बिछ गई बिसातें

  • कांग्रेस कर्नाटक विजय से बम-बम
  • भाजपा के पास है केन्द्र का दम
  • अब मध्यप्रदेश, राजस्थान व
  • छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव पर मंथन

अमित नेहरा, नई दिल्ली।

इस साल की शुरुआत फरवरी महीने में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड के विधानसभा चुनावों के साथ हुई। मई में कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी संपन्न हो गया है। इन चारों राज्यों के चुनाव में भाजपा, कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक दलों ने अपना चुनावी दमखम दिखा दिया है।

इसी साल नवंबर-दिसंबर में तीन और राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस-भाजपा के लिए ये तीनों राज्य बहुत ही अहम हैं। जहां मध्यप्रदेश में ऑपरेशन कमल के तहत कांग्रेस को उखाड़ कर भाजपा की सरकार सत्ता में काबिज है, वहीं राजस्थान और छतीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है।

मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों के नतीजे निश्चित रूप से आगामी 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों को भी प्रभावित करेंगे। इस विशेष रिपोर्ट में इन तीनों प्रदेशों की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों की चर्चा होगी।

मध्यप्रदेश

मध्यप्रदेश में कौन निकलेगा बीच में से
तीनों राज्यों में होने वाले चुनावों में विधानसभा सीटों के हिसाब से मध्यप्रदेश सबसे बड़ा है। इसमें कुल 230 विधानसभा सीटें हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 6 जनवरी 2024 को खत्म हो रहा है। नवंबर-दिसंबर 2023 में यहां विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। मध्य प्रदेश में पूर्ण बहुमत के लिए कुल 116 सीटों की जरूरत है।

इस समय मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चैहान की अगुवाई में भाजपा की सरकार है। बीच के केवल 15 महीने छोड़ दें तो भाजपा दिसंबर 2003 से मध्यप्रदेश में सत्ता पर काबिज है। वहीं, कांग्रेस 2003 से मध्यप्रदेश में सत्ता के लिए तड़प रही है। इस दौरान सिर्फ 15 महीने (17 दिसंबर 2018 से लेकर 23 मार्च 2020 तक) कांग्रेस यहां सत्ता में रही है।

2018 का चुनाव और ‘ऑपरेशन लोटस’

नवंबर 2018 में मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 114 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी, वो बहुमत से केवल दो सीटें दूर रह गई थी। दूसरी तरफ भाजपा, कांग्रेस से केवल 5 सीटें पीछे थी यानी उसे 109 सीटें मिलीं। 2018 के इस चुनाव में एक दिलचस्प आंकड़ा दिखाई दिया। भाजपा को कुल 41.02 फीसद वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 40.89 फीसद वोट हासिल हुए। कम वोट प्रतिशत के बावजूद कांग्रेस, भाजपा से 5 सीटें ज्यादा ले आई।
कमलनाथ के नेतृत्व में मध्य प्रदेश में 17 दिसंबर 2018 को कांग्रेस की सरकार बनी। लेकिन मार्च 2020 तक आते-आते मध्य प्रदेश की राजनीति में भूचाल आ गया। क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस को छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए। उनके साथ ही कांग्रेस के मौजूदा 22 विधायकों ने भी इस्तीफा देते हुए पार्टी छोड़ दी। इसके बाद 23 मार्च 2020 को मध्य प्रदेश में फिर से भाजपा की सरकार बन गई और शिवराज सिंह चैहान चैथी बार मुख्यमंत्री बन गए।

कर्नाटक चुनाव की तर्ज पर मध्य प्रदेश की बिसात

देखा जाए तो कर्नाटक व मध्य प्रदेश में राजनीतिक हालात बिल्कुल एक जैसे रहे हैं। दोनों प्रदेशों में सीटों की संख्या भी लगभग एक जैसी ही है। कर्नाटक में जहां 224 सीटें है, वहीं मध्य प्रदेश में इनकी संख्या 230 है। जिस तरह कर्नाटक ऑपरेशन लोटस के तहत कांग्रेस-जेडीएस के 17 विधायक इस्तीफा देकर बीजेपी में शामिल हो गए थे। उसी तरह मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में ऑपरेशन कमल हुआ, जिसके तहत कांग्रेस के 22 विधायकों (19 सिंधिया समर्थक) ने इस्तीफा देकर कमलनाथ सरकार गिरा दी थी।

कर्नाटक 2018
कुल सीटें 224
बहुमत – 113
भाजपा – 104
कांग्रेस- 78
जेडीएस- 37
अन्य-3
(दो सीटों पर चुनाव नहीं हुए थे)

मध्य प्रदेश 2018
कुल सीटें – 230
बहुमत – 116
कांग्रेस – 114
भाजपा-109
बीएसपी-2
सपा-1
अन्य-4
(उप चुनाव के बाद: भाजपा -127, कांग्रेस 96, बसपा 2, सपा 1 निर्दलीय 4)

कर्नाटक के परिणाम मध्यप्रदेश के लिए सबक

कर्नाटक में बगावत करके जिन 17 विधायकों ने 2019 में कांग्रेस-जेडीएस सरकार गिराई, उनमें से 14 को भाजपा ने टिकट दिया। उन 14 में से 8 चुनाव हार गए। मध्यप्रदेश में भी सिंधिया समर्थकों सहित कांग्रेस के 22 विधायक, मार्च 2020 में भाजपा में शामिल हो गए थे। इसके बाद कांग्रेस के 6 और विधायकों ने पार्टी छोड़ दी। उपचुनाव में 28 में से 9 हार गए थे, भाजपा पर इन्हें फिर से टिकट देने का दबाव रहेगा।

ओबीसी वोटर्स पर सेंधमारी

कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने एक रणनीति के तहत ओबीसी वोटर्स को साधा। राहुल गांधी ने जाति जनगणना के आंकड़े नहीं बताने का मुद्दा ओबीसी के अपमान से जोड़ कर उठाया। जबकि, भाजपा ने मोदी सरनेम मामले में राहुल की टिप्पणी को ओबीसी का अपमान बता कर कांग्रेस को घेरा, लेकिन इसका ज्यादा असर नहीं हुआ।

कांग्रेस के ओबीसी वर्ग के अधिकतर उम्मीदवार जीत गए। कर्नाटक की तरह मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में ओबीसी आरक्षण बड़ा मुद्दा होगा। प्रदेश में करीब 48 प्रतिशत ओबीसी मतदाता हैं। यहां लगभग 60 विधायक ओबीसी वर्ग से आते हैं। कमलनाथ सरकार ने ओबीसी आरक्षण को 14 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया था, लेकिन मामला अदालत में गया और 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण पर रोक लगा दी गई। भाजपा ने इसके लिए कांग्रेस को दोषी बता रही है। आगामी विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां ओबीसी वोटर्स को साधने के लिए इसे मुद्दा बनाएगी।
उधर, अंतरराष्ट्रीय हिंदू परिषद के अध्यक्ष डॉ. प्रवीण भाई तोगड़िया ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों को भाजपा के लिए वेकअप कॉल बताया है। उन्होंने कहा है कि राम मंदिर और बजरंग बली भी भाजपा को बचा नहीं पाए। यह चिंता की बात है।

भोपाल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में तोगड़िया ने कहा कि द केरला स्टोरी जैसी फिल्म बनना शर्म की बात है। भविष्य में ऐसी फिल्म न बने, इसलिए एंटी लव जिहाद और जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाए जाएं। उन्होंने सरकार को चेताया कि पेट्रोल सस्ता करो, बजरंग बली का नाम लिए बिना भी वोट मिल जाएंगे। उनके अनुसार, लोगों को रोजगार चाहिए।

महंगाई से मुक्ति चाहिए। दरअसल, कर्नाटक फतेह करने के बाद कांग्रेस, मध्य प्रदेश की सत्ता में वापसी के लिए पूरा जोर लगा रही है। पार्टी की कोशिश है कि इस बार उन्हीं उम्मीदवारों को टिकट दिया जाए, जिनके जीतने की संभावना ज्यादा हो। निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ी हैं।
उधर, भाजपा ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाले क्षेत्रों से पार्टी की सीटें बढ़ने की उम्मीद पाले हुए है। आरक्षित सीटों पर बढ़त बनाना, भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। मध्यप्रदेश में कुल 82 सीटें आरक्षित हैं। इनमें 35 सीटें एससी और 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं। वर्ष 2018 में भाजपा को इन 82 में से सिर्फ 27 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि 2013 में 53 सीटों पर भाजपा जीती थी। ऐसे में मध्यप्रदेश में जिस पार्टी को सत्ता प्राप्त करती है तो उसे इन आरक्षित सीटों को भी अपने पाले में लाना होगा।

राजस्थान

कांग्रेस के सामने भाजपा और पायलट दोहरी चुनौती
वर्ष 2018 में राजस्थान में हुए चुनावों में कांग्रेस ने 199 में से 100 सीटें जीत कर सरकार बना ली थी। पार्टी ने बाद में उपचुनाव में एक सीट (रामगढ़) जीती, जिससे उसकी संख्या 101 हो गई। इसके बाद, बसपा के छह विधायक पार्टी में शामिल हो गए, जिससे उनकी संख्या 107 हो गई जबकि भाजपा के 72 विधायक रह गए। कांग्रेस बहुमत के साथ सुखद स्थिति में थी। क्योंकि 107 विधायकों के साथ-साथ अन्य विधायकों का साथ भी उसके साथ था। भाजपा 72 विधायकों के साथ उलटफेर की स्थिति में नहीं थी। लेकिन प्रदेश की राजनीति में एक अलग ही खिचड़ी पक रही थी, कांग्रेस में नीचे ही नीचे असंतोष की आग धधक रही थी। आखिरकार, 2018 में मुख्यमंत्री पद से वंचित किए जाने के बाद से नाराज उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट जो राज्य कांग्रेस अध्यक्ष भी थे, ने जुलाई 2020 में खुलकर बगावत कर दी। उनके साथ, 19 कांग्रेस विधायक मुख्यमंत्री और पार्टी को धता बताते हुए विधायक दल की बैठकों से दूर हो गए। इस विद्रोह ने राजस्थान में कांग्रेस सरकार को गिरने के कगार पर ला दिया। सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खेमों के बीच यह लड़ाई करीब एक महीने तक चली और इसकी वजह से पायलट को उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पदों से हाथ धोना पड़ा।
इस भीषण राजनीतिक संकट में खुद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी बहन और पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी दोनों पायलट से मिले और उनकी वापसी की शर्तें तय हुईं।

इन बैठकों के बाद 10 अगस्त 2020 को कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने बयान जारी करके बताया कि पायलट ने राजस्थान में पार्टी और पार्टी की सरकार के हित में काम करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है और इसके साथ ही फौरी तौर पर संकट टल गया। लेकिन सचिन पायलट उसके बाद लगातार गहलोत सरकार को निशाने पर लिए हुए हैं। सचिन पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ मुखर हैं। हाल ही में पायलट ने वसुंधरा सरकार के भ्रष्टाचार को लेकर एक दिवसीय अनशन किया।

पेपर लीक और भ्रष्टाचार को लेकर पायलट ने जन संघर्ष यात्रा भी निकाली। कुल मिलाकर कांग्रेस को राजस्थान में कांग्रेस को भाजपा और सचिन पायलट दोनों के साथ निपटना पड़ रहा है।

भाजपा का राजस्थान में कांग्रेस वाला ‘कर्नाटक मॉडल’

भाजपा के स्टार प्रचारक व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के नौ साल का जश्न अजमेर में मनाने के तहत राजस्थान में चुनाव प्रचार की औपचारिक शुरुआत कर दी है। उधर, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जनता को डायरेक्ट बेनिफिट पहुंचाने वाली घोषणाएं करके चुनाव को दिलचस्प बना दिया है। दोनों पार्टियां अपने अपने तरीके से मुद्दे तलाश कर राजस्थान का विधानसभा चुनाव जीतने के प्रयास में जुट गई हैं।
कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा की बोम्मई सरकार को हराने के लिए कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया, जिसका चुनाव परिणाम में साफ असर दिखाई दिया। कर्नाटक में कांग्रेस ने बोम्मई सरकार के खिलाफ 40 प्रतिशत कमीशन का नारा दिया। अब राजस्थान में भाजपा भी गहलोत सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे को जोर शोर से उठाने की तैयारी में है।

इसी योजना के तहत राजस्थान भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी ने आरोप लगाया है कि अशोक गहलोत की सरकार में 50 प्रतिशत कमीशनखोरी है।
उधर, इन आरोपों का जवाब देने के लिए अशोक गहलोत लोकलुभावन घोषणाओं और जनता को डायरेक्ट बेनिफिट पहुंचाने वाली योजनाओं की बौछारें कर रहे हैं। महंगाई राहत योजना के तहत 6.57 करोड़ लोगों को गारंटी कार्ड बांटा जाना, 500 रुपये में एलपीजी सिलेंडर मुहैया कराने के लिए अब तक 49.50 लाख परिवारों का रजिस्ट्रेशन, 25 लाख तक मुफ्त इलाज के लिए 1.14 करोड़ पंजीयन, मुफ्त बिजली के लिए 82 लाख से ज्यादा कनेक्शनधारी रजिस्टर्ड, फ्री राशन, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा योजना, ओल्ड पेंशन स्कीम आदि अनेक घोषणाएं हैं जिसका अशोक गहलोत जोर शोर से प्रचार कर रहे हैं।

राजस्थान की राजनीति कांग्रेस और बीजेपी के रूप में मुख्यतः दो ध्रुवीय ही रही है। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में, हनुमान बेनीवाल ने आरएलपी नामक पार्टी का गठन कर लिया। आरएलपी तीन विधानसभा सीटें जीत गईं। आरएलपी ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया और एक लोकसभा सीट जीत ली लेकिन तीन कृषि कानूनों के मसले पर बेनीवाल भाजपा से अलग हो गए।
इधर, हनुमान बेनीवाल देश की स्टार महिला पहलवानों के साथ हुए दुर्व्यवहार से खासे मुखर हैं और इस मुद्दे को राजस्थान में जमीनी स्तर पर ले जा रहे हैं। आरएलपी को इस मुद्दे से निश्चित रूप से वोटरों में पैठ मिलेगी।

छत्तीसगढ़
कौन जीतेगा छत्तीसगढ़ का ‘गढ़’
मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ का गठन साल 2000 में हुआ था। राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने अजीत जोगी। इसके बाद 2003 में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए। इन चुनावों में भाजपा ने स्थानीय मुद्दों को उठाया और उसकी सरकार बन गई। इसके बाद 2018 तक राज्य में लगातार भाजपा ही काबिज रही। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया और कुल 90 में से 68 विधानसभा सीट लेकर सत्ता में जबरदस्त वापसी की।

धान का समर्थन मूल्य कांग्रेस के लिए मास्टर स्ट्रोक था और सही कसर किसान कर्ज माफी की घोषणा ने पूरी कर दी। इन मुद्दों से कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली।
आगामी विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने फिर से स्थानीय मुद्दों पर फोकस शुरू कर दिया है। छत्तीसगढ़ की 90 विधानसभा सीटों का दौरा करने के लिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल लगातार भेंट मुलाकात कार्यक्रम कर रहे हैं। बघेल स्थानीय मुद्दों पर फोकस कर रहे हैं। जैसे गोधन न्याय योजना और छत्तीसगढ़ महतारी की अस्मिता।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का फोकस ग्रामीण अर्थव्यवस्था है। इसके लिए गोधन न्याय योजना की शुरूआत की गई है। कई वनोपज के समर्थन मूल्य में वृद्धि भी की गई है। मिलेट्स प्रोडक्ट को बढ़ावा देने के लिए मिलेट्स कैफे खोले गए हैं। 58 फीसदी तक आरक्षण पर लगी रोक सुप्रीम कोर्ट से हटने के बाद राज्य में भर्ती भी शुरू हुई हैं। बेरोजगारी भत्ते की घोषणा के बाद मुख्यमंत्री युवा वर्ग को भी साध रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा के बीच हिंदुत्व की राजनीति का भी मुकाबला है। दोनों पार्टियों में इस बात की होड़ लगी है कि हिंदुत्व की राजनीति में कौन आगे निकलता है। जहां, कांग्रेस सरकार की गोबर अर्थव्यवस्था और राम वनगमन परिपथ, राष्ट्रीय रामायण प्रतियोगिता, हनुमान चालीसा का पाठ के माध्यम से हिंदुत्व की राजनीति कर रही है। जून में छत्तीसगढ़ कांग्रेस कार्यकर्ता सम्मेलन में गोधन न्याय योजना का बखान करेगी।
वहीं, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी आदिवासी इलाकों में मतांतरितों की घर वापसी का अभियान तेज किया है। छत्तीसगढ़ में मिशनरियों की गुपचुप चल रही गतिविधियों और मतांतरण पर प्रभावी ढंग से रोक लगाने के लिए विश्व हिंदू परिषद (विहिप), धर्म जागरण मंच के अलावा स्वयंसेवकों की टीम घर वापसी पर जुटी हुई है।

सत्ता की चाबी आदिवासियों के हाथ में
2018 के चुनाव में भाजपा को 15 और कांग्रेस को 68 सीटें मिली थीं। छत्तीसगढ़ की 90 विधानसभा में से 29 विधानसभा सीट आदिवासी बाहुल्य है जिनमें एक लाख से अधिक आदिवासी मतदाता हैं। इसके अलावा 20 सीटों पर 50 हजार से लेकर एक लाख आदिवासी मतदाता है। कांग्रेस ने पिछले चुनाव में कुल 32 आदिवासियों को प्रत्याशी बनाया था, जिसमें 30 जीत गए थे!
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में यदि कांग्रेस सबसे मजबूत स्थिति में है तो वह है छत्तीसगढ़। यहां कांग्रेस को थोड़ा प्रतिरोध अपनों से ही देखने को मिल सकता है। मसलन, 2018 में मुख्यमंत्री की रेस में भूपेश बघेल से पिछड़ने वाले टीएस सिंहदेव की नाराजगी गाहे बगाहे नजर आ जाती है। बेशक वे बघेल के मंत्रिमंडल में शामिल हैं लेकिन उनके पार्टी विरोधी बयान खलबली मचा ही देते हैं। फिलहाल, कांग्रेस ने कुमारी सैलजा को प्रदेश प्रभारी के रूप में इन सबकी नकेल कसने के लिए मैदान में उतार रखा है।

चलते-चलते…

मध्यप्रदेश का नागपुर कनेक्शन
मध्यप्रदेश का नाम आते ही नागपुर भी अनायास याद आ जाता है। क्योंकि वर्तमान में यहां भाजपा की सरकार है और भाजपा आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) का राजनीतिक संगठन है और आरएसएस का मुख्यालय नागपुर में है। मजे की बात यह है कि आजादी के पश्चात मध्यप्रदेश की राजधानी नागपुर ही थी। वर्ष 1947 में भारत की आजादी के बाद, 26 जनवरी, 1950 के दिन भारतीय गणराज्य के गठन के साथ सैकड़ों रियासतों का संघ में विलय किया गया था। इसके तहत राज्यों के पुनर्गठन में 1950 में ही पूर्व ब्रिटिश केंद्रीय प्रांत और बरार, मकाराई के राजसी राज्य और छत्तीसगढ़ को मिलाकर मध्यप्रदेश का गठन हुआ और इसकी राजधानी बनाई गई नागपुर! बेशक अब नागपुर, महाराष्ट्र में हो लेकिन आज भी नागपुर के आदेशों का मध्य प्रदेश की सत्ता पर असर देखने लायक है।

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