आह! रावण…

सुशील उपाध्याय
एक बार फिर रावण जलाया जाएगा।
हमारा मन नहीं भरता, बार बार जलाते हैं।
रावण जलाते हैं, ताकि हम पर सवाल खड़े ना हो जाएं।
रावण जलता है, मन खिन्न और उदास हो जाता है, विद्वता का ऐसा अंत ? या हमारे भीतर के अहंकार का अंत?
रावण के साथ ज्ञान, हठ और श्रेष्ठता ग्रंथि की परंपरा का भी दहन हो जाता है क्या ?
ज्ञान से उपजे वैभव का अंत हो जाता है।
बस, कथाएं और भक्त रह जाते हैं, विभीषण रह जाते हैं।
उदास अयोध्या रह जाती है।
रावण तो जल जाता है, पर सीता का वनवास खत्म नहीं होता।
विभीषण के राज में ना जाने कौन खुश थे ?
अयोध्या में सीता के बिना अकेले रह गए भगवान राम को कभी तो रावण का स्मरण आता होगा।
उन्होंने तो रावण को घृणा के साथ जलाने को नहीं कहा, ना ऐसी परम्परा शुरू की।
रावण का पांडित्य यकीनन प्रभावित करता है। तमाम कमियों के बावजूद प्रभावित करता है।
शिव जब भी रावण रचित स्त्रोत और उसकी प्रार्थनाओ को सुनते होंगे तो शायद उनका मन भी द्रवित होता होगा।
जलता हुआ रावण और प्रार्थना रचता रावण, ना जाने क्या सच है।
जलता हुआ रावण बार- बार बताता है, कुछ तो घृणित है हमारे भीतर। वही जलता है, जलता रहेगा। क्योंकि न हम राम को समझते और ना रावण को।
बस, ये जिद पाले हुए हैं कि सच एक ही तरफ होता है।
विजयी का ही सच होता है।
रावण का सच केवल अखंड अहंकार है। सच में !
राम की तलाश तो बहुत मुश्किल है, तो फिर कोशिश करते हैं भीतर का रावण दिख जाए।
और चाहे जिस रूप में दिख जाए, ज्ञानी और अहंकारी।
ज्ञान तो क्या हारेगा, अहंकार हार जाएगा।
शेष वही बचेगा, जिसके पास भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण को ज्ञानोपदेश के लिए भेजते हैं।
राम की जय हो।
उनका नायकत्व, रावण को खल बनाए बिना भी पूर्ण होता है।

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