पर्यावरण के अनुकूल हो विकास

हिमालयी क्षेत्र में विकास के नाम पर हो रही विनिर्माण गतिविधियों, हाइड्रो पावर प्रोजेक्टस, लंबे चौड़े राजमार्गों के निर्माण, पहाड़ों के अवैध खनन और जंगलों की कटाई, टूरिज्म और अत्यधिक धार्मिक टूरिज्म  की होड़ ने समूचे हिमालय के इकोसिस्टम को बुरी तरह प्रभावित किया है..

धर्मपाल धनखड़

हिमालयी राज्यों हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड (Uttarakhand ) में 12,13 व 14 अगस्त को हुई भारी बारिश, बादल फटने, भूस्खलन तथा नदी नालों में उफान के चलते 54 लोगों की मौत हो गयी और करीब 35 लोग लापता हैं। मरने वालों में तीन उत्तराखंड के भी हैं। इससे ठीक एक महीना पहले भी हिमाचल और उत्तराखंड में बारिश ने तांडव मचाया था। बारिश (rain)के कारण हिमाचल में भारी तबाही हुई थी। हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में भी कई इलाकों में बाढ़ के हालात बन गये थे। उस समय भी 145 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। हिमालयी राज्यों में हो रहे बारिश के तांडव को महज प्राकृतिक आपदा कह कर नहीं टाला जा सकता है।

चाहे वो दस साल पहले की केदारनाथ त्रासदी हो, जोशीमठ (Joshimath ) का धंसना हो या फिर पिछले साल चमोली जिले में ऋषि गंगा नदी में ग्लेशियर के फूटने से हुई त्रासदी हो ये सभी अंधाधुंध, अवैज्ञानिक और बेतरतीब विकास की देन हैं। हिमालयी क्षेत्र में विकास के नाम पर हो रही विनिर्माण गतिविधियों, हाइड्रो पावर प्रोजेक्टस, लंबे चौड़े राजमार्गों के निर्माण, पहाड़ों के अवैध खनन और जंगलों की कटाई, टूरिज्म और अत्यधिक धार्मिक टूरिज्म  की होड़ ने समूचे हिमालय के इकोसिस्टम को बुरी तरह प्रभावित किया है। इसके चलते 13 हिमालयी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पांच करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए हिमालय रहने के हिसाब से  असुरक्षित बना दिया गया है। साथ ही मैदानी राज्यों को भी प्राकृतिक आपदा की जद में लाकर खड़ा कर दिया है।

मैदानी इलाकों की तरह हिमालय के पहाड़ी राज्यों में भी जनसंख्या विस्फोट हुआ है। बढ़ती आबादी के लिए रोजी-रोटी, शिक्षा-चिकित्सा और आवागमन के साधनों समेत तमाम जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करवाने का दबाव हिमालयी राज्यों की सरकारों पर भी है। इसके लिए उन्हें अपने स्तर पर भी संसाधन जुटाने होते हैं। इसका सीधा और सरल उपाय टूरिज्म और धार्मिक पर्यटन (Religious Tourism )को बनाया गया। समूचे हिमालय में फैले विभिन्न मंदिरों में लोगों की भीड़ को आकर्षित करने के लिए दुर्गम पहाड़ी रास्तों को सुगम बनाने के लिए चौड़ी सड़कें बनायी गयी। पर्यटकों के ठहरने के लिए कंक्रीट और स्टील के बहुमंजिला होटल और गेस्ट हाउस बने। गेस्ट हाउसों के कमरों को गैस और बिजली से गर्म रखा जाने लगा। रोजगार और राजस्व बढ़ाने के लिए बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं बनायी जाने लगी। उत्तराखंड में तो चार धाम यात्रा को बढ़ावा देने के लिए आल वेदर रोड़ बनाया गया। इसके लिए पर्यावरण अनापत्ति लेने हेतु सर्वोच्च न्यायालय में धार्मिक आस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला भी दिया गया। बड़ी-बड़ी रेल परियोजनाएं भी शुरू की गयी। लेकिन इनके निर्माण में ना तो परिस्थितिकी और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया गया। ना ही सड़के चौड़ी करने, टनल बनाने वास्ते पहाड़ काटने और तोड़ने के लिए निर्धारित मानकों का ध्यान रखा गया। इससे निकले पहाड़ के मलबे का निस्तारण सही ढंग से करने की बजाय यूं ही खाइयों में फेंक दिया गया। इससे पानी निकासी के प्राकृतिक रास्ते बंद हो गये। जिसके परिणामस्वरूप बारिश आपदा का रूप धारण करने लगी।

इससे ना केवल हिमालयी क्षेत्रों में तबाही हो रही है, बल्कि नदियों के उग्र रूप धारण करने से मैदानी इलाकों में भी बाढ़ की विभिषिका देखने को मिल रही है। इसके अलावा हिमालयी क्षेत्र में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, नदियों और पहाड़ों में अवैध और अवैज्ञानिक खनन बदस्तूर जारी है। नदियों में उफान आने, चट्टानों के खिसकने, भूस्खलन और भू-धंसाव की घटनाएं बढ़ रही हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों में बेशक पर्यटन और धार्मिक पर्यटन हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर की तरह नहीं बढ़ा है। लेकिन पहाड़ों और नदियों में अवैध खनन, कंक्रीट के ऊंचे भवनों व चौड़ी सड़कों का निर्माण बेतरतीब जारी है।

आज सबसे जरुरी है कि हिमालयी राज्यों में विकास परियोजनाओं, वे चाहे बहुमंजिला भवनों का निर्माण हो, सड़कों को चौड़ा करना हो या पनबिजली परियोजनाएं हों सबका पर्यावरणीय आकलन अनिवार्य रूप से होना चाहिए। साथ ही निर्माण में निर्धारित मानकों का सख्ती से पालन सुनिश्चित किया जाये। रोजगार देने वाली योजनाएं भी पर्यावरण के अनुकूल होनी चाहिए।

वनों की अवैध कटाई को रोकने के लिए चिपको जैसा आंदोलन चलाने की आज महत्ती जरूरत है। साथ ही राजस्व उगाही का दबाव हिमालयी राज्यों की सरकारों पर कम किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को हर साल बजट में हिमालयी राज्यों के लिए विशेष प्रावधान किया जाना जरूरी है।

समूचे हिमालयी क्षेत्र के विकास के लिए विस्तृत अध्ययन के आधार पर पर्यावरण और प्रकृति के अनुरूप समग्र नीति बनायी जाये और उसका सख्ती से पालन भी किया जाना चाहिए। इसमें राजनीति का दखल नहीं होना चाहिए। हिमालय के कारण ही देश में जलवायु विविधता कायम है। यहीं से जीवनदायिनी सदा  नदियां निकलती हैं। इसलिए हिमालय को बचाना  ना केवल सरकार बल्कि हर भारतीय का कर्तव्य है।

Leave a Reply