जब रुड़की के एक्वाडक्ट को देखकर अभिभूत हो गए भारतेंदु

 डॉ गोपाल नारसन एडवोकेट                      
एक बार भारतेंदु हरिश्चंद्र रुड़की से होकर हरिद्वार गए तो रुड़की की ऐतिहासिक गंगनहर को देखकर अभिभूत हो गए।यह तथ्य स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने यात्रा वृत्तांत संस्मरणों में लिखा है।उनके द्वारा यह यात्रा सन 1871 में की गई थी।अपनी हरिद्वार यात्रा में उन्होंने यहां की गंगनहर के सौंदर्यीकरण का रोचक, रोमांचक और अनुपम वर्णन किया है।रुड़की में  इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना गंगनहर पर बना एक्वाडक्ट जिसमे गंगनहर सोलानी नदी के ऊपर से गुजरती है ,को भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्यिक विधा की गहराई में उतरकर शब्दों में उतारा था।उन्होंने अपनी इस यात्रा का वर्णन करते रुड़की की गंगनहर के विषय में लिखा है कि ‘यहां सबसे आश्चर्य श्री गंगा जी की नहर है, पुल के ऊपर से तो यह नहर बहती है और नीचे से नदी बहती है। यह एक बड़े आश्चर्य का स्थान है। इसको देखने से शिल्प-विद्या का बल और अंग्रेजों का चातुर्य और द्रव्य का व्यय प्रगट होता है। न जाने वह पुल कितना दृढ़ बना है कि उस पर से अनवरत कई लाख मन वरन करोड़ मन जल बहा करता है और वह तनिक नहीं हिलता। भारतेंदु आगे लिखते है कि रुड़की के इस स्थल में ऊपर गंगनहर में जल बहता है और गंगनहर के नीचे नदी बहती है।जिसमे पुल के नीचे से सोलानी नदी नाव व पुल के ऊपर गंगनहर में भी नाव चलती है और उसके दोनों ओर गाड़ी जाने का मार्ग है और उसके परले सिरे पर चूने के सिंह यानि शेर की विशालकाय प्रतिमा बनी हैं। हरिद्वार का एक मार्ग इसी नहर की पटरी पर से है और भारतेंदु हरिश्चंद्र इसी मार्ग से गए थे। भारतेंदु के शब्दों में,’यह श्री गंगा जी की नहर हरिद्वार से  आई है और इसके लाने में यह चातुर्य किया है कि इसके जल का वेग रोकने के लिए इसको सीढ़ी की भांति लाए हैं। कोस कोस डेढ़ डेढ़ कोस पर बड़े बड़े पुल बनाए हैं वही मानों सीढ़ियां हैं और प्रत्येक पुल के ताखों से जल को नीचे उतारा है। जहां जहां जल को नीचे उतारा है वहां बड़े बड़े सीकड़ों में कसे हुए दृढ़ तख्ते पुल के ताखों के मुंह पर लगा दिए हैं और उनके खींचने के लिए ऊपर चक्कर रखे हैं। उन तख्तों से ठोकर खाकर पानी नीचे गिरता है वह शोभा देखने योग्य है। एक तो उसका महान शब्द दूसरे उसमें से फुहारे की भांति जल का उबलना और छींटों का उड़ना मन को बहुत लुभाता है और जब कभी जल विशेष लेना होता है तो तख्तों को उठा लेते हैं फिर तो इस वेग से जल गिरता है जिसका वर्णन नहीं हो सकता और ये मल्लाह दुष्ट वहां भी आश्चर्य करते हैं कि उस जल पर से नाव को उतारते हैं या चढ़ाते हैं। जो नाव उतरती है तो यह ज्ञात होता है कि नाव पाताल का गई पर वे बड़ी सावधानी से उसे बचा लेते हैं और क्षण मात्र में बहुत दूर निकल जाती है पर चढ़ाने में बड़ा परिश्रम होता है।
यह नाव का उतरना चढ़ना भी एक कौतुक ही समझना चाहिए। इसके आगे और भी आश्चर्य है कि दो स्थान ऐसे है जहां नीचे नहर है और ऊपर से नदी बहती है। वर्षा के कारण वे नदियां क्षण में तो बड़े वेग से बढ़ती थी और क्षण भर में सूख जाती है और भी मार्ग में जो नदी मिली उनकी यही दशा थी। उनके करारे गिरते थे तो बड़ा भयंकर शब्द होता था और वृक्षों को जड़ समेत उखाड़ के बहाये लाती थी। वेग ऐसा कि हाथी न संभल सके पर आश्चर्य यह कि जहां अभी डुबा था वहां थोड़ी देर पीछे सूखी रेत पड़ी है और आगे एक स्थान पर नदी और नहर को एक में मिला के निकाला है।
यह भी देखने योग्य है। सीधी रेखा की चाल से नहर आई है और बड़ी रेखा की चाल से नदी गई है। जिस स्थान पर दोनों का संगम है वहां नहर के दोनों ओर पुल बने हैं और नदी जिधर गिरती है उधर कई द्वार बनाकर उसमें काठ के तख्ते लगाए हैं जिससे जितना पानी नदी में जाने देना चाहें उतना नदी में और जितना नहर में छोड़ना चाहें उतना नहर में छोड़ें। जहां से नहर श्री गंगाजी में से निकली है, वहां भी ऐसा ही प्रबंध है और गंगाजी नहर में पानी निकल जाने से दुबली और छिछली हो गई है परंतु जहा नील धारा आ मिली है वहां फिर ज्यौं की त्यौं हो गई है।रुड़की की गंगनहर को लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह गाथा इतिहास के स्वर्णिम पन्नो में दर्ज है।मात्र अपने 34 वर्षों के छोटे से जीवन मे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्यिक ऊंचाईयों को छुवा है।वे अनेक भारतीय भाषाओं में कविता करते थे परंतु ब्रजभाषा पर उनका असाधारण अधिकार था, श्रृंगार रचना करने में तो वे परिपूर्ण थे| उनके प्रेम विषय पर ही सात संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें ` प्रेम फुलवारी’, ` प्रेम-प्रलाप’, `प्रेमाशु-वर्णन’, प्रेम-माधुरी’, `प्रेम-मालिका’, `प्रेम-तरंग’, प्रेम-सरोवर शामिल हैं| उनका युग समस्यापूर्ति का युग था| जिसके अभ्यास ने उन्हें आशु कवि बनाया| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र  को यात्राओं का बहुत शौक था|उनके द्वारा लगभग हर विधा में कलम चलाई गई।उनके मौलिक नाटक​ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति,सत्य हरिश्चंद्र,श्री चंद्रावली
भारत दुर्दशा,नीलदेवी,अंधेरी नगरी विषस्य विषमौषधम्
प्रेम जोगनी,सती प्रताप जहां चर्चित है वही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के निबंध संग्रह​ नाटक,कश्मीरी कुसुम,कालचक्र,लेवी प्राण लेवी,
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?
जातीय संगम,हिंदी भाषा,संगीत सार,स्वर्ग में विचार सभा की  हिंदी साहित्य में खास अहमियत है। वही भारतेन्दु हरिश्चंद्र की यात्रा रचनाओ में लखनऊ,सरयूपार की यात्रा के साथ ही उनके उपन्यासो
चंद्रप्रभा,पूर्ण प्रकाश जबकि  कविताओ में रोअहूं सब मिलिकै,
चूरन का लटका,गंगा-वर्णन
मुकरियाँ,परदे में क़ैद औरत की गुहार,हरी हुई सब भूमि
ऊधो जो अनेक मन होते,चने का लटका आदि गहरी छाप पाठक के मन पर छोड़ते है।9 सितंबर सन 1850 से 6 जनवरी सन 1885 तक के अल्प जीवन मे अपने रचना संसार के कारण सदा के लिए जीवंत हो जाना ही भारतेंदु हरिश्चंद्र की कलम की सफलता है।तभी तो भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह माना जाता है।
(लेखक 21 पुस्तकों के रचयिता साहित्यकार है)   

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