- राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण और उचित सम्मान देने अधूरा
- व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के इतर कुछ नहीं सोच पा रहे माननीय
डॉ. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट, रुड़की।
उत्तराखंड के राज्य आंदोलनकारियों ने 22 वर्ष पहले न जाने कितनी शहादत और संघर्ष के बल पर नए राज्य का मार्ग प्रशस्त कर पहले उत्तरांचल और फिर उत्तराखंड के रूप में नए राज्य का सपना साकार किया था। लेकिन जिन लोगों ने इस राज्य को जन्म देने की लड़ाई लड़ी, आज उन्हें ही अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
राज्य आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण और उन्हें उचित सम्मान देने तक का कार्य इन 22 वर्षों में पूरा नहीं हो पाया। केंद्र व राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने के लाभ गिनाकर उत्तराखंड की भोली भाली जनता से वोट हासिल कर सत्ता की कुर्सी हासिल करने के बाद दोनों ही सरकारों ने उत्तराखंड की जनता को बार-बार निराश किया है।
उत्तराखंड के आंदोलनकारियों व उत्तराखंड की जनता के सपनो का राज्य 22 वर्ष बीतने पर भी आज तक नही बन पाया है। पहाड़ से रोजगार के कारण युवाओं का पलायन, प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के कोई ठोस व्यवस्था का न होना, स्वास्थ्य सेवाओं का लचर रहना, भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी के साथ ही आपराधिक घटनाओं में वृद्धि सरकार की विफलता का प्रमाण है।
उत्तराखंड बने 22 साल पूरे हो चुके हैं और तेइसवां साल शुरू हो चुका है लेकिन उत्तराखंड के लोगों के सपने का उत्तराखंड तो दूर उनकी मूलभूत समस्याएं आज भी जस की तस हैं। जल, जंगल, जमीन पर अपना हक पाने के लिए उत्तराखंडी पहले भी संघर्ष कर रहे थे और आज भी संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन उनकी सुनवाई आज तक नहीं हो पाई है।
राज्य निर्माण में पर्वतीय मूल की महिलाएं अग्रणी रहीं, राज्य की मांग को लेकर उन्होंने लम्बी लड़ाई लड़ी। अनेक आंदोलनकारियों को इसके लिए संघर्ष करते हुए पुलिस की गोलियां खाकर शहादत देनी पड़ी। कई महिलाओं को अपनी आबरू तक गंवानी पड़ी। तब जाकर लम्बे आंदोलन के बाद 9 नवम्बर 2000 को उत्तरांचल यानि अब के उत्तराखंड राज्य का जन्म हो पाया, जो अब कमजोर राज्य के रूप में हमारे सामने है।
राज्य बनने के बाद से 22 साल बीतने पर भी जल, जंगल और जमीन पर स्थानीय लोगों का हक नहीं हो पाया। राज्य बनने से पहले अविभाजित उत्तर प्रदेश में यहां के पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए अलग से एक मंत्रालय हुआ करता था। लेकिन राज्य बनने के बाद हम पहाड़ के सरोकार ही भूलते गए। जल, जंगल और जमीन के हक की लड़ाई के प्रणेता किशोर उपाध्याय जो टिहरी से भाजपा विधायक हैं और जो नारायण दत्त तिवारी मंत्रीमंडल में मंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी रह चुके हैं, के द्वारा बार-बार जनसरोकारों की मांग उठाने के बावजूद आज तक कुछ नहीं हो पाया है।
किशोर उपाध्याय जनहित के मुद्दों पर सर्वदलीय सम्मेलन भी बुला चुके हैं। जिसमें पर्वतीय क्षेत्र को वन प्रदेश घोषित कर यहां के निवासियों को वनवासी का दर्जा देने, पर्वतीय क्षेत्र में उगने वाली जड़ी बूटियों पर स्थानीय लोगों का हक घोषित करने, राज्य के वन व प्राकृतिक संसाधनों पर यहां के लोगों के हक-हकूकों की रक्षा करने व उन्हें पोषित करने, राज्य के लोगों को वनवासी का दर्जा देकर केंद्र में उन्हें नौकरियों में आरक्षण देने, वनाधिकार अधिनियम 2006 तथा जैव विविधता अधिनियम 2002 के प्रावधान राज्य में लागू करने की मांग उठाई गई है।
जिसके लिए किशोर उपाध्याय तत्कालीन प्रदेश कांगेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह और वर्तमान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करन महारा के साथ साथ कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव एवं मुख्यमंत्री रहे हरीश रावत से इन मुद्दों पर समर्थन मांग चुके हैं। इन मुद्दों को भाजपा सरकार से जुड़े लोगों के सामने भी ले जाया गया है।
चाहे सांसद अजय भट्ट हों या तत्कालीन मंत्री मदन कौशिक, सभी ने इन मुद्दों को स्वीकारा था। लेकिन फिर भी ये मांगें यथार्थ के धरातल पर उतर कर फलीभूत नहीं हो सकी हैं। सच पूछिए तो इस मुद्दे पर एक बड़े आंदोलन की दरकार है, ताकि जनआवाज दिल्ली तक पहुंचे। इस आंदोलन के सूत्रधार किशोर उपाध्याय का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्र जहां संसाधनों की भारी कमी है, वहां लोगों को घर बनाने के लिए मुफ़्त खनन, घर की खिड़की-दरवाजों और ईंधन के लिए सूखी लकड़ियां मुफ़्त में मिलनी चाहिए।
साथ ही, पढ़ाई और नौकरी के लिए वनवासी का दर्जा देकर आरक्षण पर्वतीय क्षेत्र को दिया जाना जरूरी है। बहरहाल, उक्त मांगें कब फलीभूत होंगी यह तो पता नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि इन मांगों को चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सबका समर्थन जरूर मिल रहा है। इतना होने पर भी ये मांगें पूरी क्यों नहीं हो रही हैं, यह सवाल हर किसी को परेशान कर रहा है।
राज्य में डबल इंजन की सरकार लाकर राज्य को भयमुक्त व भ्रष्टाचार मुक्त करने का दावा करने वाली भाजपा राज्य में दो कदम आगे बढ़ना तो दूर 22 कदम पिछड़ कर रह गई है। उत्तराखंड में भर्ती घोटाला, अंकिता हत्याकांड, विधानसभा में मनमानी भर्ती जैसे अनेक मुद्दे हैं जिनके कारण धामी सरकार व पूर्ववर्ती सरकारों की किरकिरी हुई है। जिस कारण राज्य में सरकार नाम की कोई चीज दिखाई नहीं पड़ती। विकास कार्य ठप हैं, अपराध बढ़ रहे हैं तो महंगाई की मार से आम जन परेशान है। ऐसे में राज्य स्थापना की खुशी भी कहीं दिखाई नहीं पड़ती।
पूर्व मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने राज्य में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देकर जहां राज्य को आर्थिक स्वावलम्बन के रास्ते पर ले जाने की कोशिश की थी, वहीं बीस सूत्री कार्यक्रम में उनके रहते राज्य को लगातार चार बार देशभर में पहला स्थान मिला था। लेकिन आज विकास की सोच कहीं खो गई है। राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से विपक्ष ही नहीं, सत्ता पक्ष के लोग भी असन्तुष्ट नज़र आ रहे हैं।
राज्य स्थापना का उत्साह ठंडा सा है। कुछ बेतहाशा बढ़ती महंगाई के कारण तो कुछ सरकार की निष्क्रियता के चलते उत्तराखंड मायूसी व निराशा के भंवर में फंसा है। लेकिन हालात तब तक ऐसे ही रहेंगे, जब तक कि राज्य के लोगों के सपनो का उत्तराखंड नहीं बन जाता। इसके लिए कुर्सी के बजाय जनसेवा की सोच ही कारगर हो सकती है। जिसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है। इसी कारण 22 वर्षों बाद भी उत्तराखंड न स्वावलंबी बन पाया और न ही विकास में अग्रणी हो पाया।