नयी दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडबल्यू) की एक याचिका पर केंद्र से जवाब मांगा, जिसमें महिलाओं के लिए “शादी की एक समान उम्र” की मांग की गई थी, भले ही उनका धर्म या व्यक्तिगत कानून कुछ भी हो।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने भारत में प्रचलित कानूनों के अनुरूप मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत विवाह योग्य आयु में वृद्धि की मांग वाली याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया है।
राष्ट्रीय महिला आयोग ने सभी समुदायों की सभी लड़कियों/महिलाओं के लिए, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, 18 वर्ष को ‘विवाह योग्य आयु’ बनाने के निर्देश देने की प्रार्थना की।
राष्ट्रीय महिला आयोग ने इंगित किया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ को छोड़कर, विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत ‘विवाह की न्यूनतम आयु’ प्रचलित दंड कानूनों के अनुरूप है।
जबकि अन्य व्यक्तिगत कानूनों और दंड कानूनों के अनुसार ‘विवाह की न्यूनतम आयु’ एक पुरुष के लिए 21 वर्ष और एक महिला के लिए 18 वर्ष है, मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, जिन व्यक्तियों ने यौवन प्राप्त कर लिया है, उन्हें शादी करने की अनुमति है।
इसलिए, राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु की उन नाबालिग मुस्लिम विवाहित महिलाओं पर दंडात्मक कानून लागू किए जाने चाहिए जिन्होंने बालिग होने से पहले विवाह किया हो।
राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार, ऐसा नहीं करना न केवल मनमाना, तर्कहीन और भेदभावपूर्ण है, बल्कि दंड कानूनों के प्रावधानों का भी उल्लंघन है। राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार, मुस्लिम पर्सनल लॉ, जो बच्चों को यौवन प्राप्त करने पर शादी करने की अनुमति देता है, निम्नलिखित दंडात्मक प्रावधानों के दायरे में आता है।