प्रेमलता बहन परमात्मा की रूहानी बेटी!

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
जीवन समर्पित किया ईश्वर को
ईश्वरीय ज्ञान की संवाहक बनी
साधु-संतों को भी ज्ञान दिया
अबोध को ज्ञान का एहसास दिया
ईश्वरीय याद में सदा रहती थी प्रेम
 सबको अपना बना लेती थी प्रेम
शांति स्वरूपा, ब्रह्मा की लाडली
सदकर्म करने को रहती उतावली
बचपन से अच्छा करने की ललक
योग में पहुंचती परमात्मा तलक
अनूठा था उनका तपस्विनी जीवन
सबके लिए प्रेरक प्रेम का जीवन।
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के धर्म प्रभाग की चेयरपर्सन रही राजयोगिनी प्रेमलता बहन का यह सौभाग्य रहा कि उन्हें बचपन से ही ईश्वरीय ज्ञान मिलना शुरू हो गया था।वे बचपन से  ही ब्रहमाकुमारीज संस्था से जुड़ गई थी। 18 जनवरी 1940 में जन्मी  प्रेम लता बहन को सन 1952 में ईश्वरीय ज्ञान मिला और सन 1956 में वे इस ज्ञान के सागर में जीवनभर के लिए समर्पित ही गई। ब्रह्माकुमारी प्रेमलता के अंदर ब्रहमाकुमारीज संस्था के संस्थापकब्रहमा बाबा ने  ईश्वर के प्रति मधुर मिलन की ललक देखी, तो उन्होंने उन्हें अपने सानिध्य में ले लिया। ब्रहमा बाबा चाहते थे, कि परमात्मा शिव का ईश्वरीय ज्ञान भक्ति मार्ग के साधु संतों को भी मिले।जिसके लिए उन्होंने ब्रहमाकुमारी प्रेमलता बहन को इस ईश्वरीय सेवा के लिए
निमित्त बनाया और उन्हें हरिद्वार में जाकर साधू संतों को ईश्वरीय ज्ञान बांटने की सेवा दी। सचमुच बहुत कठिन परीक्षा थी ब्रहमाकुमारी प्रेमलता के
लिए, क्योंकि जिन साधू संतों को ईश्वरीय ज्ञान देने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई, वें साधू संत तो स्वयं को सर्वज्ञानी मानते हैं। फिर भला वें एक बालिका से कैसे ज्ञानार्जन करना स्वीकार कर सकते थे। लेकिन प्रेमलता
के लिए ब्रहमा बाबा का आदेश ही सर्वोपरि रहा, चाहे उसमें कितनी भी कठिनाई क्यों न हों। वें हरिद्वार आई और उन्होंने हरिद्वार के आश्रमों में जाकर साधू संतों से सम्पर्क साधना आरम्भ किया।
 आरम्भ में साधू संत उनसे मिलना भी गंवारा नहीं समझते थे और यदि मिल भी जाते तो प्रेमलता को छोटी बच्ची समझ कर स्वयं ही भक्ति मार्ग का ज्ञान उन्हें देने लगते। लेकिन साधू संतों की बातों को सुन मंद मंद मुस्काती प्रेमलता के चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं आई और जब साधू संतों की बात समाप्त हो जाती या फिर यदि वें क्रोध में होते तो उनका क्रोध शांत हो जाता, तब बड़े ही सहज भाव से प्रेमलता ईश्वरीय ज्ञान का उन्हें ऐसा पाठ पढ़ाती, कि साधू संत उनके सामने नतमस्तक हो जाते। 
बड़े होने तक वे आध्यात्मिक रूप से इतनी सम्रद्ध हो गई कि उनकी साधना,उनके चेहरे के तेज और उनके सेवा भाव को देखकर बड़े से बड़े संत, महात्मा, साधु उनके सामने नतमस्तक हो जाते थे।
परमपिता परमात्मा शिव की लाडली बेटी प्रेमलता जीवनपर्यंत प्रेम ही बांटती रही। प्रजापिता ब्रह्मा बाबा की पालना लेकर ब्रह्माकुमारीज् संस्था प्रमुख प्रकाशमणि दादी व दादी जानकी के सानिदय में रही प्रेम लता बहन ईश्वरीय ज्ञान की दिव्य विभूति मानी जाती थी। जो भी उनसे मिलता उनसे प्रभावित हुए बिना नही रहता।यहां तक कि उनके मार्गदर्शन के कारण कइयो के जीवन की दिशा ही बदल गई।उन्ही के प्रयासों से कुछ ईश्वरीय ज्ञान यज्ञ का हिस्सा बन गए तो कुछ जो व्यसनों के आदी थे, सदा के लिए व्यसनों से मुक्ति पा गए।हमेशा दूसरे के चेहरे की मुस्कुराहट के लिए वे शांत भाव खुश रहने व खुशी बांटने का संदेश देती थी। 
प्रेम लता बहन कहती है,अपनो का अपनो के ही विरुद्ध युद्ध कैसे धर्म युद्ध हो सकता है।महाभारत के सूत्रधार योगीराज श्रीकृष्ण क्यो अपनो से ही अपनो को युद्ध के लिए प्रेरित करते और उनके मुख से परमात्मा ही क्यो गीता का उपदेश देकर उक्त युद्ध होने देते?सच यह है कि जो परमात्मा हमारा पिता है,जो परमात्मा हमारा सद्गुरु है ,जो परमात्मा हमारा हमारा शिक्षक है,वह हमें क्यो अपनो के ही विरुद्ध युद्ध करने के लिए आत्मा के अजर अमर होने का रहस्य समझाएंगे।वास्तविकता यह कि यह युद्ध अपनो ने अपनो के विरूद्ध किया ही नही ,बल्कि अपने अंदर छिपे विकारो के विरुद्ध यह युद्ध लड़ने की सीख दी गई।यानि हमारे अंदर जो रावण रूपी,जो कंस रूपी, जो दुर्योधन रूपी ,जो दुशासन रूपी काम,क्रोध, अहंकार, मोह,लोभ छिपे है, उनका खात्मा करने और हमे मानव से देवता बनाने के लिए गीता रूपी ज्ञान स्वयं परमात्मा ने दिया ।इसी ज्ञान की आज फिर से आवश्यकता है।तभी तो परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय जैसी संस्थाओं के माध्यम से कलियुग का अंत और सतयुग के आगमन का यज्ञ रचा रहे है।प्रेमलता बहन  जब भी अपने देहरादून या हरिद्वार व या फिर रुड़की आदि सेवा केंद्रों पर रहते हुए केंद्र के भाई बहनों से मिलती तो लगता जैसे वें सभी भाई बहनों के ऊपर स्नेह वर्षा कर रही हो।वे परमात्म ज्ञान के साथ-साथ सदाचार जीवन का पाठ भी विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से पढ़ाती रही। भाई बहनों से हमेंशा पूछती  कुछ खाया या नहीं और  आश्रम के अन्य भाई बहनों के बारे में भी कुशलक्षेम जरूर पूछती रहती।
 एक बार प्रेमलता बहन ने एक किस्सा सुनाया, बोली भाई, एक दिन हमारे आश्रम में एक वृद्ध दम्पत्ति आए और बोले, बहन जी घर में धन सम्पत्ति आभूषण आदि बहुत है और हमें डर लगता है कि कोई हमारी हत्या न कर दे। जिसकारण हमें रात को नींद भी नहीं आती और दिन भी तनाव के साथ ही बीतता है,कोई उपाय बताईये, मैंने कहा कि बस, इतनी सी बात ऐसा करो घर में जितना भीरुपया पैसा और आभूषण है उन्हें एक पोटली में बांधकर किसी नदी या नहर में डाल आओ, आपकी सारी चिन्ताऐं और डर समाप्त हो जाएगा। दम्पत्ति बोले बहन जी यह आप क्या कह रही हो? हम ऐसा कैसे कर सकते हैं। वो धन-सम्पदा तो हमारी
अपनी है। हम उसे नदी या नहर में कैसे डाल सकते हैं? लेकिन जब बहन जी ने उन्हें कहा कि यह धन-सम्पदा के प्रति बेवजह के मोह ने ही आपके सुख चैन को हर लिया है। इससे मोह छोड़ दोगे तो जीवन खुशियों भरा हो जाएगा।
  एक बार उनके आश्रम में एक चोर घुस आया, लेकिन जब बहन जी ने उसे प्यार से बुलाकर
पूछा भाई क्या काम है?कोई तकलीफ तो नहीं, तो वह बिना चोरी किए माफी मांगकर
चला गया। प्रेमलता का खुशनुमा चेहरा, मीठी वाणी, शांत स्वभाव और हर वक्त
ईश्वरीय याद में रहना उनके जीवन के आभूषण रहे हैं।
प्रेम लता बहन जीवटता की धनी रही हैं। प्रेमलता बहन ने 11 जुलाई सन 2017 की शाम
8 बजे कुछ शारीरिक रूग्णता के चलते अपना शरीर छोड़ दिया था और ईश्वरीय गोद में चली गई थी।तब से उनकी यादे ही शेष रह गई है।उनका अचानक चले जाना सभी को हतपरभ कर गया था लेकिन लगता है उन्होने पहले ही परमधाम चलने की तैयारी कर ली थी।बहुत कम बोलना,ईश्वरीय याद में रहना और स्वयं को इस संसारिक दुनिया से पूरी तरह
विरक्त  कर लेना ,उनकी विरक्ति के संकेत थे।उनके जाने के बाद उनकी यादे हमे सन्मार्ग दिखा रही है और हम परमात्म ज्ञान पर निरन्तर चल सकने में सक्षम हो पा रहे है।जब जब भी राजयोगिनी प्रेमलता दीदी साधु संतों की सेवा के लिए हरिद्वार आती थी तो श्रीमद्भागवत गीता के वास्तविक रहस्य से साधु संतों को अवगत कराती थी,वे कहती थी,अपनो का अपनो के ही विरुद्ध युद्ध कैसे धर्म युद्ध माना जा सकता है।महाभारत के समय योगीराज श्रीकृष्ण क्यो अपनो से ही अपनो को युद्ध के लिए प्रेरित करते और उनके मुख से परमात्मा ही क्यो गीता का उपदेश देकर उक्त युद्ध होने देते?सच यह है कि जो परमात्मा हमारा पिता है,जो परमात्मा हमारा सद्गुरु है ,जो परमात्मा हमारा हमारा शिक्षक है,वह हमें क्यो अपनो के ही विरुद्ध करने करने के लिए आत्मा के अजर अमर होने का रहस्य समझाएंगे।वास्तविकता यह कि यह युद्ध अपनो ने अपनो के विरूद्ध किया ही नही ,बल्कि अपने अंदर छिपे विकारो के विरुद्ध यह युद्ध लड़ने की सीख दी गई।यानि हमारे अंदर जो रावण रूपी,जो कंस रूपी, जो दुर्योधन रूपी ,जो दुशासन रूपी काम,क्रोध, अहंकार, मोह,लोभ छिपे है, उनका खात्मा करने और हमे मानव से देवता बनाने के लिए गीता रूपी ज्ञान स्वयं परमात्मा ने दिया ।राजयोगिनी बीके प्रेमलता दीदी सन्तो के बीच जाकर पहले उनकी सुनती थी और फिर उन्हें बड़े सम्मान के साथ ईश्वरीय ज्ञान देने लगती।संत समाज के लोग भी प्रेम बहन के रूहानी आभामंडल में खोकर स्वयं को शिष्य समान समझने लगते और लगता जैसे प्रेम बहन हैड मास्टर के रूप में उन्हें धर्म और आध्यात्म का पाठ पढ़ा रही हो,वे कहती थी,आज भी हम परमात्मा शिव को पहचान नही पा रहे है।जबकि यह सच है कि कोई एक चेतन तत्व जिसे हम आत्मा कहते है, वह हमारे शरीर में रहकर शरीर की सभी गतिविधियों को संचालित
करता है। हमारी भृकुटि में  रहने वाली आत्मा शरीर में जो कुछ भी होता है उससे सदा अप्रभावित रहती है। यह चेतन तत्व रूपी सदा ही इतिहास के परे का सच
है। यदि चेतन तत्व यानि आत्मा का कनेक्शन परम तत्व यानि परमात्मा से जुड़ जाए तो यह तत्व संसार में जो कुछ भी हो रहा है उसे नियंत्रित तो नही कर सकता लेकिन दृष्टा अवश्य बन सकता है। राजयोगिनी ब्रह्माकुमारी प्रेमलता दीदी कहा करती थी कि राजयोगी वही जिसके बोल सदा मीठे हो, जिसे परमात्मा से प्यार हो और जीवन में जिसके दिव्य गुण हों। साथ ही वे बोलती,एक बार भगवान को साथी बनाकर देखो, जीवन मे आई सारी बाधाएं व सब समस्याएं खत्म हो जाएंगी।बस जरूरी यह है कि कुछ भी हो जाए लेकिन इंसान को अपनी सच्चाई नहीं छोड़ना चाहिए। वे कहती थी,शिव बाबा की शक्ति व राजयोग मेडिटेशन का ही कमाल है कि हम इंसान से देवता बन जाते है,पतित से पावन बन जाते है।राजयोग अभ्यास से प्रेम बहन ने अपने आप को इतना शसक्त बना लिया था कि वह सदा रूहानियत में दिखाई पड़ती थी । उनकी योग की ही पावर थी कि स्वास्थ्य खराब होने पर भी वे चलायमान रही और जीवन के आखिरी समय तक ईश्वरीय सेवा करती रही। उन्होंने ने ब्रह्माकुमारीज के धर्म प्रभाग की चेयरपर्सन के रूप में विश्वभर की 46 हजार से अधिक बहनों को प्रेरित किया और 12 लाख भाई- बहनों की आदर्श बनी रही। उनकी उपस्थिति मात्र से ही सभी भाई बहनों में उत्साह भर जाता था। तभी तो वे विश्व विद्यालय की शान और जान रही ।

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