सुशील उपाध्याय।
बुद्ध ने आनंद से कहा, बाहर कुछ भी नहीं है, सब कुछ भीतर घटित होता है। बाहर केवल परिणाम दिखता है। सुबह पिताजी को नहलाते वक्त अचानक लगा, बुद्ध कितना सही कहते हैं, सब कुछ सामने ही तो है, लेकिन स्वीकार कब कर पाते हैं! वक्त के साथ पिता की देह नाजुक होती जा रही है। पहले से ज्यादा पसलियां दिखने लगी हैं, पांवों की त्वचा जैसे-तैसे हड्डियों के साथ रिश्ता बनाए हुए है। सिर पर कुछ गिने-चुने बाल बचे हैं, जो सन (जूट) जैसे हो गए हैं। पीठ को जोर से रगड़ने पर डर लगने लगता कि कहीं खाल न छिल जाए। अब से 65-66 साल पुराना उनका फोटो देखता हूं, जिसमें वे मंडेरियन काॅलर की शर्ट और कोट पहने हैं। कोट के कपडे़ से बनी हुई टोपी से उनका चेहरा और उभरा हुआ दिख रहा है। गोरा रंग, लंबी नाक, गहरी आंखें, लंबा कद, हल्की उग रही दाढ़ी, सब कुछ सुंदर लग रहा है।
आज सोचता हूं, वो व्यक्ति कहां है, जो उस फोटो में है। ये व्यक्ति कौन हो, जो इस वक्त है। दोनों ही सच हैं, लेकिन स्वीकारना मुश्किल हैै। पिता के साथ कई साल मेरे संबंध चुनौतीपूर्ण रहे, हमेशा लगता था कि मेरे पिता सही सोचते ही नहीं हैं। जिद्दी हैं, अपनी ही चलाते हैं, किसी बात को समझने के लिए तैयार नहीं होते, उनका व्यवहार अधिकारवादी है! लगभग डिक्टेटर! लेकिन, वक्त ने मुझे बताया कि पिता सही थे, सही सोचते थे, वे अपने समय के साथ सही थे, मेरे सोचने में अनुभवहीनता और तात्कालिकता हावी थी। मैं अपनी बढ़ती उम्र के साथ खुद को अपने पिता के ज्यादा निकट महसूस करता हूं। कहीं बाहर जाता हूं तो उनके बारे में ज्यादा सोचता हूं, किसी अन्य के बारे में उतना नहीं सोच पाता।
इस शरीर के साथ पिता कब तक चल पाएंगे, इसे कोई नहीं बता सकता। लेकिन, उनकी जिजीविषा अद्भुत है। सात साल पहले अचानक बीमार हुए। एक सप्ताह अस्पताल में रहे। डाॅक्टरों ने कहा कि घर लेकर सेवा कर लीजिए। डाॅक्टरों के इस कथन का मतलब वे सभी लोग जानते हैं, जिनके घर में बूढ़े मां-बाप या दादा-दादी हैं। डाॅक्टर अपनी जगह सही थे क्योंकि उस उम्र में पैरालाइज्ड हुआ व्यक्ति अपवाद रूप में ही सामान्य होता है, लेकिन मेरे पिता ने डाॅक्टरों को गलत साबित करते हुए दोबारा अपने दम पर खड़ा होना सीखा। आज भी उन्हें अच्छा नहीं लगता कि उनके नहाने में कोई मदद करे या कोई और उनके कपड़े धोये। उन्हें ये भी अच्छा नहीं लगता कि उनके जूठे बर्तन कोई और उठाए। संभवतः जिन लोगों ने जिंदगी का लंबा हिस्सा संघर्ष करते बिताया हो, वे ऐसे ही होते हैं। परजीवी बिल्कुल नहीं होते।
वस्तुतः पिता शरीर से बूढ़े हो गए हैं, लेकिन मन से नहीं हुए हैं। मन बूढ़ा होता भी नहीं है और किसी पुत्र के लिए शायद ही उसके पिता बूढ़े होते हैं। हर किसी के जेहन में पिता का एक ही चित्र होता है, जब वे आपको गोद में उठाए हों, कंधे पर बैठाए हों या उंगली पकड़कर चल रहे हों। और पिता को भी लगता है कि उसके पुत्र को अभी और सीखना हैं। इसलिए वे बार-बार टोक देते हैं कि सारी साबुन आज ही खत्म करोगे क्या!
आनंद भगवान बुद्ध की कमर मलकर मैल उतारते वक्त चिंतित हो जाते हैं क्योंकि बुद्ध की त्वचा नीचे की ओर लटक रही है। आनंद को डर लगा, भगवान से कहा कि शास्ता बूढ़े हो रहे हैं। भगवान का जवाब बहुत अद्भुत था-आनंद! यौवन की पहली छवि में बुढ़ापा छिपा होता है, लेकिन हम देखने से इनकार करते हैं। स्मरण रखना, उसकी मृत्यु कभी नहीं होगी, जिसने पहली सांस नहीं ली हो। मृत्यु तभी होगी, जब पहली सांस ली गई हो। बुढ़ापा आएगा ही, रहेगा ही और अंतत देह के साथ विदा होगा। शायद आनंद समझ गए होंगे, लेकिन हमें कहां समझ में आता है। केवल डर में ही समानता है, ज्ञान और चेतना में नहीं है।
बचपन और किशोरवय में हम जिन चीजों की मांग करते हैं और जब मिल नहीं पाती, वे सारी उम्र पीछा करती हैं। तब भी पीछा करती हैं, जब उन्हें स्वयं खरीद सकते हैं, लेकिन खरीदने की ये क्षमता बचपन की उस कमी को कभी पूरा नहीं कर पाती। कभी बाजार जाता हूं तो पिता से पूछता हूं कि कुछ लेकर आना है? उनका एक ही जवाब होता है-नहीं, कुछ नहीं लाना। मैं कहता हूं, पिताजी कुर्ता काफी पुराना हो गया, जूते भी घिस गए हैं, नए संभाल कर क्यों रखते हो, उन्हें पहनते क्यों नहीं हो, इन्हें उठाकर फेंक दो! वे केवल ‘उठाकर फेंक दो’ को याद रखते हैं क्योंकि उनका जीवन-संघर्ष उन्हें इस बात को भूलने नहीं देता कि एक जोड़ी नए कपड़े, नए जूते या कोई भी ऐसी ही सामान्य चीज भी कितनी दुर्लभ और कीमती होती है, उनकी नाराजगी झलकने लगती है कि ‘उठाकर फेंक दो’ का क्या मतलब होता है! मैं उनके स्तर पर खड़ा होकर समझने की कोशिश करता हूं, लेकिन हर बार चूक जाता हूं।
उम्र के एक पड़ाव के बाद ज्ञान तिरोहित होने लगता है, केवल अनुभव और स्मृतियां रह जाती हैं। ये अनुभव और स्मृतियां जिनके साथ जुड़ी होती हैं वे सभी जीवन-क्रम के अगले हिस्से में जाने लगते हैं। फिर बढ़ती उम्र के साथ चुप्पी भी बढ़ने लगती है। जिसका, जितना गहरा जुड़ाव होगा, उसे ये चुप्पी उतनी अखरने लगती हैं। बाहर के लोग उम्र को सामने रखकर आकलन करते हैं। अच्छा, आपके पिता 85 साल के हैं। इतनी उम्र तो काफी है! उस वक्त ये समझाना पाना कठिन होता है कि कोई रिश्ता और उसकी अनुभूति उम्र की संख्या के साथ जुड़ी हुई नहीं होती। और न ही इसका वास्ता आर्थिक उत्पादकता से होता है। बस, इसका होना ही इसकी कीमत है। जो लगभग बेशकीमती है। मुझे सच में डर लगता है, बाकी लोगों को भी लगता होगा, जब पीढ़ियों के बीच की कड़ी टूटती है तो उसकी रिक्तता को कौन भर सकेगा!
पिताजी तेज आवाज में रेडियो बजाते हैं, उन्हें कम सुनने लगा है, लेकिन उनकी रेडियो महज रेडियो नहीं, दुनिया का सबसे भरोसेमंद सूचनाओं और मनोरंजन का साधन है। उसके सामने स्मार्ट टीवी, स्मार्ट फोन और वे सारी चीजें, जो आज स्मार्ट हैं, फीकी हैं। वे उस हद तक अखबार पढ़ते हैं, जब तक आखिरी अक्षर तक को न पढ़ लिया गया हो। फिर वे मेरा इंतजार करते हैं, ताकि देश-दुनिया की खबरों से वाकिफ करा सकें। वे नहीं चाहते कि उनका 50 साल का लड़का किसी सूचना से वंचित रह जाए। जब सुबह काॅलेज के लिए निकलता हूं तो वे मुझे ये समझाना कभी नहीं भूलते कि सड़क देखकर पार करनी है और किसी अनजान आदमी से कुछ लेकर नहीं खाना है। मैं उन्हें खारिज नहीं करना चाहता क्योंकि पिता को खारिज करते हुए हम खुद को ही खारिज करते हैं।
पड़ोस में ही कुछ दूरी पर मंदिर है। उनका मन लगा रहे इसलिए कहता हूं कि कभी मंदिर चले जाया करो, उनका जवाब बहुत जबरदस्त होता है-सारी उम्र नहीं गया, अब जाकर क्या करूंगा! भगवान को भी लगेगा कि अब बुढ़ापे में आया है! वो कहीं होगा तो कभी न कभी मुलाकात हो ही जाएगी। इस जवाब के सामने मेरे पास कोई तर्क नहीं होता। ये प्रवृत्ति मैंने भी उनसे ज्यों की त्यों पाई है, धर्म के नाम पर किसी से कोई दुराव नहीं और खुद चंदन-तिलक लगाकर कहीं लाइन में नहीं लगना, कहीं मिल जाएगा तो मिल लेंगे। इन उलझे ख्यालों के बीच फिर पिता का बदन पोंछने लगता हूं, वे मना करते हैं, मैं खुद कर लूंगा। अचानक उन्हें एक जरूरी बात याद आती है-ये बाल मत रंगा करो, सारे बाल खराब कर लिए हैं तुमने। भला, इससे ज्यादा मेरे पिता मुझे क्या दाय देंगे!