विधान सभा में अवैध ढंग से हुई नियुक्तियों को लेकर सरकार अब खुद कटघरे में है। हालांकि, हाईकोर्ट ने कार्मिकों के पक्ष में फैसला दे दिया है। इस पर तो टिप्पणी नहीं की जा सकती। लेकिन हाईकोर्ट ने इसे लेकर सरकार से जवाब तलब किया है। अब सरकार क्या जवाब देगी, इस बात से हरेक जागरूक व्यक्ति वाकिफ है…
विधान सभा में अवैध ढंग से हुई नियुक्तियों को लेकर सरकार अब खुद कटघरे में है। हालांकि, हाईकोर्ट ने कार्मिकों के पक्ष में फैसला दे दिया है। इस पर तो टिप्पणी नहीं की जा सकती। लेकिन हाईकोर्ट ने इसे लेकर सरकार से जवाब तलब किया है। अब सरकार क्या जवाब देगी, इस बात से हरेक जागरूक व्यक्ति वाकिफ है।
हां, हाईकोर्ट अपनी जगह पर सही है और विधान सभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भी अपनी जगह पर सही हैं। तो बड़ा सवाल यह है कि आखिर गलत कौन है? दरअसल, यह सब एक राजनीतिक स्टंट के सिवाय और कुछ भी नहीं है। समझने की यह जरूरत है कि विधान सभा में अवैध ढंग से दो बार नियुक्तियां हुई हैं।
एक बार जब कांग्रेस की सरकार उत्तराखंड की सत्ता में थी। उस समय गोविंद सिंह कुंजवाल उत्तराखंड विधान सभा के अध्यक्ष थे। कुंजवाल ने इस छोटी सी विधान सभा में कुल 150 लोगों की नियुक्तियां कानून को ठेंगा दिखाकर कीं। दूसरी नियुक्तियां वर्तमान वित्त मंत्री और विधान सभा के पूर्व अध्यक्ष रहे प्रेम चंद्र अग्रवाल के समय हुई हैं।
अग्रवाल ने लगभग 100 नियुक्तियां की जिनमें करीब 72 को नियमित नहीं किया गया है। जबकि, शेष लोगों को नियमित किया गया है। ऐसे में जो कार्मिक नियमित नहीं हैं, उन पर संकट जरूर है। खास बात यह है कि गोविंद सिंह कुंजवाल ने अपने कार्यकाल में रखे गये सभी लोगों को नियमित कर दिया था।
विधान सभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी ने नियमित और अनियमित दोनों ही कार्यकाल में हुई नियुक्तियों को अवैध करार करते हुए सभी की नियुक्तियां रद्द कर दी थीं। उसके बाद 102 से ज्यादा लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है।
जिनकी अर्जी पर हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि किसी कार्मिक को नहीं हटाया जाएगा। कोर्ट का फैसला सर्वमान्य होता है। हाईकोर्ट का फैसला कार्मिकों के पक्ष में आया है। अब देखना है कि सरकार क्या जवाब देती है। क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी।
अहम सवाल यह है कि वर्ष 2000 से वर्ष 2015 तक कुल 396 नियुक्तियां उतराखण्ड विधान सभा में हुई हैं जिनमें मुख्य रूप से नेताओं के चहेते शामिल हैं। यह भी सच है कि सारी नियुक्तियां गलत तरीके से हुई हैं। अब ये सारी नियुक्तियां कानूनी पचड़े में फंसी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें उत्तराखंड सरकार और विधान सभा अध्यक्ष की फजीहत हुई है।
हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से कमजोर पैरवी की गई है। हाईकोर्ट के सवालों का जवाब सरकारी अधिवक्ता नहीं दे पाए। अब इसके पीछे क्या वजह है। इसे समझना बेहद जरूरी है। कहीं यह सरकार की ढुलमुल नीति तो इसके पीछे नहीं है।
इतिहास गवाह है कि कई बार सरकार की ढुलमुल नीति या यूं कहा जाए कि कमजोर पैरवी के कारण सरकार को मुंह की खानी पड़ी है। अब तो यह तय हो गया है कि बर्खास्त हुए सभी कार्मिक पुनः बहाल हो जाएंगे। मामला कोर्ट में चलेगा।
सबको पता है कि कोर्ट में जो प्रकरण पहुंच गया है उसका निपटारा आसान नहीं होता है। मामले को सुलझाने में वर्षों लग जाते हैं। इसी का नाम कानून है। सरकारें जरूर कहती है कि फटाफट मामले सुलझाने की दिशा में पहल जारी है। पर होता कहां है।
बहरहाल, एक पक्ष तो यह भी है कि कार्मिकों का इसमें कसूर क्या है। उनको नौकरी की जरूरत थी, मिल गई। अब कैसे मिली, यह पड़ताल का विषय है। सजा तो उनको मिलनी चाहिए जो इस धंधे में शामिल हैं। खैर जो हो, यह तो भविष्य में पता चल ही जाएगा कि इसमें सरकार की मंशा क्या है। कोर्ट को सबूत चाहिए। और सबूत पेश करने की जिम्मेदारी सरकार की है। फिलहाल, इस प्रकरण पर पूरे देश की नजर है ।