‘यहूद कांस्पिरेंसी-हनूद कांस्पिरेंसी’

सुशील उपाध्याय

नयी दिल्ली । नवंबर, 22 में पाकिस्तान में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर हुआ जानलेवा हमला इस बात का बहुत बड़ा संकेत है कि पाकिस्तान के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है और भविष्य के लिहाज से स्थितियां चिंताजनक हैं।

भारत के नजरिये से देखें तो क्या एक ऐसा पाकिस्तान जो कई मोर्चों पर बिखरा हुआ हो, उससे भारत को कोई फायदा होगा ? इस सवाल के दो उत्तर हैं- पहला आसान उत्तर तो यही है कि पाकिस्तान का बिखर जाना भारत के लिए फायदे की बात होगी। दूसरा, अपने आसपास की भू-राजनीतिक और सामरिक स्थितियों को देखिए तो बहुत स्पष्ट तौर पर इस बात का एहसास होगा कि पाकिस्तान का एकजुट और स्थिर रहना है ही दीर्घकालिक दृष्टि से भारत के हित में है। इसके बावजूद पाकिस्तान के विरोधाभास ही उसके वजूद पर सबसे बड़ा सवाल बने हुए हैं।
जानकारों का मानना है कि इमरान खान पर हमले के बाद पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति की स्थिति व्यापक तौर पर बदलगी। इससे सेना का मौजूदा समानांतर सत्ता-तंत्र भी प्रभावित हो सकता है और वहां की राजनीतिक पार्टियों तथा समाज के भीतर ज्यादा गहरा टकराव देखने को मिल सकता है। जैसा कि पाकिस्तान की सत्ता का चरित्र रहा है, वहां होने वाली किसी भी गड़बड़ी के लिए शुरुआती तौर पर भारत को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है, इसके दृष्टिगत यदि पाकिस्तान अपनी आंतरिक स्थितियों को नहीं संभाल पाया और वहां सेना की समानांतर सत्ता में कमी की स्थिति पैदा हुई तो इसका दोष भी भारत के सिर ही मढ़ा जाएगा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत से सटा हुआ परमाणु हथियारों वाला अस्थिर पाकिस्तान किस हद तक परेशानी का कारण बन सकता है! यकीनन, इस परेशानी का अनुमान लगाना बिल्कुल आसान नहीं है।
पाकिस्तान में राजनेताओं की हत्या का एक बड़ा इतिहास मौजूद है। इस क्रम में पाकिस्तान के संस्थापकों में से एक लियाकत अली से लेकर जिया उल हक, बेनजीर भुट्टो तक के नाम लिए जा सकते हैं। वैसे, इसके समानांतर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या की घटना को भी सामने रखा जाता है, लेकिन भारत में लोकतांत्रिक आजादी ने लोगों को यह छूट दी है कि वे किसी भी घटना या मुद्दे पर अपनी बातों और अपने पक्ष को सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त कर सकते हैं। इसलिए सभी तरह की अच्छी या बुरी बातों पर लगातार विमर्श चलता रहता है। इस विमर्श की बदौलत आगे के रास्ते को लेकर वैसी आशंकाएं पैदा नहीं होती, जैसी कि पाकिस्तान के साथ नत्थी रही हैं और आज भी हैं। सार्वजनिक विमर्श और स्वतं़त्र अभिव्यक्ति के मामले में पाकिस्तान अपने गठन के बाद से ही बेहद विपन्न रहा है। वहां के समाज और राजनीति में लोक बुद्धिजीवियों, जिन्हें आज की भाषा में ‘थिंक टैंक’ कहा जा सकता है, उनका हमेशा ही अभाव रहा है।
पाकिस्तान की किसी भी सत्ता में, चाहे वह सत्ता सेना की रही हो अथवा लोकतांत्रिक पार्टियों की, वहां विरोधी विचारों के लिए बहुत ही ’लिमिटेड स्पेस’ मौजूद रहा है। इस कारण लोगों का गुस्सा और नाराजगी अक्सर हिंसा के रूप में सामने आता है और जब इस हिंसा को मजहब के आवरण के साथ परोसा जाता है तो फिर किसी पर भी हमला या उसकी हत्या करना एक धार्मिक जायज काम भी हो जाता है। जैसा कि इमरान खान के हमलावर ने मीडिया के सामने कहा कि उसने इसलिए इमरान खान पर हमला किया क्योंकि उसके कामों से मुसलमानों की मजहबी भावनाएं आहत हो रही थीं। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि ये कौन सी भावनाएं हैं जो किसी राजनीतिक गतिविधि या किसी भाषण अथवा सत्ता को चुनौती देने से प्रभावित होने लगती हैं!
पाकिस्तान से हम एक सबक जरूर सीख सकते हैं। वो सबक यह है कि जो देश अपने सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में कट्टरता को अनिवार्य तत्व के रूप में स्थान देने लगता है, उसका परिणाम उसे स्वयं भुगतना होता है। देश के विभाजन के वक्त पाकिस्तान में सिखों और हिंदुओं को लेकर जिस तरह की नफरत का भाव था, वहां उस नफरत के स्तर में सांस्थानिक स्तर पर आज भी संभवतः कोई कमी नहीं आई। केवल इतना अंतर आया कि अब वहां हिंदू और सिख ना के बराबर है इसलिए नफरत अपने ही धर्म के लोगों के खिलाफ काम आ रही है। वैसे, पाकिस्तान के पास भारत के रूप में एक काल्पनिक शत्रु हमेशा ही मौजूद है। इस समझने के लिए किसी बड़े प्रमाण को देखने की आवश्यकता नहीं है। पाकिस्तान के उर्दू अखबारों में प्रकाशित होने वाले लेखों को देख लीजिए, जिनमें लोगों को भारत के खिलाफ भड़काने और हिंदुओं को एक गैर-भरोसेमंद कौम के रूप में प्रचारित करना एक मुख्य झंडे की तरह है। यह सब दशकों से ऐसा ही प्रचारित-प्रचारित किया जाता रहा है। वहां शायद ही इस प्रवृत्ति का कोई विरोध नजर आता हो। इसकी मूल वजह यही है कि जिस समाज में लोक बुद्धिजीवी खत्म हो गए हों वह समाज बहुत सतही दृष्टि पर सोचने लगता है।
इन तमाम बातों के बावजूद दोनों देशों में बहुत सारे लोग उन असंभव स्थितियों के बारे में सोचते हैं कि जब भारत-पाकिस्तान के बीच में गहरे दोस्ताना रिश्ता होंगे। दोनों तरफ की आवाजाही किसी बंधन के बिना होगी। दोनों के बॉर्डर अमेरिका और कनाडा के बॉर्डर जैसे हो जाएंगे। भारत-पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के सभी देश मिलकर खुद को यूरोपीय यूनियन की तरह संगठित कर लेंगे। तब एक बाजार होगा, एक करेंसी होगी। वीजा रहित आवाजाही होगी और किसका क्या धर्म है, इससे दूसरे को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आज की स्थितियों में ये तमाम बातें लगभग असंभव ही लगती हैं। भारत के जाने-माने राजनयिक जेएन दीक्षित ने अपनी किताब में पाकिस्तान के विदेश मंत्री रहे अब्दुल सत्तार से जुड़ा एक वाकया शेयर किया है। यह वाकया उस वक्त का है जब अब्दुल सत्तार भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त थे।
अब्दुल सत्तार ने जेएन दीक्षित से व्यक्तिगत बातचीत में कहा था, ‘‘उन्हें लगता है, भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कभी सामान्य नहीं हो पाएंगे, दोनों देश हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहेंगे, अविश्वास करते रहेंगे।‘‘ अब यहां विचार कीजिए कि जिन लोगों के पास इन रिश्तों को सामान्य करने की जिम्मेदारी है, यदि वे इस ‘दुश्मन-दृष्टि’ के साथ अपनी जिम्मेदारी संभालेंगे तो फिर भविष्य से क्या उम्मीद की जा सकती है! और यह उम्मीद इसलिए भी नहीं की जा सकती कि पिछले कई दशक से पाकिस्तान में ‘गजवा-ए-हिंद’ का शोर सुनाई देता है। गजवा-ए-हिंद की शब्दावली और इसके सिद्धांत भारत को चुनौती देने और उत्तेजित करने की भावना से भरे हुए हैं। जो लोग इन गतिविधियों में शामिल हैं, उन्हें किसी न किसी स्तर पर सत्ता का संरक्षण भी हासिल है।
चूंकि, वैश्विक दबाव के चलते पाकिस्तानी सत्ता पूरी तरह से खुलकर इन अभियानों का समर्थन नहीं कर सकती और यह वैश्विक दबाव तभी तक संभव है जब तक पाकिस्तान बिखरने से बचा रहे। हालांकि यह भी सच है कि भारत के चाहने या ना चाहने से इस बात पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि पाकिस्तान टूट जाएगा अथवा एकजुट रहेगा। दुनिया में कुछ ऐसी ताकतें जरूर हैं, जिनके हित पाकिस्तान के साथ बहुत गहरे तक जुड़े हुए हैं। इनमें अमेरिका, सऊदी अरब, तुर्की, चीन और ईरान का नाम लिया जा सकता है। ये कभी नहीं चाहेंगे कि पाकिस्तान के मौजूदा स्वरूप में कोई बदलाव आए और यही स्थिति भारत के हित में भी होगी क्योंकि बिखरा हुआ पाकिस्तान एक ऐसे भस्मासुर में बदल जाएगा जो खुद को खत्म करने से पहले अपने आसपास के माहौल में भी व्यापक रूप से आग लगा देगा। यह सच है कि पाकिस्तान केवल आज से ही नहीं, बल्कि अपने गठन के दिन से ही आग के मुहाने पर बैठा हुआ है।
इस आग की आंच को कम करने के लिए पाकिस्तानी सत्ता-तंत्र कभी ‘यहूद कांस्पिरेंसी थ्योरी’ (यहूदी षड़यंत्र सिद्धांत), कभी ‘हनूद कांस्पिरेंसी’ (हिंदू षड़यंत्र सिद्धांत)का का जिक्र करने लगता है। जब ये दोनों थ्योरी काम नहीं करती तो कश्मीर का राग अलापने लगता है या फिर भारत पर आरोप लगाने लगता है कि वह पाकिस्तान के टुकड़े करना चाहता है। वस्तुतः ग्राउंड रियलिटी यह है कि पाकिस्तान के पास ऐसी कोई आईडियोलॉजी नहीं है जिससे वहां का राजनीतिक तंत्र मजबूत हो सके और उस तंत्र का सेना के साथ एक संवैधानिक संतुलन बने ताकि पाकिस्तान के साथ साथ उसके पड़ोसी भी चैन से रह सकें।
वैसे, भारत के संदर्भ में पाकिस्तान के विरोधाभास बहुत ही अचंभित करने वाले हैं। पाकिस्तान की सेना ने वर्ष 2021-22 में एक सर्वे कराया। जिसके जरिए यह पता करने की कोशिश की गई कि भारत के साथ कारोबारी रिश्ता रखना फायदे की बात होगी अथवा नहीं। इस सर्वे के परिणाम पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान और सैन्य-तंत्र की सोच के विपरीत आए क्योंकि ज्यादातर लोगों ने भारत के साथ अच्छे व्यावसायिक संबंधों पर जोर दिया था। इस सर्वे से भी यह बात खुद ही साबित होती है कि पाकिस्तान के भीतर नफरत के सिद्धांत को जबरन और इरादतन खड़ा करके रखा जाता है। और यही सिद्धांत अब पाकिस्तान के अपने लोगों पर भारी पड़ रहा है। इस बार इमरान खान इसके भुक्तभोगी रहे हैं और साल पहले 2007 में ऐसे ही घटनाक्रम में बेनजीर भुट्टो की जान चली गई थी।

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