सुशील उपाध्याय ।
आप किसी क्लब में होते हैं तो डांस फ्लोर पर होना अच्छा लगता है, लेकिन जब डांस फ्लोर पर अकेले होते हैं तो यह उतना ही कठिन हो जाता है। दुनिया भर में ट्रेंड है कि जब भी वैलेंटाइन वीक होता है, वे सारे लोग जो किसी साथी की तलाश में तरस रहे हैं, इन डांस फ्लोर पर कुछ ज्यादा ही संख्या में नजर आते हैं।
हनोई में जिस क्लब में हम लोग गए, वहां लगभग एक-डेढ़ हजार की भीड़ थी। इस तरह के क्लब में एक बुनियादी शर्त है कि आप अकेले जा सकते हैं, जोड़े में नहीं जा सकते। उसी फ्लोर पर आपको किसी का साथ ढूंढना है। और वह साथी अचानक मिलेगा, ऐसा मान लिया जाता है, पर अचानक कुछ होता नहीं। आप अकेले वहां जाते हैं, पर कोई ना कोई ऐसा होता जरूर है जो आपको पहले से पहचानता है या फिर आपके आने का इंतजार करता होता है।
आसपास देखिए, बहुत सारे लोग ऐसे मिलेंगे जो सच में अकेले हैं और अजनबी बन कर जी रहे हैं। उन्हें किसी की तलाश है, जिसके साथ और जिसका हाथ पकड़कर पूरे अधिकार से उस डांस फ्लोर पर नाच सकें। इसे महसूस करने के लिए विएतनाम जाने की भी जरूरत नहीं है।
बाहर से जो नाचता दिखता है, भीतर से वह कहीं ओर होता है। अकेलेपन का ये वो मुकाम है, जब आप रोते कम हैं, नाचते ज्यादा है। तब बाहर के लोगों को लगता है कि कितने खुश हैं आप। वेलेंटाइन वीक आता है और आप एक खास तरह का दबाव महसूस करने लगते हैं।
यह दबाव शहरी जिंदगी में कुछ ज्यादा है और वह शहर दुनिया के किसी भी हिस्से में हो सकता है। वहां अकेलापन ही आप की असहनीय पूंजी हो जाता है, जिससे आप पीछा छुड़ाना चाहते हैं, लेकिन वह वैताल की तरह आपसे चिपक जाता है।
अकेलेपन के इस वैताल से पीछा छुड़ाने के लिए आपको लगता है कि क्लब जाना बेहतर विकल्प हो सकता है, क्योंकि अपने छोटे से फ्लैट में आप एक कमरे से दूसरे कमरे में जा सकते हैं, बालकनी में खड़े होकर झांक सकते हैं या फिर अपने पालतू कुत्ते के साथ वक्त बिताने की कोशिश सकते हैं, लेकिन वक्त कहां बीतता है।
जब पूरा बाजार गुलाबों से पटा हो, चारों तरफ सुर्ख रंग दिख रहे हैं, आपका इनबॉक्स दिखावटी और ओपचारिक मैसेज से भर गया हो, तब अकेले वक्त बिता पाना आसान नहीं होता।
इस सारी प्रक्रिया के दौरान आप किसी ऐसे की तलाश में होते हैं जो आपका अपना हो, जिसके लिए आपको इंतजार ना करनी पड़े, जिसको लुभाने के तौर-तरीके ढूंढने पड़े, जो आप पर थोड़ा-सा अधिकार जता सके और जो जरूरत के वक्त गर्मजोशी के साथ आपका स्वागत कर सके।
दुनिया में अजनबी होना और अकेला पड़ जाना सबसे बड़ी सजा है। जब हर तरफ वेलेंटाइन वीक की धूम मची हुई हो, तब आपका अकेलापन ज्यादा बड़ा और गहरा हो जाता है। अपने आसपास किसी ऐसे दोस्त को देखिये जो इस बात से दबाव में आ जाता है कि वैलेंटाइन आ गया है। वह भी बाकी लोगों की तरह है, जिसे उम्मीद है कि किसी रोज उसका मनमीत अचानक दरवाजे पर आकर खड़ा होगा, लेकिन यह सब फिल्मों में होता है।
आप हजार साल इंतज़ार कीजिए, कोई दरवाजे पर आकर खड़ा नहीं होता। खुद ही इतना मजबूत होना होता है कि अकेलेपन को अपना साथी मान ले, जो आसान तो कतई नहीं होता।
ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती जाती है, यह संभावना कम होती जाती है कि आपको ऐसा कोई साथी मिल पाएगा, जो सच में आपकी तरह का हो, वह भी आपकी तरह अकेलेपन को देख सके, उसे महसूस कर सके और हर स्थिति में साथ खड़ा हो सके। अकेलापन एक ऐसी लड़ाई है, जिससे आप जितना चाहे लड़ सकते हैं, लेकिन उससे जीत पाना लगभग असंभव होता है। यह अनन्त और सतत चलने वाली लड़ाई है।
ऐसा नहीं कि उस क्लब में सारे लोग ही अकेलेपन के शिकार थे, लेकिन बेसुध होकर नाचते लोगों के भीतर कोई न कोई ऐसी बात जरूर थी, जो यह महसूस कराती है कि आप भी उनमें से एक हैं। हमारे टूर गाइड कहते हैं कि आप को अपने अजनबीपन से खुद लड़ना होगा, कोई बाहर का व्यक्ति इसमें मदद नहीं कर सकता और ये केवल साथी या पार्टनर की अनुपलब्धता का मामला नहीं है, अपनी धरती और अपने लोगों से दूरी भी अकेलापन पैदा करती है।
यह अकेलापन इतना डरावना और भयानक होता है कि एक वक्त के बाद आपको खुद पर शर्मिंदगी होने लगती है। फिर, रह-रहकर उन रिश्तों को याद करने लगते हैं, जो कभी आपके जीवन में मौजूद थे, लेकिन अब वे सब अतीत हो गए हैं। किसी एक पल में लगता है कि आपका सबसे खूबसूरत रिश्ता आपके कारण खत्म हुआ है, आप इस योग्य नहीं थे कि उस रिश्ते को संभाल पाते।
फिर अचानक तुलना का खेल शुरू हो जाता है, अपने दोस्तों के बारे में आप सोचते हैं, उनके पार्टनर के बारे में सोचते हैं और फिर ख्याल आता है कि क्या जिंदगी ऐसे अकेले ही गुजर जाएगी ? जिंदगी रुकती नहीं, गुजरती जाती है, भले ही आपको लगता हो कि सब कुछ ठहरा हुआ है और आपके आसपास के सारे लोगों की जिंदगी बहुत सुंदर ढंग से चल रही है, पर ऐसा होता नहीं है। केवल इतनी बात है कि आप जिस अकेलेपन से रूबरू हैं, जिस अकेलेपन से लड़ रहे हैं, अभी आप उस तरह के लोगों के संपर्क में आए नहीं हैं।
आठ अरब लोगों की दुनिया में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो अपने लिए दोस्त तलाश रहे हैं ताकि उसके साथ बैठ कर खुद को शेयर कर सकें, अपनी तन्हाइयों के बारे में, अपनी उम्मीदों के बारे में और अपने अनुभवों के बारे में उसे बता सके और उसकी बातें सुन सकें। वह चाहे वियतनाम हो या भारत हो, जिंदगी सड़कों पर दौड़ रही होती है। हर तरफ उत्साह फैला होता है और अकेलेपन का एहसास किसी कोने में छिपा होता है, जैसे कि कोई बाघ अपने शिकार की तलाश में रहता है, आप ऊर्जा और उम्मीद की तलाश में बाजार में जाते हैं और जैसे ही उस बाघ की रेंज में आते हैं, वह तुरंत आपको लपक लेता है, दबोच लेता है। सारी चमक-दमक और तमाम बाहरी खुशियों के बावजूद एक बार फिर आप अकेले हो जाते हैं।
क्लब में शराब तैर रही होती है, खाली बोतलें कोनों में उदास पड़ी होती हैं, पर दुनिया की बेहतरीन से बेहतरीन शराब भी आपके अकेलेपन का खात्मा नहीं कर सकती। सबसे भव्य और बेहतरीन सुविधाओं से सजी जिंदगी भी इस बात की गारंटी नहीं देती कि आपका भयानक खालीपन खत्म हो जाएगा। किसी वक्त में आपको लगता है कि आज सबसे बेहतरीन ड्रेस पहनी जाएगी, जो कभी आपके पार्टनर को पसंद थी। आप उसे देखते हैं और देख कर दुख से भर जाते हैं क्योंकि उसके साथ पार्टनर की वो यादें जुड़ी हुई हैं, जिन्हें आज याद नहीं रखना चाहते, लेकिन वे आपका पीछा कभी नहीं छोड़ती। दुनिया आगे बढ़ रही है और आगे बढ़ती दुनिया में बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो अकेले रहने के लिए अभिशप्त हैं। ऐसा नहीं कि वे सभी अकेला रहना चाहते हैं और ऐसा भी नहीं है कि उनमें कोई ऐसी अयोग्यता है कि उन्हें एक साथी ना मिल सके। सवाल सही वक्त पर सही जगह होने का है, लेकिन तमाम कोशिश के बावजूद आप सही वक्त पर सही जगह नहीं होते। दार्शनिक रॉल्फ इमर्सन कहता है कि जीवन की सफलता सुसंगत परिस्थितियों की सुसंगत श्रृंखला है। इस श्रंखला में से कोई एक कड़ी टूट जाए तो फिर जीवन सफल नहीं दिखाई देता। डांस फ्लोर पर नाचते हुए लोगों को देखकर लगता है कि शायद ही अकेलेपन की इससे बेहतर कोई दवा हो, पर आप जब ऐसा सोचते हैं तो आप डांस फ्लोर से बाहर खड़े होते हैं। जब खुद डांस फ्लोर पर नाच रहे होते हैं तो आप नहीं, आपका दुख नाच रहा होता है और नाचता हुआ दुख भले ही दूसरे लोगों को सुख की अनुभूति कराता हो, लेकिन आपके भीतर कशमकश कम नहीं होती। नई दुनिया के तमाम नए साधनों ने यह भरोसा दिलाने की कोशिश की है कि आप किसी दूसरे इंसान के बिना भी जिंदा रह सकते हैं और खुश रहकर आगे बढ़ सकते हैं, पर असली दुनिया में ऐसा होता नहीं। एक वक्त के बाद आप इन नए साधनों से ऊब जाते हैं तो फिर किसी जीवित जाग्रत व्यक्ति की तलाश करते हैं, जो आपको सुन सके, जिसे आप महसूस कर सकें। लोगों की इस भीड़ में कहीं बाहर से कोई मदद मिल सकती है, इस पर मेरा यकीन नहीं है, अगर ऐसी कोई मदद मिलती होती तो इस वक्त दुनिया में करोड़ों लोग अजनबियत और अकेलेपन के शिकार नहीं होते। यह ठीक है कि इसमें बहुत बड़ी संख्या महिलाओं की है, लेकिन पुरुषों का आंकड़ा भी कोई छोटा नहीं है। जब तक समाज पितृसत्तात्मक रहा तब तक स्त्री और पुरुष चाहे-अनचाहे तौर पर एक दूसरे के जीवनसाथी बनते रहे, लेकिन जैसे-जैसे स्त्री को आर्थिक आजादी प्राप्त हुई, उसने अपने ढंग से रहना और जीना सीखना शुरू किया तो उसके अकेले रहने की संभावनाओं के बीच अकेलेपन का शिकार हो जाने की स्थितियों का निर्माण भी हुआ। अब चाहे वैलेंटाइन डे आए या फिर अन्य कोई त्योहारी सीजन, अकेलापन जैसे इंतजार में दरवाजे के बाहर ही बैठा रहता है। आप एक रास्ता देखते हैं और उस रास्ते से कई सारी सड़कें एक जगह आकर मिलती हैं, तब ये तय नहीं कर पाते कि आपके लिए कौन सी सड़क ठीक है। डांस फ्लोर भी ऐसा ही होता है। वहां कोई आपकी तरफ हाथ बढ़ाता है नाचने के लिए और उसके बराबर में आप देखते हैं कि किसी और ने भी आपकी तरफ हाथ बढ़ाया है। तब तय नहीं कर पाते कि इनमें से कौन सा हाथ सही था और कौन सा हाथ सही नहीं था। एक बहुत ही नाजुक-सा स्पर्श होता है, उस शोर-शराबे, भारी भीड़, बहुत तेज रोशनी और कानों को गहरे तक चीरता हुआ संगीत आपको समझने नहीं देता कि उस स्पर्श की अनुभूति क्या है। आप जब क्लब से बाहर आते हैं तो अपने आप से यह सवाल जरूर करते हैं कि क्या मैं सच में यहां आने को तैयार था, क्या मुझे सच में इन जगहों पर आना चाहिए ? दुनिया सुर्ख गुलाबों की महक में डूबी हुई है और कोई व्यक्ति अपने अकेलेपन के साथ हनोई के क्लब में बेसुध होकर नाच रहा है ताकि अपने ऊपर हावी वैलेंटाइन के प्रभाव को कम कर सके।
( *वाह वियतनाम* किताब का एक अंश।)