझकर गर्व के साथ ग्रहण करते हैं। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अस्सी करोड़ लोगों को हर महीने पांच किलो अनाज का ‘दान’ वैसा ही गर्व का भाव पैदा करता है और उसके बदले में कोई आश्चर्य नहीं कि वे अपना क़ीमती वोट नरेंद्र मोदी और उसकी पार्टी को दे आयें। जबकि नागरिक के नाते उनका अधिकार है कि वे सरकार से रोज़गार की मांग करें और उसे हासिल करें। मनरेगा रोज़गार था, जबकि पांच किलो अनाज दान या भिक्षा है और इसमें कोई गर्व की बात नहीं है।

दुनिया में प्रगति का मूल कारण हाथ से काम करना यानी श्रम है। हाथ से किया गया कोई भी काम बुद्धि के योगदान के बिना मुमकिन नहीं है। झाड़ू लगाने, खाना बनाने और कपड़े धोने में केवल मेहनत नहीं लगती। इन कर्मों को करने वालों को अपनी बौद्धिक क्षमता का भी प्रयोग करना होता है। श्रम और बुद्धि दोनों के संयोग से ही ज्ञान और कौशल दोनों का विकास होता है। नये-नये आविष्कार होते हैं। नयी-नयी प्रौद्योगिकी विकसित होती है। भारत में भी यह सब कुछ हुआ था, लेकिन जब से कर्म को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा, बौद्धिक विकास भी अवरुद्ध होने लगा। हाथ से किये जाने वाले काम को हेय दृष्टि से देखना दरअसल ब्राह्मणवादी मानिसकता है, जो केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है। ब्राह्मण धर्म में सामाजिक स्तरीकरण के निर्धारण का पैमाना ‘कर्म’ है यानी जो हाथ से काम करता है, उसका स्थान सबसे नीचे है और उनमें भी वे और भी नीचे होते हैं, जिनके काम को अस्पृश्य माना जाता है। चूंकि काम अस्पृश्य है, इसलिए उसे करने वाले भी अस्पृश्य मान लिये जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इसलिए उच्च स्तर पर माने जाते हैं कि वे श्रम नहीं करते यानी हाथ से काम नहीं करते। वैसे भी भारतीय धार्मिक परंपरा में ‘कर्म’ को बंधन का कारण माना गया है और ‘मोक्ष’ की संकल्पना का अर्थ ही है, कर्म के बंधनों से मुक्त होना। अगर हम कर्म करते जायेंगे, तो बंधन में बंधते जायेंगे। बंधन में बंधे रहने का अर्थ ही है, जीवन-मरण के चक्र में फंसे रहना। हम जैसे कर्म करते हैं, उसी के अनुसार हमारे आगे के जन्मों का फ़ैसला होता है, यानी यह तय होता है कि हम किस योनि में पैदा होंगे। यदि मनुष्य योनि में पैदा हुए, तो किस वर्ण, जाति और लिंग में पैदा होंगे, उसका निर्धारण होगा। इसका अर्थ यह है कि जो ‘शूद्र’ पैदा हुआ है, वह इसलिए कि उसने पूर्व जन्म में ऐसे ‘नीच’ कर्म किये हैं, जिसके कारण वह ‘शूद्र’ पैदा हुआ है। ये सब बातें मैं किसी धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर नहीं कह रहा हूं, हालांकि बहुत से ब्राह्मण ग्रंथों, स्मृतियों और पुराणों से इससे मिलती-जुलती बातें उद्धृत की जा सकती हैं। ये सभी बातें अब भी कमोबेश हर वर्ण और जाति के हिंदुओं के सामान्य विश्वास का हिस्सा बनी हुई है। हमारा संविधान इनमें से किसी भी बात को मान्यता नहीं देता, बल्कि इसके विपरीत वह वर्ण, जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को न केवल अस्वीकार करता है, बल्कि छुआछूत जैसी बुराइयां संविधान की नज़र में अपराध हैं और उनके लिए सज़ा भी मुक़र्रर है। होना यह चाहिए था कि राजनीति, शिक्षा, साहित्य आदि के क्षेत्र में सामंती और प्रतिगामी विचारों के विरुद्ध बदलाव की मुहिम चलायी गयी होती। जैसा कि मुक्तिबोध ने लिखा है, “समाज में, बाहर पूंजी या धन की सत्ता से विद्रोह की बात की गयी, लेकिन घर में नहीं। वह शिष्टता और शील के बाहर की बात थी। मतलब यह है कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं, घर के बाहर दी गयी। घर का संघर्ष कठिन था। उसमें भावनाओं की टकराहट उन्हीं से थी, जो अपने प्राण के अंश थे। इसीलिए न केवल उस संघर्ष को टाल दिया गया, वरन एक अजीब ढंग का समझौता किया गया” (मुक्तिबोध समग्र-5, पृ.44)। सामाजिक पिछड़ेपन की, मुक्तिबोध के अनुसार, एक और वजह है आज़ादी के बाद के दौर में “राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम का न होना। साहित्य के पास सामाजिक सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। सबने सोचा कि हम जनरल (सामान्य) बातें करके, सिर्फ़ और एकमात्र राजनीतिक या साहित्यिक आंदोलन के ज़रिये, वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर सकेंगे” (वही, पृ. 43)।

इस संदर्भ में समाज-सुधार के कार्यक्रम को सही परिप्रेक्ष्य में समझना ज़रूरी है। इसे हमारी शिक्षा व्यवस्था की आंतरिक संरचना का हिस्सा बनाना ज़रूरी था। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों को कुसंस्कारों और रूढ़िवादी मान्यताओं से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभा सकती थी। लेकिन वे किताबें, जिन्हें विद्यार्थी पढ़ते हैं और जो अध्यापक उन्हें पढ़ाते हैं, वे जानकारियां देते हैं, कौशल सिखाते हैं, लेकिन सवाल करना नहीं सिखाते। संविधान में जिस वैज्ञानिक स्वभाव का उल्लेख है, उसका आम तौर पर अध्यापकों में ही अभाव दिखायी देता है। हम विकासवाद पढ़ते हैं, लेकिन यह कोई नहीं बताता कि अगर हम विकासवाद को अपने जीवन और समाज पर लागू करेंगे, तो वे कौन-सी मान्यताएं हैं, जिनसे हमें छुटकारा पाना होगा। यह केवल विकासवाद के बारे में ही सच नहीं है, ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों के बारे में सच है। दरअसल शिक्षा पर रोज़गार और व्यवसाय के क्षेत्र का दबाव इतना अधिक रहता है कि उन क्षेत्रों को, जिनसे विद्यार्थी वैज्ञानिक स्वभाव, ऐतिहासिक दृष्टि, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था के बारे में अपने को दृष्टिसंपन्न बना सके, हृदयंगम करने का अवसर बहुत कम मिलता है। दसवीं तक ही विद्यार्थियों को विज्ञान, इतिहास, सामाजिक विज्ञान आदि की जानकारी दी जाती है और इन विषयों को इस तरह पढ़ाया जाता है कि वे ज्ञानसंपन्न तो बन जाते हैं, दृष्टिसंपन्न नहीं बनते। जीवन दृष्टि और विश्वदृष्टि अपने घर-परिवार से ही मिलती है, शिक्षा संस्थाओं से नहीं। पाठ्यक्रमों से दृष्टिसंपन्न बनाने का काम भले ही पूरा न होता हो, लेकिन ज्ञानसंपन्न तो वे होते ही हैं। उनकी ज्ञानसंपन्नता को विचारगोष्ठियों और सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक आंदोलनों द्वारा दृष्टिसंपन्नता में बदला जा सकता है, जो शिक्षा संस्थाओं से लेकर विभिन्न सामाजिक और व्यवसायिक संस्थाओं में विभिन्न संगठनों द्वारा आयोजित किये जाने चाहिए थे। लेकिन जैसा कि मुक्तिबोध ने लिखा है, राजनीति के पास इसका कोई कार्यक्रम ही नहीं था। मेरे विचार में मुक्तिबोध का संकेत प्रगतिशील राजनीति की ओर रहा होगा, जिन्होंने सामाजिक सुधार को अपने राजनीतिक एजेंडे में कभी शामिल नहीं किया। इसके विपरीत लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए उनके धार्मिक विश्वासों और जातिवादी पहचानों का उन्होंने भरपूर इस्तेमाल किया। न घर, न परिवार, न समाज, न शिक्षा, न राजनीति, उनके संपूर्ण परिवेश में ऐसा कुछ भी न था, जो उन्हें आधुनिक और प्रगतिशील बदलाव के लिए प्रेरित कर सके। अगर बदलाव हुए भी, तो उसकी गति बहुत धीमी थी और उनमें स्थायित्व का अभाव था। धर्म, जाति और परिवार की जकड़न पहले की तरह बनी रही ; हालांकि उनका स्वरूप वही नहीं रहा, उनमें बदलाव भी हुआ।

सबसे बड़ा बदलाव यह हुआ कि इनके संबंध में समावेशी परंपरागत धारणाओं का स्थान सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति से प्रेरित विभाजनकारी धारणाओं ने ले लिया, जिसका प्रतिनिधित्व पहले हिंदू महासभा करती थी और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबद्ध विभिन्न संगठन। जिन समावेशी परंपरागत धारणाओं पर विविधताओं वाला भारतीय समाज टिका हुआ था, वह भी पिछड़ा हुआ था, लेकिन उसमें अपने से भिन्न के प्रति नफ़रत और घृणा का भाव प्राय: नहीं था। अपने-अपने विश्वासों के साथ उनके बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व मौजूद था। हालांकि बहुत कुछ ऐसा था, जिसे बदलने और ख़त्म करने की ज़रूरत थी। उन्नीसवीं सदी में समाज-सुधार के विभिन्न आंदोलनों ने यह काम बहुत-कुछ किया भी। इन्हीं आंदोलनों का प्रभाव संविधान पर भी देखा जा सकता है। लेकिन समाज-सुधार आंदोलन के पूरे दौर में भी ऐसी ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताक़तें भी संगठित हो रही थीं, जो आधुनिक बदलावों को अपने हितों और वर्चस्व के लिए घातक समझती थीं। मौजूदा सांप्रदायिक फासीवादी ताक़तें इन्हीं प्रतिगामी और पुनरुत्थानवादी ताक़तों की पैदाइश हैं, जिन्होंने संविधान के विपरीत धर्म को राष्ट्र की बुनियाद के रूप में प्रस्तुत किया। इस तरह धर्म, जो संविधान के अनुसार व्यक्ति की निजी आस्था का विषय था, उसे राष्ट्र से जोड़कर एक राजनीतिक अवधारणा में बदल दिया गया। यहां धर्म से तात्पर्य सभी धर्मों से नहीं, बल्कि एक धर्म से था, यानी भारत की बहुसंख्यक जनता का धर्म, हिंदू धर्म, जिसे वे यहां का मूल धर्म और हिंदुओं को यहां का मूलवासी मानते हैं। मुसलमान और ईसाई इसलिए विदेशी हैं कि वे भले ही इस धरती पर पैदा हुए हों, हिंदुओं की तरह यह उनकी पुण्यभूमि नहीं है। उनकी पुण्यभूमि भारत से बाहर है, इसलिए इस राष्ट्र के प्रति उनकी वैसी आस्था और प्रेम नहीं हो सकता, जो स्वाभाविक रूप से हिंदू के मन में होता है। इस धारणा को ही विनायक दामोदर सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ नाम दिया था और इसी धारणा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी स्वीकार किया था, जो संविधान में उल्लिखित एक ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ के बिल्कुल विपरीत और विरोधी संकल्पना है। निश्चय ही, हिंदुत्व की अवधारणा हिंदू धर्म से बिल्कुल अलग और राजनीतिक अवधारणा है। लेकिन यह भी सही है कि एक हिंदू धर्मावलंबी के लिए हिंदुत्व की अवधारणा के प्रभाव में आना अपेक्षाकृत आसान है। यह इसलिए कि संघ परिवार हिंदुत्व की धारणा को जनता के बीच हिंदू धर्म के रूप में ही प्रस्तुत करता है। हिंदुत्व की धारणा की आलोचना को वह हिंदू धर्म की आलोचना और उस पर हमले के रूप में प्रचारित करता है और इस तरह हिंदू जनता को धर्म और राष्ट्र के नाम पर गुमराह करने में काफ़ी हद तक कामयाब हो जाता है।

भारतीय जनता पार्टी सहित आरएसएस से संबद्ध सभी संगठन हिंदुओं की धार्मिक भावना का दोहन करते हैं, लेकिन हिंदू धर्म में व्याप्त सामाजिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों से हिंदू समाज को मुक्त करने के किसी अभियान में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। इसके विपरीत वे पिछड़ी मान्यताओं का भी इस्तेमाल मुसलमानों के विरुद्ध हिंदुओं को एकजुट करने के लिए करते हैं। गाय अन्य पशुओं की तरह एक पशु ही है और प्राचीन भारत में इसका भक्षण भी होता था और यज्ञों में उनकी बलि दी जाती थीं। लेकिन अब उसे मुसलमानों के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है और पिछले दस सालों में कई बार मुसलमानों पर गोहत्या और गोतस्करी के झूठे मामले बनाकर उन पर हमले किये गये हैं। गो हत्या को लेकर दलितों पर भी हमले किये जाते रहे हैं। संघ परिवार हिंदू धर्म से संबद्ध उन रूढ़िवादी मान्यताओं का इस्तेमाल करते हैं, जिनसे वे राजनीतिक लाभ उठा सकें। मुसलमानों को शत्रु के रूप में पेश करना और उनके विरुद्ध अभियान चलाना उनकी राजनीति का मुख्य एजेंडा है। हिटलर के समय जर्मनी में जैसे यहूदियों की जर्मन-विरोधी छवि बनायी गयी थी, उसी तरह संघ परिवार मुसलमानों को एक ऐसे समुदाय के रूप में पेश करता रहा है, जो बहुसंख्यक हिंदू जनता का शत्रु है, जिसने पिछले एक हज़ार साल में लगातार हिंदुओं पर आक्रमण किया। उनके मंदिर तोड़े, उनकी हत्याएं कीं, औरतों का अपमान किया और तलवार के बल पर हिंदुओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराके हिंदुओं के एक अकेले राष्ट्र को इस्लामी राष्ट्र में बदलने की लगातार कोशिश की। 1947 में देश के विभाजन को वे इसके प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं और इस सच्चाई को जानबूझकर छुपाते हैं कि धर्म के आधार पर राष्ट्र की अवधारणा मुस्लिम लीग से बहुत पहले हिंदू महासभा पेश कर चुकी थी। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर जब कहते हैं कि ‘भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र है और बाक़ी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं’ तो वे भी वही बात दोहरा रहे होते हैं, जिसे सावरकर ने कहा था। गोलवलकर ने तो यह भी कहा था कि हिंदुओं के अलावा किसी को भी इस देश में रहने का अधिकार नहीं है। वे तभी रह सकते हैं, जब वे अपनी अलग पहचान को पूरी तरह समाप्त करते हुए ‘ख़ुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें’। धमकी भरे अंदाज़ में वे कहते हैं कि ‘अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा’। स्पष्ट है कि आरएसएस के अनुसार हिंदू राष्ट्र में ग़ैरहिंदुओं, विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों, को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते, जो हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होंगे — यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा। गोलवलकर के ये विचार सदैव आरएसएस और उनके सभी संगठनों के लिए प्रेरक रहे हैं और पिछले दस सालों के अपने शासन के दौरान नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार ने जो बहुत से क़दम उठाये हैं, उनके पीछे गोलवलकर की कही हुई बातें ही प्रेरणा के रूप में मौजूद रही हैं। उनके द्वारा उठाये गये बहुत से क़दम दरअसल हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में ही उठाये गये क़दम हैं।

हिंदू राष्ट्र के उनके इस अभियान को हिंदू तभी समर्थन दे सकते हैं, जब वे न केवल अपनी पहचान ऐसे हिंदू के रूप में करते हों, जो मुसलमानों और ईसाइयों से अलग है, बल्कि यह भी मानने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुके हों कि मुसलमान न केवल उसके शत्रु हैं, बल्कि अगर उन्हें नहीं रोका गया, तो वे बहुत अधिक बच्चे पैदा करके, डरा-धमकाकर और लोभ-लालच देकर हिंदुओं का धर्म-परिवर्तन कराके अपने ही देश में हिंदुओं को अल्पसंख्यक बना देंगे और फिर वे ‘हिंदूस्थान’ को इस्लामी राष्ट्र में बदल देंगे। इस तरह हिंदू अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बनने को अभिशप्त होगा। वे हिंदुओं के मन में इस बेबुनियाद डर को झूठे आंकड़ों और झूठी ख़बरों द्वारा पुष्ट करते रहते हैं, जिसके लिए उन्हें तथ्यात्मक प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है। मसलन, अभी कुछ दिनों पहले ही आर्थिक सलाहकार परिषद ने एक ऐसा ही आंकड़ा प्रकाशित किया, जिसके अनुसार 1950 से 2015 के बीच हिंदुओं की आबादी में 7.8 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जबकि इसी अवधि में मुसलमानों की आबादी में 43 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह दरअसल आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश करने का खेल है। जनसंख्या में वास्तविक वृद्धि को जानने का सही तरीक़ा यह है कि यह देखना होगा कि क्या 1951 के बाद हिंदू इतने कम बच्चे पैदा कर रहे हैं कि उनकी जनसंख्या कम होती जा रही है और मुसलमान इतने अधिक बच्चे पैदा कर रहे हैं कि उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। 1951 में भारत की कुल जनसंख्या 36 करोड़ से ज्यादा थी जिनमें से 30 करोड़ से अधिक हिंदू थे और मुसलमान साढ़े तीन करोड़ थे। यानी भारत की कुल जनसंख्या का 84.68 प्रतिशत हिंदू और 9.84 प्रतिशत मुसलमान थे। 2011 में भारत की कुल आबादी में से हिंदू 96.63 करोड़ और मुसलमान 17.22 करोड़ थे। इस तरह 1951 से 2011 तक आते-आते हिंदुओं की आबादी में 66.63 करोड़ और मुसलमानों की आबादी में 13.72 करोड़ की वृद्धि हुई। यानी 60 साल में हिंदुओं की जनसंख्या तीन गुना से ज्यादा बढ़ी और मुसलमानों की चार गुने से थोड़ा कम बढ़ी। इसने 1951 में कुल जनसंख्या में हिंदुओं और मुसलमानों के प्रतिशत में बदलाव ला दिया। 1951 में जनसंख्या में हिंदुओं का प्रतिशत 84.68 था जो 2011 में कम होकर 79.8 प्रतिशत हो गया, लेकिन मुसलमानों का प्रतिशत 9.84 से बढ़कर 14.09 हो गया। इसकी वजह यह थी कि हिंदू महिलाओं ने इस दौरान मुस्लिम औरतों की तुलना में कम बच्चे पैदा किये। इसका कारण धर्म नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन था। जैसे-जैसे इसमें बदलाव आया मुस्लिम महिलाओं ने भी कम बच्चे पैदा करने शुरू कर दिये। इसे सरकारी आंकड़ों से ही समझा जा सकता है। 1991 में प्रत्येक हिंदू महिला औसतन 3.3 बच्चे पैदा करती थीं, जिनमें 2015 तक आते-आते गिरावट आकर केवल 2.1 रह गयी। इसके विपरीत 1991 में एक मुस्लिम महिला औसतन 4.4 बच्चे पैदा करती थीं, जो 2015 तक आते-आते कम होकर केवल 2.6 रह गयी। यानी मुस्लिम औरतों में इस अवधि में वृद्धि दर हिंदू महिलाओं की अपेक्षा ज़्यादा तेज़ी से कम हुई और उनके बीच का अंतर जो 1991 में 1.0 था, वह कम होकर 0.5 रह गया। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि हिंदुओं और मुसलमानों दोनों में जनसंख्या में बढ़ोतरी तो हो रही है, लेकिन बढ़ोतरी का प्रतिशत लगातार कम होता जा रहा है और हिंदुओं और मुसलमानों की वृद्धि दर कम होकर लगभग एक दूसरे के नज़दीक आ गयी है। यही प्रवृत्ति विकसित देशों में भी घटित हुई है और अब भारत में भी घटित हो रही है और यह इसलिए हो रही है कि सभी धर्मों की महिलाएं, जिनमें मुस्लिम महिलाएं भी शामिल हैं, लगातार कम बच्चे पैदा कर रही हैं। ऐसा वे इसलिए कर पा रही हैं, क्योंकि इस दौरान स्त्रियों की शिक्षा, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन में कमी आयी है और परिवार कितना बड़ा या छोटा होना चाहिए, इसके बारे में महिलाएं स्वयं निर्णय लेने में सक्षम हुई हैं। मुसलमानों के बारे में यह भ्रामक प्रचार किया जाता है कि वे चार पत्नियां रख सकते हैं और इसी अनुपात में बच्चे भी ज़्यादा पैदा करते हैं, जबकि कोई सरकारी दावा इसकी पुष्टि नहीं करता। लेकिन हिंदुत्ववादी ताक़तों का मुसलमानों की आबादी के बारे में लगातार मिथ्या प्रचार करना ख़तरनाक साबित होता जा रहा है। यह हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति पहले से जड़ जमाये पूर्वाग्रहों को न केवल मजबूत करता है, बल्कि उनके प्रति नफ़रत और घृणा में भी वृद्धि करता है, जो कभी भी हिंसक रूप ले सकता है।

नरेंद्र मोदी मुसलमानों के बारे में मिथ्या प्रचार तब भी करते थे, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। ‘हम पांच हमारे पच्चीस’ और शरणार्थी शिविरों को बच्चे पैदा करने के कारखाने कहना उनकी सांप्रदायिक मानसिकता का परिणाम था। 2024 के चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मुसलमानों के बारे में बहुत तरह के मिथ्या प्रचार करते रहे हैं, कर रहे हैं। मुस्लिम समुदाय के बारे में उनके द्वारा फैलायी गयी बातों का निचोड़ यह है कि बीस करोड़ मुस्लिम नागरिकों का भारत के संसाधनों और संपदा पर कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई भी राजनीतिक पार्टी मुसलमानों के हित के बारे में मामूली-सी बात भी कहती है, तो इस तरह उसे फैलाया जाता है, जैसे उस राजनीतिक पार्टी ने हिंदुओं के आगे रखी थाली उठाकर मुसलमानों के सामने रख दी हो। कांग्रेस के विरुद्ध प्रचार का एक मुख्य मुद्दा मुस्लिम तुष्टिकरण होता है, जबकि सच्चाई यह है कि आज़ादी के बाद के इन 75 सालों में किसी भी सरकार ने मुस्लिम समुदाय के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया है। उनके पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण यही है। चार दशकों से मुस्लिम समुदाय लगातार हमले की ज़द में हैं। उन्हें कई बार नरसंहारों का निशाना बनाया गया है। पिछले दस सालों में मुस्लिम समुदाय के नरसंहार का कई बार आह्वान किया गया है और ऐसा आह्वान करने वालों के विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई है। दूसरी ओर हिंदुओं को भी लगातार धार्मिक पिछड़ेपन और सांप्रदायिक उन्माद की ओर धकेला जा रहा है। नरेंद्र मोदी को ईश्वर के अवतार की तरह पेश किया जा रहा है। वे स्वयं को ईश्वर के ऐसे दूत की तरह पेश करते हैं, जिसे स्वयं ईश्वर ने विशेष प्रयोजन को पूरा करने के लिए भेजा है और अगले 23 साल (2047) तक वे ईश्वर के इस प्रयोजन को पूरा करने के काम में लगे रहेंगे। नरेंद्र मोदी द्वारा और नरेंद्र मोदी के लिए कही जाने वाली ये सभी बातें हास्यास्पद हैं और कोई भी विवेकशील समाज इस पर हंस ही सकता है। लेकिन भारत में इस बात को सच मानने वालों की संख्या करोड़ों में हो, तो कोई आश्चर्य नहीं।

2024 का चुनाव दरअसल नरेंद्र मोदी और भाजपा की विजय और पराजय तक सीमित नहीं है। यह भारत के नागरिकों की अग्नि-परीक्षा भी है कि वे इस देश को धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश बनाये रखना चाहते हैं या इसे पाकिस्तान की तरह एक हिंदू पाकिस्तान बनाना चाहते हैं : एक सांप्रदायिक, धार्मिक तत्ववादी और फासीवादी राष्ट्र। धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाये रखने की लड़ाई सत्ता के बदलाव के बाद भी ख़त्म नहीं होगी, क्योंकि पिछले चार दशकों में हिंदुत्ववादी ताक़तों ने व्यवस्था को काफ़ी हद तक अपने चंगुल में कर लिया है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में वे इतने गहरे तक पैठ चुके हैं कि केवल सत्ता बदलाव से उनसे मुक्ति नहीं मिलेगी। वह एक और लंबी लड़ाई के बाद ही संभव होगा।

 

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