- रोहिणी आयोग ने 6 साल बाद सौंपी रिपोर्ट
- 2633 पिछड़ी जातियों में से 1977 को नहीं मिला आरक्षण का लाभ
- ओबीसी ने क्यों कर रखी है राजनीतिक दलों की नींद हराम
- ’2011 की जातिगत मतगणना के आंकड़ों का क्या रहा
अमित नेहरा, नई दिल्ली।
जाति है कि जाती ही नहीं, यह वाक्यांश हम सभी ने बहुत दफे सुन रखा है। इस देश ( country)में कोई व्यक्ति अपना धर्म तो बदल सकता है लेकिन वह चाह कर भी अपनी जाति नहीं बदल सकता। यहाँ तक कि कानून और संविधान (constitution) भी इसकी इजाजत नहीं देता। यह भी अटल सत्य के रूप में स्थापित हो गया है कि आजादी के बाद भरसक प्रयासों और प्रोत्साहनों के बावजूद भी सरकार(government) किसी भी जाति का दलितपना या पिछड़ापन दूर नहीं कर पाई है।
राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बनती जा रही हैं कि अब तो देश की अगड़ी समझी जाने वाली कमोबेश हर जाति अपने आपको पिछड़ी जातियों की लिस्ट में शामिल करवाने के लिए आतुर है। इस होड़-दौड़ का हर राजनीतिक दल फायदा उठाना चाह रहा है और देश में जाति आधारित जनगणना की मांग जोर शोर से की जा रही है। बिहार में तो यह जनगणना शुरू भी हो चुकी है। देर-सवेर हर राज्य में यह मांग जोर पकड़ने वाली है। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण का लाभ कुछ चुनिंदा वर्गों द्वारा उठाने पर इससे जुड़ी विसंगतियों में सुधार के लिए गठित रोहिणी आयोग ने 6 साल बाद हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंपी(Report submitted ) है।
इस विशेष रिपोर्ट में ओबीसी आरक्षण, रोहिणी आयोग व राजनीतिक दलों पर पड़ने वाले इसके प्रभाव की चर्चा करेंगे। गौरतलब है कि 29 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया। इसने लोगों को ‘शैक्षणिक रूप से पिछड़े’ के रूप में चुनने के लिए मानदंड निर्धारित किए। इसने सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थितियों व पृष्ठभूमि अध्ययन किया।
इसके बाद बीपी मंडल की अध्यक्षता में 1979 द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया। मंडल आयोग ने पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए ग्यारह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक संकेतकों का उपयोग किया। मंडल आयोग द्वारा सिफारिश की गई कि ओबीसी के सदस्यों को केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के तहत नौकरियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए।
जाति के आधार पर आरक्षण खतरा देखते हुए काका कालेलकर कमीशन की रिपोर्ट नहीं मानी गई। मंडल कमीशन की रिपोर्ट भी 10 साल लटकी रही, क्योंकि सरकारों को डर था कि जाति के आधार पर आरक्षण लागू हुआ तो फिर जातियों के बीच तलवारें खिंचनी तय है। लेकिन 1990 में केंद्र की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया। ओबीसी वोट बैंक की राजनीति ने तत्कालीन भाजपा को एक बार तो हाशिये पर डाल दिया था। साल 1990 के बाद भाजपा को मंडल की राजनीति का मुकाबला करने के लिए बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा था और पार्टी ने इसकी काट हिंदुत्व के रूप में खोजी।
रोहिणी आयोग
ओबीसी जातियों के वर्गीकरण की बहस के चलते केंद्र सरकार ने 2 अक्टूबर, 2017 को ओबीसी की केंद्रीय लिस्ट को बांटने के मकसद से दिल्ली हाईकोर्ट की रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी के नेतृत्व में रोहिणी आयोग गठित कर दिया।
रोहिणी आयोग को सरकार ने तीन काम सौंपे
1. ओबीसी के अंदर अलग-अलग जातियों और समुदायों को आरक्षण का लाभ कितने असमान तरीके से मिल रहा है इसकी जांच करना।
2. ओबीसी के बंटवारे के लिए तरीका, आधार और मानदंड तय करना।
3. ओबीसी के उपवर्गों में बांटने के लिए उनकी पहचान करना।
रोहिणी आयोग के कार्यकाल को 13 बार बढ़ाया गया है। माना जा रहा था कि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार इसे और लंबा खींचना चाहती थी। माना जा रहा है कि रिपोर्ट को बेहतर बनाने के लिए आयोग को लगातार विस्तार दिया गया क्योंकि इसकी टिप्पणियों से भाजपा के ओबीसी वोट बैंक में गड़बड़ी हो सकती है। यही वोट बैंक लोकसभा चुनाव में भाजपा के पूर्ण बहुमत का आधार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद भी इसी समुदाय से हैं।
लेकिन विपक्षी दलों द्वारा गठित मोर्चे इंडिया से इस मुद्दे पर एनडीए को बहुत बड़ा राजनीतिक झटका लग गया। क्योंकि इंडिया गठबंधन बार-बार रोहिणी आयोग की रिपोर्ट पेश करने और पूरे देश में जातिगत जनगणना करवाने की मांग कर रहा था।
ऐसे में अचानक ही रोहिणी आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी। आयोग की रिपोर्ट बेहद हैरान करने वाली है। इसके अनुसार कि देश की 2633 ओबीसी जातियों-उपजातियों में से 983 जातियों को नौकरी या पढ़ाई में ओबीसी आरक्षण का शून्य लाभ मिला है। इसी तरह से 994 जातियों को नौकरी और पढ़ाई में केवल 2.68 परसेंट हिस्सेदारी मिल पाई है।
आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाया, उन्हें आरक्षण का लाभ कैसे दिया जाए?
हाल ही में राष्ट्रीय राजनीति ने जो करवट ली है उसने सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी की नींद हराम कर दी है। 2019 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों के अनुसार एनडीए के पास 25 करोड़ वोटर थे और इंडिया के पास भी इतने ही वोटर थे। मतलब कागजी आंकड़ों के अनुसार दोनों गठबंधन बराबरी पर खड़े हैं। यही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए चिंता का विषय है। रोहिणी आयोग की रिपोर्ट अचानक राष्ट्रपति के पास आना संयोग भी हो सकता है और प्रयोग भी।
समझा जा रहा है कि एनडीए इन वंचित पिछड़ी 1977 जातियों के साथ सामाजिक न्याय करके वोट हासिल कर सकती है। ऐसा करने से उसे इन ओबीसी जातियों के वोट से अपने वोट बैंक का विस्तार करने में मदद मिल सकती है।
नए वोट बैंक में सहायक होगा फार्मूला?
कहा जा रहा है कि रोहिणी आयोग कुल 2633 ओबीसी जातियों की चार श्रेणियां बनाने के पक्ष में है। इस समय ओबीसी का कुल आरक्षण 27 परसेंट है। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार रोहिणी आयोग ने सिफारिश की है कि इसमें से पहली श्रेणी को 10 परसेंट दूसरी श्रेणी को नौ, तीसरी श्रेणी को छह और चौथी श्रेणी को दो परसेंट आरक्षण दे दिया जाए। सबसे नीचे की श्रेणी में सबसे पिछड़ी 1674 जातियां रखी गई हैं, जिन्हें अभी तक आरक्षण से कोई लाभ नहीं हुआ है।
पर यह दोधारी तलवार है
अगर आयोग ने वास्तव में ऐसी सिफारिशें की हैं, तो एनडीए सरकार ओबीसी के बड़े वर्ग को अपने साथ ले सकती है, पर इससे खतरा यह है कि पिछड़ों में अगड़ा वर्ग एनडीए से नाराज हो सकता है क्योंकि उनका कोटा 27 परसेंट की जगह 10 परसेंट ही रह जाएगा। दूसरी बात यह है कि महा पिछड़ी जातियों को भले ही अभी तक कोई भी लाभ नहीं मिला हो, उन्हें दो परसेंट आरक्षण देने से वे भी खुश नहीं होंगे!
इंडिया गठबंधन बम-बम
इंडिया गठबंधन को उम्मीद है कि बिहार में ओबीसी गणना के साथ ही उनकी ओबीसी राजनीति एनडीए खासकर नरेंद्र मोदी परभारी पड़ सकती है। मंडल आयोग ने 1911 की जनगणना के हिसाब से देश में 52 फीसदी ओबीसी होना माना था और 27 फीसदी आरक्षण दिया गया, इस समय देश में ओबीसी की संख्या कितनी है, यह किसी को पता नहीं। एक अध्ययन के अनुसार, देश में ओबीसी की जनसंख्या लगभग 45 परसेंट है। इंडिया का जोर मोदी सरकार पर ओबीसी आरक्षण 27 परसेंट की जगह बढ़ाकर 45 परसेंट करने का रह सकता है। इससे एनडीए खासकर नरेंद्र मोदी की राजनीति को प्रभावित किया जा सकता है क्योंकि मोदी अपने आपको ओबीसी वोट बैंक से जोड़कर दिखाते हैं।
उधर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना की मांग के साथ-साथ आरक्षण में बदलाव की मांग की है। नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस मांग को लेकर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है कि बिना आंकड़ों के सामाजिक न्याय के कार्यक्रम अधूरे हैं। बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल पहले से ही जातिगण जनगणना की मांग कर रहे हैं, यूपी में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी इस मांग को उठाती रही है। आम आदमी पार्टी ने भी जातिगण जनगणना की मांग काफी दिनों से कर रखी है।
भड़क सकती है जातियों की नाराजगी
अगर रोहिणी आयोग की सिफारिशें लागू कर दी गईं तो देश में जाति के आधार पर आरक्षण की आग कहीं भी, किसी भी वक्त भड़क सकती है। खासकर जातिगत जनगणना के बाद ये शोर मचना निश्चित है कि जिसकी जितनी जनसंख्या है उसको उतनी ही हिस्सेदारी मिले। आपको याद होगा कि आंध्रप्रदेश में कापू, राजस्थान में गुर्जर, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार और हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था।
लेकिन, आरक्षण में हिस्सेदारी बढ़ाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट कर चुका है कि किसी भी सूरत में आरक्षण 50 परसेंट से अधिक नहीं हो सकता।
बिहार बनेगा रोल मॉडल ?
बिहार में इस साल जनवरी में जातीय जनगणना के पहले चरण में राज्य भर के करीब दो करोड़ 59 लाख परिवारों की सूची तैयार की गई थी। जातिगत जनगणना का दूसरा चरण 15 अप्रैल से शुरू होकर 15 मई को खत्म होना था, लेकिन मई के पहले सप्ताह में पटना हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। इसी महीने एक अगस्त को हाईकोर्ट ने यह रोक हटा दी और इस पर काम फिर शुरू हो गया है। हालांकि इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने सात अगस्त 2023 को कहा है कि इससे जुड़ी सभी याचिकाओं की सुनवाई 14 अगस्त 2023 को होगी। अगर कोई कानूनी रोक न लगी तो अगस्त 2023 में ही इस कास्ट सर्वे की रिपोर्ट तैयार हो सकती है।
गौरतलब है कि बिहार, देश में राजनीतिक-सामाजिक चेतना में अग्रणी रहा है। अगर बिहार में जातीय जनगणना सम्पन्न हो गई तो देश के दूसरे राज्यों पर इस तरह की जनगणना करवाने का दबाव बढ़ेगा।
चलते-चलते
भारत में पहली 1881 में जनगणना हुई थी, तब देश की आबादी 25.38 करोड़ थी। उसके बाद हर 10 साल पर जनगणना हो रही है। काबिलेगौर है कि 1881 से 1931 तक जातिगत जनगणना हुई। वर्ष 1941 में जातियों के आंकड़े जुटाए गए, लेकिन इन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। इसके बाद आजादी मिलने पर 1951 में जनगणना हुई थी। तब सरकार ने तय किया कि सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही जुटाए जाएंगे। इसके बाद से केवल एससी और एसटी के आंकड़े ही जारी होते हैं।
वर्ष 2011 में यूपीए सरकार ने जातिगत जनगणना कराई थी, उस समय लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने जातीय जनगणना की मांग उठाई। तब केंद्र की कांग्रेस सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना कराने का फैसला लिया था। उस सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के लिए करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। मोदी सरकार ने 2016 में इस जनगणना के जातियों को छोड़कर बाकी सारे आंकड़े जारी कर दिए थे। राहुल गांधी अब बार-बार कह रहे हैं कि वर्ष 2011 में हुई जनगणना के सभी आंकड़े जारी किए जाएं।