शांति बहाली के लिए धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक शासन की आवश्यकता है, जो जाति और जनजाति हितों की रक्षा करने में सक्षम हो। आज के दौर में इसी की जरूरत मणिपुर में है। राजनीतिक तरीके से सर्वसम्मत समाधान खोजने होंगे। इसके लिए यदि मणिपुर में मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने से शांति कायम हो सकती है तो भाजपा हाईकमान को इस पर विचार करना चाहिए। मणिपुर के हालात इतने ज्यादा खराब हो चुके हैं कि राष्ट्रपति शासन की मांग भी अब न केवल वैली, बल्कि पर्वतीय जनपदों में उठने लगी है।…
धर्मपाल धनखड़
करीब डेढ़ महीने से मणिपुर जातीय हिंसा की आग में झुलस रहा है। राज्य और केन्द्र सरकार केतमाम प्रयासों के बावजूद हिंसा थम नहीं रही है। तेरह जून को एक बार फिर इंफाल ईस्टजिले के एक गांव में हथियारबंद उग्रवादियों की गोलीबारी में नौ लोगों की मौत हो गयी और दस लोग घायल हो गये। इसके साथ ही कई घरों में आग लगा दी गयी। ये सब तब भी जारी है, जब सुरक्षा बलों को खुली छूट दी जा चुकी है। सेना की गश्त बढ़ा दी गयी है।
लूटे गए हथियारों की बरामदगी के लिए घर-घर तलाशी अभियान चलाया जा रहाहै। देश के गृह मंत्री अमित शाह मणिपुर का दौरा करके दोनों पक्षों से बातचीत करके शांति की अपील कर चुके हैं। इसके लिए राज्यपाल अनुसुइया उइके की अध्यक्षता में 51 सदस्यों की एक शांति समिति भी बनायी गयी है। लेकिन कुकी समुदाय के लोगों को मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह समेत दूसरे समुदाय के लोगों के शांति समिति में शामिल किये जाने पर एतराज है। कुकी लोगों का आरोप है कि जिन लोगों ने उनके खिलाफ खुलेआम जंग शुरू कर रखी है, उन्हें इस समिति में रखा गया है। उनकी मांग है कि इसमें केंद्र सरकार के नुमाइंदे भी होने चाहिए। साथ ही, केंद्र ने असम के मुख्यमंत्री एवं नॉर्थ-ईस्ट कोआर्डिनेशन काउंसिल के प्रेसिडेंट हिमंत बिस्वा सरमा को मणिपुर के हर गुट के नेताओं से वार्ता की जिम्मेदारी सौंपी है।
इसके बाद वे मणिपुर भी गए और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को जमीनी स्थिति से अवगत कराया लेकिन जानकारों की मानें तो उन्हें बहुत हद तक कामयाबी नहीं मिली है। दूसरी और हिंसक वारदात रुक रुक कर हो ही रही हैं।
अब तक जातीय हिंसा में 110 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और 50 हजार से ज्यादा लोग बेघर होकर राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं। जानकार बताते हैं कि स्थानीय जनजातियों के बीच ऐसा ‘विभाजन’ कम से कम पिछले कुछ दशकों में नहीं देखा गया था। हिंसा के पीछे वैसे तो कई कारण बताए जा रहे हैं लेकिन एक कारण आरक्षण भी रहा।
मणिपुर के मैतेई समुदाय के लोग हमेशा से मांग करते रहे हैं कि उन्हें अनुसूचित जनजातियों में शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन नगा और कुकी समुदाय को लगता है कि यदि ऐसा हुआ तो उनका हक छिन जाएगा, क्योंकि राज्य में करीब 53 फीसदी से ज्यादा आबादी मैतेई समुदाय की ही है। बीते विधानसभा चुनाव में दोनों पक्षों की ओर से आरक्षण भी एक मुद्दा था। लेकिन ऐन मौके पर जनजातीय लोगों में भाजपा ने विश्वास पैदा कर लिया और भाजपा को उम्मीद के विपरीत बंपर वोट मिले। मौजूदा समय में मणिपुर के 10 जनजातीय विधायकजिनमें भाजपा के 7 विधायक भी शामिल हैं, अब भी अपनी ही सरकारके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के समझाने-बुझाने के बाद भी ये विधायक अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं। यह बात भी काबिले गौर है कि जनजातियों के 10 में से 5 विधायक महीनों से मिजोरम में डटे हुए हैं।
वहांउनकी वार्ता वहां के ताकतवर स्टूडेंट यूनियन मिजो जिरलोई पाॅल के साथ जारी है। मालूम हो कि मिज़ो और कुकी जनजातियों की पहचान साझा है। ऐसे में यह भी समझने की दरकार यदि मणिपुर में भाजपा के खिलाफ भड़का गुस्सा सीमा पार करके मिज़ोरम में दाखिल हो जाताहै तो हालात और खराब हो सकते हैं।
हालिया हिंसा की शुरुआत मणिपुर हाईकोर्ट के उस फैसले से हुई जिसमें मैतेई समाज को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की वकालत की गई। लेकिन यह बात भी समझने की दरकार है कि आरक्षण को लेकर उबाल तो यहां की सभी जनजातीय लोगों में होना था तो वो आखिर उक्त पूरे मामले से अलग-थलग रहे? इससे साफ है कि आरक्षण तो एक बहाना है, वहां वनांचलों में अफीम की खेती, मादक द्रव्यों का बढ़ता कारोबार और सीमापार से बढ़ती घुसपैठ जैसे ज्वलंत मुद्दे भी हैं जिसके खिलाफ मौजूदा सरकार का सख्त अभियान जारी है, जिससे उक्त धंधों में लिप्त माफियाओं और उनके सशस्त्र विद्रोही संगठनों में खासा आक्रोश है। वे सरकार के इस कदम को अपने ऊपर किया गया हमला मानते रहे हैं।
असल में बीते विधान सभा चुनाव में भाजपा ने मणिपुर के 11 पर्वतीय जनपदों का मैदानी जनपदों की तरह पूर्ण विकास करने का वादा किया था लेकिन जनजातीय विधायकों की मानें तो इस दिशा में बीरेन सरकार एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाई है। पर्वतीय जनपदों में विकास नहीं होने से इनमें खासा आक्रोश है। जनजाति विधायकों का आरोप है कि सरकार ने खानापूर्ति के लिए ऑटोनॉमस हिल काउंसिल का गठन जरूर किया है।
लेकिन पूरा पावर डिप्टी कमिश्नर के हाथ है। ऐसे में सीधे तौर पर उनके हितों की अनदेखी हो रहीहै। जनजातीय विधायक उनकी समस्या का निदान असम के बोडो समस्या की तरह ही चाहते हैं जिसमें ऑटोनॉमस हिल काउंसिल को ज्यादा अधिकार मिलें और उनके क्षेत्रों का विकास अच्छी तरह हो सके।
बहरहाल, शांति बहाली के लिए धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक शासन की आवश्यकता है, जो जाति और जनजाति हितों की रक्षा करने में सक्षम हो। आज के दौर में इसी की जरूरत मणिपुर में है। राजनीतिक तरीके से सर्वसम्मत समाधान खोजने होंगे। इसके लिए यदि मणिपुर में मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने से शांति कायम हो सकता है तो भाजपा हाईकमान को इस पर विचार करना चाहिए।
मणिपुर के हालात इतने ज्यादा खराब हो चुके हैं कि राष्ट्रपति शासन की मांग भी अब न केवल वैली, बल्कि पर्वतीय जनपदों में उठने लगी है। वैसे केंद्र ने मणिपुर में शांति कायम करने के लिए राज्यपाल की अगुआई में शांति कमेटी का गठन करके एक अच्छी पहल की है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत भी मिशन पीस पर जुटे हैं।
वहीं, स्थिति और ज्यादा बेकाबू न हो, इसके लिए सेना को उतार दिया गया है। पर परिणाम अब भी संतोषजनक नहीं है। इसके लिए एक बड़ी पहल राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों को भी आगे आना होगा। वर्ना मणिपुर की आग पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी फैल सकती है।