- मोदी का चेहरा सामने होने के बावजूद भाजपा को करनी पड़ रही मशक्कत
- बदली राजनीति के बीच कोई भी दल किसी भी तरह की कोर कसर नहीं छोड़ रहा
डॉ. प्रभात ओझा, नई दिल्ली।
ये चुनाव लोकसभा निर्वाचन के लिए सेमीफाइनल की तरह है, यह बात भुला देनी चाहिए। आम तौर पर दोनों चुनाव अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं। यह जरूर है कि विधानसभा चुनाव भी केंद्रीय नेताओं, खासकर भाजपा में प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लड़े जाते रहे हैं। इस बार नजारा कुछ बदला है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव ( Assembly Elections) में कोई भी दल किसी भी तरह की कोर कसर नहीं छोड़ना चाहता। इधर मीडिया है कि हर बार की तरह इस बार भी बने बनाये मिथ दोहरा रहा है। यह कि ये लोकसभा चुनाव (Lok Sabha elections) का सेमीफाइनल है। यह कि भारतीय जनता पार्टी फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही चेहरे पर वोट मांग रही है। यह भी कि विपक्षी मोर्चा बनने के पहले ही बिखरने लगा है। यह सच भी है, पर पूरी तरह से नहीं। बिखराव विपक्ष में ही नहीं, केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए का राज्यों के दल में भी है। दूसरी बात यह कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) भले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ( Prime Minister Narendra Modi) का चेहरा सामने रख रही हो, इस बार राज्यों के क्षत्रपों को संभाले रखने के लिए उसे लंबी कसरत करनी पड़ रही है। इसे समझने के लिए हमें एक-एक कर राज्यों के ताजा हाल जानने होंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 30 अक्टूबर को मिजोरम पहुंचने की जानकारी मिली। वहां 7 नवंबर को मतदान होना है। इस तरह प्रचार अभियान के अंत में मोदी का पहुंचना भी मुद्दा बन गया है। राज्य के मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने कहा है कि वे प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा नहीं करेंगे। भाजपा ने यहां की 40 में से 32 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। पिछली बार उसने कुल 39 सीटों पर चुनाव लड़कर एक सीट जीती थी। इस तरह राज्य विधानसभा में उसका प्रवेश हुआ। इस बार राज्य पार्टी के प्रवक्ता जॉनी लालथनपुइया ने कहा कि यह निश्चित है कि पार्टी सभी 40 सीटों पर लड़ेगी अथवा नहीं। यह स्थिति तब है, जबकि राज्य के मुख्यमंत्री जोरमथंगा मिजो नेशनल फ्रंट के नेता हैं। फ्रंट मिजोरम में नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस का हिस्सा है। यह अलायंस केंद्र में एनडीए के साथ है। इस तरह केंद्र में साथ रहकर भी राज्य के चुनाव मैदान में भाजपा और मिजो नेशनल फ्रंट आमने-सामने हैं। तुर्रा यह कि राज्य के मुख्यमंत्री ने एक मजबूत चाल चलते हुए यह घोषणा कर दी है कि वे प्रधानमंत्री के साथ मंच पर नहीं जाएंगे। यह अलग मुद्दा है कि आखिर दोनों एक मंच पर किन सीटों के लिए एक साथ होंगे, जबकि भाजपा ने इतनी बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतार दिए हैं। फिर भी देखना होगा कि सीएम जोरमथंगा ने अपने निर्णय को पड़ोसी राज्य मणिपुर की हिंसा से जोड़ दिया है। उन्होंने कहा है कि मिजोरम में सभी लोग ईसाई हैं। पड़ोसी राज्य मणिपुर में मैतेई लोगों ने ईसाइयों के सैकड़ों चर्चों को आग लगा दी। वहां बीजेपी ही सरकार में है और प्रधानमंत्री भी इसी पार्टी के नेता हैं। जोरमथंगा यह जरूर जोड़ते हैं केंद्र में दो ही गठबंधन हैं। इसलिए वे एनडीए के साथ हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जोरमथंगा की पार्टी 26 सीटों के साथ सरकार में लौटी थी और कांग्रेस सिर्फ पांच सीटों पर सिमट गई। उसके पहले 2008 और 2013 में कांग्रेस क्रमशः 32 और 34 सीटें जीतकर सरकार में थी। पिछली बार दूसरे स्थान पर रहे ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट को आठ सीटें मिली थीं। फिर इस बार भी मुकाबला मिजो नेशनल फ्रंट और कांग्रेस के बीच ही दिख रहा है। इस बार त्रिकोण में मूवमेंट रहेगा अथवा बीजेपी, देखना यही है। इसी पर सरकार का भविष्य भी निर्भर है। फिलहाल तो राज्य के क्षत्रप मुख्यमंत्री भाजपा के अनुकूल नहीं हैं।
आइए मिजोरम के बाद तेलंगाना की चर्चा करें। तीन हिंदी भाषी प्रदेशों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुकाबले इन प्रदेशों पर लोगों का ध्यान कम ही है। तेलंगाना में 2028 के चुनाव में टीआरएस जिसका नाम अब बीआरएस है, उसने कुल 119 में से 88 सीटें जीतकर अपनी सरकार कायम रखी थी। इसके पहले 2014 में जब आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य बना, उसकी विधानसभा में के. चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस का ही बहुमत था। चुनाव होने पर भी कांग्रेस इस नए राज्य में सरकार नहीं बना सकी। इस बार वह खूब जोर लगा रही है। राज्य में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम का भी राज्य में वज़ूद है लेकिन वह हैदराबाद और पास के कुछ सीमित क्षेत्रों में ही है। केसीआर अपनी सरकार के कार्यों के भरोसे तीसरी बार सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं। राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में पोडु लैंड का पट्टा देने और करीब डेढ़ लाख परिवारों को दलित बंधु योजना में शामिल होने को भी केसीआर के पक्ष में माना जाता है। तेलंगाना में कांग्रेस की रणनीति भाजपा को कमजोर बताकर बीआरएस से सीधे मुकाबले में बने रहने की कोशिश है। कर्नाटक की जीत से पार्टी उत्साह में है और राहुल गांधी-प्रियंका गांधी वाड्रा जैसे नेता भी कई बार राज्य में सभाएं और संपर्क कर चुके हैं।
अब बात छत्तीसगढ़ की। पिछले चुनावों में कांग्रेस और भाजपा के सीधे मुकाबले को इस बार ‘हमर राज पार्टी’ त्रिकोणीय बनाना चाहती है। यह आदिवासियों का नया संगठन है और इसे मिलने वाले मतों पर राज्य विधानसभा का भविष्य तय होगा। पहले मध्य भारत, फिर मध्य प्रदेश और अब अलग राज्य छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की मांग होती रही है। ऐसा 1969 में संभव हुआ था, जब आज के सारंगगढ़ विधानसभा क्षेत्र से विधायक और वहां के राजा नरेश चंद्र सिंह अविभाजित मध्य प्रदेश के एकमात्र आदिवासी सीएम बने। वे सिर्फ 13 दिन इस कुर्सी पर रह सके। अपनी ही पार्टी के रुख से खिन्न होकर उन्होंने संन्यास ले लिया था। आज दूसरे सीटों को मिलाकर सर्व आदिवासी समाज की नजर 10 अनुसूचित और 29 आदिवासी क्षेत्रों पर है। कुल 90 में से ये 39 सीटें बहुत मायने रखती हैं। फिर भी देखना होगा कि यह नया संगठन कितना कारगर हो पाता है। फिलहाल तो कांग्रेस मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व और उनकी सरकार के कार्यों के बूते आश्वस्त नजर आती है।
राजस्थान और मध्य प्रदेश इस चुनाव के हॉट स्टेट बने हुए हैं। छत्रपों को साधे रखने की कवायद भी इन्हीं दो राज्यों में अधिक दिख रही है। राजस्थान में तीन दशक से हर पांच साल पर सरकार बदलने की उम्मीद पाले भारतीय जनता पार्टी अपने अंतर्विरोधों से उबरती दिखने लगी है। प्रारम्भ में ऐसा लगा कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को पार्टी दरकिनार करने की कोशिश में है। पांच बार विधायक और पांच बार सांसद रही मध्य प्रदेश के ग्वालियर राजघराने की बेटी और राजस्थान में धौलपुर राजघराने की बहू वसुंधरा की पिछले दिनों पार्टी में अनदेखी बढ़ गयी थी। वर्ष 2018 में जहां वह राज्य की एकमात्र छत्रप दिख रही थीं, चुनाव में सरकार जाने के बाद उनकी पूछ कम हो चली थी। उनके भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया अब कांग्रेस से निकलकर भाजपा में हैं। वे केंद्र सरकार में मंत्री हैं। स्वाभाविक तौर पर कार्यकर्ताओं का हुजूम भी उनके साथ है। हालांकि वह मध्य प्रदेश से हैं।
राजस्थान में वसुंधरा की यह स्थिति उनकी अपनी खास जगह के कारण ही बनी। आम तौर पर बेलौस राजनेता समझी जाने वाली यह ‘रानी’ राजपूतों के कुल में जन्मीं, सिख परिवार में ब्याही और जाट राजघराने की स्वामिनी होने के कारण राजस्थान के कई क्षेत्रों में असर रखती हैं। राज्य का शेखावटी हो या फिर ढूंढाड़, नहरी क्षेत्र हो या फिर हाड़ोती. इसी तरह ब्रज-डांग हो या फिर मेवाड़-मारवाड़ और बागड़, वसुंधरा के समर्थक हर जगह हैं। वसुंधरा के सत्ता से बाहर होने के बाद भी भाजपा हाईकमान राज्य में अपने मन का राज्य अध्यक्ष नहीं बना पाया था। इसे मोदी-शाह की शख्सियत को चुनौती की तरह देखा गया। उन्हें राजस्थान की राजनीति से हटाकर पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया। इसके बावजूद उन्होंने राजस्थान में अपनी दखल कम नहीं होने दी। एक बार उन्होंने कहा भी कि राजस्थान में उनकी डोली आई है और यहां से उनकी अर्थी ही जायेगी। यह भावुकता में भले कहा गया हो, वसुंधरा ने इसे वक्त के साथ साबित भी किया है। इस बार उम्मीदवारों की सूची में उनके समर्थक बड़ी संख्या में दिखने लगे हैं। हाल यह रहा कि 83 उम्मीदवारों की दूसरी लिस्ट में 27 अकेले वसुंधरा समर्थक ही थे। केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को वसुंधरा के मुकाबले पार्टी में महत्व अधिक मिलने लगा था। हाल यह है कि अंत में शेखावत को सीमा में रखते हुए वसुंधरा को मौका देने के कुछ संकेत तो हैं।
राजस्थान में तो कांग्रेस भी अपने अंतर्विरोधों से दो-चार हो रही है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच तनाव कांग्रेस अध्यक्ष पद पर मल्लिकार्जुन खड़गे के आने के बाद कुछ थमा था। अब अशोक गहलौत ने यह बयान देकर विवाद को फिर हवा दे दी है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तो वे छोड़ना चाहते हैं, पर यह कुर्सी ही उन्हें नहीं छोड़ती। पायलट का यह बयान भी अर्थपूर्ण था कि मुख्यमंत्री का फैसला तो पार्टी नेतृत्व करेगा। बहरहाल, राज्य कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के घर ईडी का छापा और स्वयं मुख्यमंत्री गहलोत के बेटे वैभव गहलोत को समन मिलने के बाद पार्टी नेता भाजपा पर हमलावर हुए तो इस दौरान खटास कुछ कम हुई। कांग्रेस के अंदर खटास कम होने और भाजपा में वसुंधरा की ताकत कायम होते देख बाकी नेताओं के रुख पर भी राज्य विधानसभा चुनाव के परिणाम निर्भर करेंगे।
मध्य प्रदेश का हाल भी राजस्थान की ही तरह है। कहा जा रहा है कि राज्य विधानसभा के चुनाव में केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को उम्मीदवार बनाए जाने से समझा गया कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पर काटे जा रहे हैं। उम्मीदवारों की सूची का भाजपा कार्यकर्ताओं ने कई जगह जमकर विरोध भी किया। इसे संभालने के लिए पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को हस्तक्षेप करना पड़ा। उधर कांग्रेस में भी कमलनाथ और दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के विरोधाभासी बयान से पार्टी के शुभचिंतक काफी खफा हो गए। बड़ा मामला समाजवादी पार्टी अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का है। वे मध्य प्रदेश में विपक्षी गठबंधन के तहत अपने उम्मीदवार भी उतारना चाहते थे। यह संभव नहीं हुआ तो उन्होंने इसका जवाब उत्तर प्रदेश में देने की ही बात नहीं की, बल्कि मध्य प्रदेश के इस चुनाव में अपने उम्मीदवार भी उतार दिए। उनका कहना है कि कमलनाथ ने उन्हें सीटें देने का वादा किया था। बाद में बिहार के मुख्यमंत्री और आइएनडीआइए यानी इंडिया गठबंधन के सूत्रधार माने गए नीतीश कुमार ने भी वहां अपनी पार्टी जदयू के प्रत्याशी उतारने का ऐलान किया। इससे विपक्षी गठबंधन में दरार का हवाला देकर भाजपा को हमलावर होने के मौके मिल रहे हैं। कुल मिलाकर पांच राज्यों में से तेलंगाना सहित चार राज्य ऐसे हैं, जहां क्षेत्रीय छत्रप इस बार भी अपना असर दिखाते लग रहे हैं।
महंत रामसुंदर दास पर कांग्रेस का दांव
कांग्रेस में साधु-संत न सिर्फ मौजूद हैं, बल्कि राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय भी हैं। पार्टी ने छत्तीसगढ़ में रायपुर शहर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र से दूधाधारी मंदिर के महंत रामसुंदर दास को अपना प्रत्याशी बनाया है। छत्तीसगढ़ के लोग महंत रामसुंदर दास को बखूबी जानते हैं। वे गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष पद पर हैं।
महंत बलभद्र दास जी द्वारा स्थापित दूधाधारी मठ की बहुत अधिक प्रतिष्ठा है। उनकी परंपरा में वैष्णव धारी जी प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी हुए हैं। आम तौर पर महंतों को अपने निर्णय पर उच्च समिति को विश्वास में लेने की परंपरा को भी उन्होंने दरकिनार कर दिया था। संत वैष्णव धारी ने कहा था कि देश की आजादी के लड़ने के लिए किसी अनुमति की जरूरत नहीं है।