चुनावी गारंटियों पर लगे रोक!

धर्मपाल धनखड़
मुफ्त की रेवड़ियां चुनावी सफलता की गारंटी बन गई हैं। पिछले दिनों संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों ( Political parties) ने जनता को लुभाने के लिए एक से बढ़कर एक फ्री के वादे किये। चुनाव की घोषणा से पूर्व इन राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों ने समाज कल्याण के नाम पर अनेक फ्री की योजनाएं शुरू की। मध्यप्रदेश में बीजेपी को मिली सफलता के पीछे ‘लाडली बहना’ योजना का महत्वपूर्ण योगदान माना जा रहा है। इस योजना के तहत महिलाओं को 1275 रूपए महीना दिये गये। योजना को शुरू करने के मकसद से राज्य सरकार ने केंद्रीय बैंक से कर्ज भी लिया। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार ने भी चुनाव से पहले मुफ्त की कई योजनाएं शुरू की थीं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ‘मोदी की गारंटी’ खूब चलीं। इसी तरह तेलंगाना में लोगों ने कांग्रेस की गारंटियों पर विश्वास किया। कुछ महीने पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने मुफ्त की गारंटियों की घोषणा करके बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया था। 
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले पांच साल तक बीपीएल परिवारों को पांच किलो अनाज फ्री देने की घोषणा करके 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में जीत की गारंटी हासिल कर ली। ये मुफ्त अनाज योजना, कोरोना महामारी के दौरान महज तीन महीने के लिए शुरू की थी। जो उचित भी थी लेकिन बाद में इसे थोड़े-थोड़े समय के लिए बढ़ाकर चुनावी लाभ भी लिया गया। अब इसे सीधे पांच साल के लिए बढ़ा दिया गया। जाहिर है ये चुनाव जीतने के लिए ही किया गया है। वैसे मोदी जी सैद्धांतिक रूप से फ्री की रेवड़ियां बांटने के सख्त खिलाफ हैं। लेकिन चुनावी जंग में सिद्धांत और नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं है। पिछले दिनों उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी फ्री उपहार देने पर एतराज़ जताया था। सुप्रीम कोर्ट भी इस बारे में कई बार आगाह कर चुका है। भारतीय निर्वाचन आयोग भी इसको लेकर चिंतित हैं। प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग और जाने माने अर्थशास्त्री सभी मुफ्त की योजनाओं के विरोधी हैं, लेकिन फिर भी ये जारी हैं। ना केवल जारी हैं, बल्कि फ्री की योजनाओं का भार लगातार बढ़ता जा रहा है। 
फ्री बांटने की योजनाओं के चलते राज्य कर्ज के बोझ से दबते जा रहे हैं। आधारभूत ढांचे के लिए धन की कमी आड़े आ रही हैं। अधिसंख्य लोग निठल्ले और आलसी हो रहे हैं। धन की कमी के चलते सरकार शिक्षा और चिकित्सा जैसी सामाजिक जिम्मेदारियों से पीछे हट रही हैं। सरकारी स्कूल धड़ाधड़ बंद हो रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सेवाओं की हालत खस्ता है। केंद्र सरकार को रूटीन खर्च चलाने के लिए धन जुटाने को सरकारी उपक्रम बेचने पड़ रहे हैं। विश्व मानव विकास सूचकांक में हम दशकों से 130 से 135 वें स्थान पर हैं। संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक 74 फीसदी भारतीय आबादी स्वस्थवर्धक गुणवत्तापूर्ण खाना खरीदने में सक्षम नहीं हैं। बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है। महंगाई से जनता त्रस्त है। एक तरफ हम दुनियां की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दम भर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने 2030 तक देश को तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा है। दूसरी तरफ आधी आबादी यानी साढ़े इक्यासी करोड़ लोग पांच किलो मुफ्त राशन पर निर्भर हैं। अमीर-गरीब के बीच की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। आक्सफैम की इसी साल जनवरी में आयी रिपोर्ट रिपोर्ट के मुताबिक पांच फीसदी लोग देश की 62 फीसदी संपत्ति पर काबिज हैं। वहीं पचास फीसदी आबादी के पास केवल तीन फीसदी संपत्ति है।
सैद्धांतिक रूप से देश के तमाम राजनीतिक दलों के मुखिया मुफ्त की योजनाओं के खिलाफ हैं। इन्हें विकास विरोधी मानते हैं। लेकिन विडंबना ये है कि राजनीतिक दल और उनके मुखिया सिद्धांतों को तिलांजलि दे चुके हैं। उनका मकसद चुनाव के दौरान झूठी-सच्ची अव्यवहारिक घोषणाएं और वादे करके सत्ता पर काबिज होना है। इस मामले में चाहे दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी हो या फिर कोई छोटी-मोटी नवगठित राजनीतिक पार्टी हो सब एक ही राह के पथिक हैं। सही मायनों में देखा जाये तो राजनीतिक दलों ने भारतीय लोकतंत्र को चुनावी तमाशे में तब्दील कर दिया है और जनता तमाशाई हो गयी है। वर्ना कोई कारण नहीं कि देश की मजबूत सरकार और मजबूत प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग सब सहमत होते हुए भी फ्री की योजनाओं पर अंकुश न लगायें। क्यों नहीं संसद में इसके विरूद्ध प्रस्ताव पारित करके कानून बनाया जाता? आखिर कब तक जनता को मुफ्त की घोषणाओं/योजनाओं से बहलाया जाता रहेगा? राजनीतिक दलों की मुफ्त की घोषणाएं मतदाताओं को खरीदने और रिश्वत देने के समान है। लोकतंत्र को बचाने और देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने के लिए फ्री के चुनावी वादों पर रोक लगाई जानी चाहिए।

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