बेबस कांग्रेस

  • कांग्रेस का स्वर्णिम काल और वर्तमान
  • क्या परिवारवाद से उबर पायेगी पार्टी
  • संगठन की जरूरत नहीं
  • कहां गया कांग्रेस सेवा दल

ठीक 20 साल पहले भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में हुए विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। उस वक्त हमें सिर्फ़ दिल्ली में जीत मिली थी। लेकिन कुछ कुछ ही महीनों में जोरदार ढंग से वापसी करते हुए कांग्रेस लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और केंद्र में सरकार बनाई। आशा, विश्वास, धैर्य और दृढ़ संकल्प साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों के लिए तैयारी करेगी।

अमित नेहरा, नई दिल्ली।

जुड़ेगा भारत, जीतेगा INDIA!

एक्स (ट्विटर) पर ये ट्वीट वरिष्ठ कांग्रेस (Congress)नेता जयराम रमेश ने 3 दिसम्बर 2023 को किया। उसी दिन जिस दिन मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के नतीजे आये थे (मिजोरम विधानसभा चुनाव के वोटों की गिनती अगले दिन 4 दिसंबर को हुई थी)। इन चार राज्यों में से तीन मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा ने भारी बहुमत से सरकारें बना लीं जबकि कांग्रेस के हाथों में केवल तेलंगाना ही आ सका।
अब बात आती है जयराम रमेश के इस ट्वीट की। इस ट्वीट से स्पष्ट है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी अभी भी दो दशक पहले के युग में जी रही है। जबकि तब से लेकर आज तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। देश की राजनीति में आमूल चूल परिवर्तन आ चुका है और कांग्रेस है कि इसे समझना ही नहीं चाह रही है। जयराम रमेश जिस 20 साल पहले की बात कह रहे हैं उस समय भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का युग था और ये नेता काफी हद तक मर्यादित व नैतिकता की राजनीति में विश्वास रखते थे।
लेकिन अब भाजपा वो भाजपा नहीं रह गई है। ये अब नरेंद्र मोदी व अमित शाह की भाजपा है। जिनकी आक्रामक व अनुशासित राजनीति ने देश की राजनीति के मायने ही बदल दिए हैं। इस भाजपा का लक्ष्य येन केन प्रकारेण हर चुनाव जीतना है उसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े। इन दोनों नेताओं ने भाजपा को एक तरह से इलेक्शन विनिंग मशीन बना दिया है।
दरअसल कांग्रेस का पाला इससे पहले कभी इस तरह की सिचुएशन से नहीं पड़ा था। भारत की इस सबसे पुरानी पार्टी को वहम हो चुका था कि जनता सत्तारूढ़ पार्टी से तंग आकर उसे दोबारा सत्ता सौंप देनी ही है। अतः इसके लिए क्यों परिश्रम किया जाए। इस मनोस्थिति के कारण वह शिथिल होती चली गई। उदाहरण के तौर पर, आजादी के बाद लगभग 50 साल तक उत्तरप्रदेश में कांग्रेस जिस तरह से काबिज थी आज उसी तरह यहाँ भाजपा काबिज है और कांग्रेस यहाँ बड़ी दीन-हीन हालत में है।
कांग्रेस के कमजोर होने और इस स्थिति में आने के बहुत से कारण हैं। वर्ष 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई और जल्द ही इसने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध पूरी तरह कांग्रेस के नाम था। उस समय महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के पर्याय थे। देश आजाद होने के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया गया, लेकिन इसी दौरान महात्मा गांधी की दुखद हत्या कर दी गई। जवाहरलाल नेहरू मृत्युपर्यन्त प्रधानमंत्री रहे। कुछ समय तक लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी मौत के पश्चात नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। वर्ष 1977 में जाकर पहली बार कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से बेदखल होना पड़ा। तीन साल बाद इंदिरा गांधी पुनः प्रधानमंत्री बनी और 1984 तक अपनी हत्या के समय तक इस पद पर बनी रहीं।
जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी दोनों ने देश और कांग्रेस को अपने हिसाब से चलाया खासकर कांग्रेस पार्टी में तो उनका विरोध लगभग शून्य ही था।
हालांकि, 1984 में हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति से कांग्रेस को जितनी लोकसभा सीटें आईं उतनी न तो कभी किसी पार्टी को पहले आईं ना आज तक आई हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, लेकिन वे खांटी राजनीतिज्ञ नहीं थे और उनकी छवि एक भद्र पुरुष की थी। उन्होंने पार्टी में जिन-जिन लोगों पर आँखें मूंदकर विश्वास किया, उन्होंने ही उन्हें धोखा दिया। इससे राजीव गांधी की पार्टी पर पकड़ ढ़ीली होती चली गई। लेकिन जब उन्हें राजनीति की समझ आनी शुरू हुई तो उसी समय उनकी हत्या हो गई।
इसके बाद पी वी नरसिंह राव कांग्रेस पार्टी की तरफ से देश के प्रधानमंत्री बने। नरसिम्हा राव पहले ऐसे गैर नेहरू परिवार के व्यक्ति थे जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। उसी समय स्वर्गीय राजीव गांधी की धर्मपत्नी सोनिया गांधी से मतभेद शुरू हो गए और कांग्रेस का तेजी से पतन होना शुरू हो गया। आरोप लगाया जाता है कि इस तनातनी के चलते नरसिम्हा राव ने कांग्रेस संगठन को रसातल पर पहुंचा दिया। उस समय पार्टी का नेतृत्व नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के पास था। उस दौरान अनेक कांग्रेसी दिग्गजों का पलायन और कड़वी अंदरूनी कलह देखी गई थी। आखिरकार 1998 में सोनिया के कार्यभार संभालने और आठ साल बाद पार्टी को सत्ता में वापस लाने के बाद ही हालात स्थिर हुए। इसी का परिणाम रहा कि 1996 के बाद 2004 में ही जाकर केंद्र में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार बन पाई जो 2014 तक कायम रही।
इस दौरान सोनिया गांधी का कांग्रेस पर पूरी तरह नियंत्रण रहा। हालांकि वे जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी जैसा करिश्मा तो नहीं दिखा पाई, लेकिन उनकी खूबी यह रही कि उन्होंने कांग्रेस का केंद्रबिंदु नेहरू परिवार को बनाए रखा।
लेकिन अब तक केंद्रीय स्तर पर भाजपा में नरेंद्र मोदी नामक एक नए युग की शुरुआत होने जा रही थी। जिसके पास नई योजनाएं व नई सोशल इंजीनियरिंग के विविधतापूर्ण नए हथियार थे। कांग्रेस इस नई सुनामी का सामना नहीं कर पाई और 2014 व 2019 के आम चुनावों में बुरी तरह मुंह की खा चुकी थी। क्योंकि 2014 में पार्टी को अब तक की सबसे कम 44 सीटों पर सन्तोष करना पड़ा जबकि 2019 में उसके प्रदर्शन में केवल आठ सीटों का ही मामूली सुधार हुआ।
भाजपा इस स्थिति में आ चुकी थी कि कांग्रेस उसको चुनौती देने की सोच भी नहीं सकती थी। देश की सबसे पुरानी पार्टी पूरी तरह हताश और बेबस दिखाई पड़ रही थी।
इसकी एक वजह तो यह थी कि सोनिया गांधी का स्वास्थ्य व उम्र उनका साथ नहीं दे पा रहा था। दूसरी तरफ उनके पुत्र राहुल गांधी भी अपने पिता की तरह खांटी राजनीतिज्ञ नहीं थे। कांग्रेस ने अपनी आशाएं राहुल गांधी पर लगा रखी थीं, लेकिन वे भी राजनीति में भलमनसाहत के प्रयोग का शिकार हो गए। वे कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं व क्षत्रपों पर ज्यादा सख्ती नहीं बरत पाए। जिसके कारण उनका पार्टी पर मजबूत नियंत्रण नहीं रहा। बहुत से नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होते चले गए। हालांकि 2022 के अंत में राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा निकाल कर एक मजबूत व सक्षम नेता होने का संकेत दिया। लेकिन उस यात्रा के पश्चात वे फिर राजनीतिक रूप से निष्क्रिय से दिखाई दिए।
कांग्रेस की कमजोर हालत के कारण
परिवारवाद
कांग्रेस की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण एक परिवार विशेष पर आश्रित रहना है। हालांकि परिवारवाद के सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही परिणाम हैं। अगर परिवार का उत्तराधिकारी मजबूत और सक्षम है तो पार्टी बेहद मजबूत स्थिति में पहुंच सकती है, अगर नाकारा हुआ तो पार्टी का रसातल में जाना तय है। परिवारवाद के चलते पार्टी में सेकेंड लीडरशिप नहीं पनप पाती। वैसे, राहुल-सोनिया ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद के लिए आंतरिक चुनाव करवा कर एक संकेत देने की कोशिश की है। लेकिन जो सच है उससे कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता। सबको पता है कि अब भी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण फैसले कहाँ और किसके द्वारा लिए जाते हैं। फिलहाल, मोदी वर्सेज राहुल की जंग में कांग्रेस का पाला कमजोर दिखाई देता है। अभी कांग्रेस को भाजपा का मुकाबला करने के लिए राहुल गांधी को और ज्यादा परिमार्जित करने की आवश्यकता है।
खुद ही पक्ष खुद ही विपक्ष
कांग्रेस की बहुत पुरानी परिपाटी रही है कि वह खुद ही पक्ष, खुद ही विपक्ष की भूमिका निभाती रही है। ये सिलसिला देश की आजादी से लेकर 1990 तक तो ठीक था। दरअसल, उस समय तक देश के ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस की सरकारें होती थीं। उस समय कांग्रेस की नीति यह रहती थी कि कांग्रेसनीत सभी राज्यों में मुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दोनों पद उन व्यक्तियों को सौंपे जाते थे जो एक दूसरे के विरोधी होते थे। इसके दो फायदे थे एक तो कांग्रेस खुद ही पक्ष खुद ही विपक्ष की भूमिका निभाने लगती थी। इस गड़बड़झाले में असली विपक्ष को मीडिया या जनता में जगह ही नहीं मिलती थी। दूसरा फायदा यह था कि मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष दोनों ही आलाकमान को एक दूसरे की शिकायतें करते रहते थे जिसके कारण आलाकमान को बैठे बिठाये सम्बन्धित प्रदेश की सारी सूचनाएं मिलती रहती थीं। इससे दोनों पक्षों को काबू करने में आसानी रहती थी। आलाकमान की पकड़ बनी रहती थी।
लेकिन अब देश व राज्यों की परिस्थियां बिल्कुल बदल चुकी हैं। यहाँ कांग्रेस की जगह भाजपा ने ले ली है। लेकिन कांग्रेस ने खुद ही पक्ष खुद ही विपक्ष वाली नीति नहीं छोड़ी है। हकीकत में जब उसके सामने सशक्त विपक्ष है तो उसे इस नीति का त्याग करना पड़ेगा। मगर कांग्रेस के हर राज्य में अनेक धड़े बन चुके हैं। ये धड़ेबाजी भी कांग्रेस की दुर्दशा का महत्वपूर्ण कारण है।
संगठन का अभाव
आजादी से भी बहुत पहले कांग्रेस का संगठन पूरे देश में प्रदेश, जिला और गांव स्तर पर बन चुका था और सुचारू रूप से चला। मगर आज हालात यह हैं कि आबादी के हिसाब से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का संगठन नदारद है। लगभग हर राज्य में ही यह स्थिति है। हरियाणा में जहां पार्टी कमोबेश बेहतर स्थिति है, यहाँ भी जिला स्तर पर संगठन बने 10 साल से भी ऊपर हो गए हैं। दूसरी तरफ उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी भाजपा ने पन्ना प्रमुख तक बना रखे हैं। किसी भी पार्टी के लिए ग्रासरूट लेवल तक कार्यकर्ताओं का संगठन होना बेहद जरूरी है। लेकिन कांग्रेस की क्षेत्रीय गुटबाजी निचले स्तर पर संगठन पर बनने ही नहीं देती। यह आलाकमान की नाकामयाबी ही दर्शाती है। बिना अनुशासित फौज के राजनीतिक लड़ाई नहीं जीती जा सकती है।
आरएसएस बनाम कांग्रेस सेवा दल
एक समय था जब कांग्रेस में कांग्रेस सेवा दल की तूती बोलती थी। हर रैली, हर जलसे और हर कार्यक्रम में सिर पर टोपी लगाए कांग्रेस सेवा दल के अनगिनत कार्यकर्ता दिखाई देते थे। इसी दल के ऊपर कांग्रेस के हर कार्यक्रम को सफल बनाने की जिम्मेवारी होती थी।
कांग्रेस सेवा दल कांग्रेस की इतनी महत्वपूर्ण इकाई था कि जब राजीव गांधी की कांग्रेस में प्रविष्टि कराई गई, तो उन्हें कांग्रेस सेवा दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन कांग्रेस की धीरे-धीरे सिकुड़ने की प्रक्रिया की तरह ही कांग्रेस सेवा दल का अस्तित्व भी खात्मे की कगार पर है।
जब राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने तो उन्होंने कांग्रेस सेवा दल का पुनर्निर्माण करने और इसे पार्टी के लिए एक वैचारिक समर्थन ब्लॉक के रूप में कार्य करने का प्रयास किया था। लेकिन उनके पद छोड़ने के बाद से उस मोर्चे पर बहुत कम प्रगति हो पाई है।
जिस तरह कांग्रेस के लिए कांग्रेस सेवा दल है उसी तरह की भूमिका भाजपा के लिए आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) निभाता है। लेकिन आरएसएस ने पिछले एक दशक में अपने आपको विस्तारित किया है उसी अनुपात में कांग्रेस सेवा दल सिकुड़ा है। कांग्रेस सेवा दल का नष्टप्रायः होना भी पार्टी की बुरी हालत के लिए जिम्मेदार है। जब तक इस संगठन में पुनः प्राण नहीं फूंके जाएंगे तब तक कांग्रेस का रिवाइवल होना दूर की कौड़ी लगता है।
युवा नेतृत्व का अभाव
जब कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन 10 साल तक सत्ता में था तब सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा और आरपीएन सिंह आदि युवाओं को मंत्री बनाया गया। केसी वेणुगोपाल, जितेंद्र सिंह और अजय माकन भी तब युवा ही थे उन्हें भी केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह दी गई थी। लेकिन अब इनमें से अनेक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं और जो कांग्रेस में हैं वे भी आलाकमान से नाराज चल रहे हैं। जब तक युवाओं को भरपूर मौका नहीं मिलता तब तक कांग्रेस का कायाकल्प होना काफी मुश्किल है।
विचारधारा में अस्पष्टता
कांग्रेस की सबसे बड़ी विफलता भाजपा के प्रचार का मुकाबला करने के लिए एक विश्वसनीय, एकजुटता तैयार करने में असमर्थता रही है। कांग्रेस, भाजपा का केवल आलोचना से जवाब देती है, वह किसी भी मुद्दे का रचनात्मक विकल्प नहीं देती. राहुल गांधी की राय को विचार-विमर्श और सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श के माध्यम से की गई सामूहिक प्रतिक्रिया के बजाय पार्टी के विचारों के रूप में स्वीकार किया जाता है।
उदाहरण के तौर पर लद्दाख में चीन के साथ सीमा संघर्ष के मुद्दे पर भी कांग्रेस ने कोई वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश नहीं किया। इसके बजाय, राहुल गांधी ने इस मौके का इस्तेमाल प्रधानमंत्री की मजबूत छवि और 56 इंच की छाती पर तंज कसने के लिए किया।
इसी तरह अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) और सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) जैसे विवादास्पद मुद्दों पर भी कांग्रेस के रुख में वैचारिक अस्पष्टता जारी रही।
दूसरी तरफ भाजपा ने कांग्रेस के द्वारा उठाये मुद्दों को ही उसके खिलाफ प्रयोग कर लिया और जनता में कांग्रेस की छवि को नकारात्मक तरीके से पेश कर दिया। कांग्रेस इसका प्रभावशाली तरीके से मुकाबला नहीं कर पाई।
इनके अलावा अन्य बहुत से मुद्दे ऐसे हैं जिन पर कांग्रेस को गहन चिंतन के साथ-साथ उनके निराकरण करने की भी आवश्यकता है। नहीं तो पार्टी का और ज्यादा रसातल में जाना तय है। याद रखिए स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है अन्यथा लोकतंत्र एक मजाक बनकर रह जाता है।
चलते-चलते
 
ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के केंद्रीय कार्यालय का यही पता है। इसमें आम जनता के लिए जो शौचालय है, उसमें लगे वाशबेसिन की हालत फोटो में दिखाई दे रही है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस वाशबेसिन का प्रयोग रोजाना सैंकड़ों लोग करते हैं। देखा जाए तो इस वाशबेसिन को बदलने का खर्चा महज कुछ सौ रुपये है। कुछ सौ रुपया खर्च करना कोई बहुत बड़ी रकम नहीं है। साथ ही इस वाशबेसिन को बदलवाना भी कोई ज्यादा श्रमसाध्य कार्य नहीं। किसी प्लम्बर को महज एक फोन करने से यह कार्य आसानी से कुछ ही घंटों में हो सकता है।
लेकिन, इससे यह पता चलता है कि इस भवन की देखभाल किस तरह की जा रही है और देखभाल करने वाले अपने काम के प्रति कितने संजीदा हैं। बिल्कुल यही हालत कांग्रेस के संगठन का हो चुका है। किसी को भी किसी की परवाह नहीं है। नेतृत्व चाहे तो महीने भर में सब कुछ पटरी पर आ सकता है। पर उसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति व कठिन परिश्रम की आवश्यकता है। देखना रोचक रहेगा कि कब जाकर इस वाशबेसिन और कांग्रेस के दिन सुधरते हैं।

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