सुशील उपाध्याय।
चकबस्त का एक मशहूर शेर है,”बाद-ए-फना फिजूल है नामोनिशां का जिक्र, जब हम न रहे तो रहेगा मजार क्या।” चकबस्त अगर हरिद्वार में ऋषिकुल के गंगा घाट पर उन लोगों को देखते हैं जो यहां अपने नाम का बड़ा-सा बोर्ड लगवा रहे हैं तो उन्हें अपने शेर पर संदेह होने लगता। खैर, इन लोगों को यकीन है कि उनके नाम का ये बोर्ड कयामत के दिन तक यहां रहेगा और जो भी लोग आएंगे उन्हें जरूर याद करेंगे।
बोर्ड पर दर्ज किए जा रहे ब्यौरे में जातीय कुलनाम और पदवियां भी जुड़ी हुई हैं। एक मोटा, जरूरत से ज्यादा बड़े आकार वाले पेट का मालिक लगातार पेंटर को निर्देश दे रहा है कि नाम कितना भव्य और आकर्षक होना चाहिए ताकि हाईवे से गुजरते हुए लोगों का भी ध्यान इस पर पड़े।
पास में ही, धार्मिक लोगों ने घाट का एक किनारा मंदिर के नाम पर कब्जा लिया है। यहां भगवान की छोटी-छोटी मूर्तियां रखी हुई हैं। कभी-कभी लोगों का ध्यान इस तरफ जाता है तो इन मूर्तियों पर भी माला-फूल चढ़ा जाते हैं।
अक्सर सोचता हूं, यदि भगवान अपने भक्तों से मांग करने लगे कि मुझे नियमित रूप से नहलाओं, नए कपड़े पहनाओ, भोजन कराओ और मेरी सेवा-सुश्रुषा करो तो लगता है कि मनुष्य उसी दिन भगवान से नाराज हो जाएगा और दूरी बना लेगा। चूंकि अभी सब कुछ हमारी सुविधा के अनुरूप हो रहा है इसलिए भगवान से रिश्ता बना हुआ है।
घाट के उस तरफ सर्विस रोड के किनारे पर एक छोटी सी जगह पर तीन पिल्ले मौजूद हैं। यहां कुछ दिन से एक सुखद दृश्य देखने को मिलता है। एक युवा जोड़ा बाइक से आता है,कुछ देर चहलकदमी के बाद इन पिल्लों से खेलने लगता है। लड़की इनके लिए दूध और बिस्किट लेकर आती है। ये इतने छोटे हैं कि अभी खुद खाने की स्थिति में नहीं है, लड़की एक छोटा इंजेक्शन भी लेकर आती है जिसमें बोतल से दूध भरती है और फिर इनका मुंह पकड़ कर एक-एक करके उन्हें पिलाती है।
इनके पैदा होते ही एक दुर्घटना हुई। सड़क पार करते हुए इनकी मां किसी गाड़ी के नीचे आकर कुचली गई। तब से इन्हें नहीं पता कि कौन उनका पालन-पोषण कर रहा है। इस काम में लड़का भी पूरी मदद करता है। इन्हें देखता हूं तो लड़के की हर गतिविधि में एक भाव मौजूद होता है, वह भाव,खुद को करुणा से परिपूर्ण और दूसरों की कदर करने वाले मनुष्य के रूप में स्थापित करने का है।
मनोवैज्ञानिक तौर पर देखें तो लड़की के जीवन में इस लड़के की मौजूदगी तभी गहरी होगी जब ये अपने व्यवहार में दया-करुणा और केयर, इन सब को उच्च स्तर पर साबित कर पाएगा। इन दोनों के आने और मेरे पहुंचने का समय संयोग से एक ही है।
फोर लेन हाइवे से जुड़ी इस सर्विस रोड पर शाम को बहुत सारे लोग घूमने आते हैं। ज्यादातर लोग उम्रदराज हैं और चीजों को बहुत ही आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। सर्विस रोड के काफी बड़े हिस्से को गेट लगाकर बन्द किया गया है। इस हिस्से के अंदर कोई धार्मिक संस्था पार्क विकसित कर रही है।
पार्क विकसित होने में तो टाइम लगेगा, लेकिन दोनों तरफ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवाया गया है, “प्रेमी जोड़ों का प्रवेश वर्जित है, पकड़े जाने पर पुलिस को सौंपा जाएगा।” अक्षरों की बनावट से लिखने और लिखवाने वाले, दोनों की कुंठा का साफ पता चलता है।
पास में ही गंगा के घाट पर बनी एक ऊंची जगह पर बैठ कर शाम के घुमन्तु उम्रदराज लोगों को देखता रहता हूं। मेरी भूमिका एक निष्क्रिय रूप से देखने वाले व्यक्ति की होती है। जो हमेशा सोचता है कि रात अंधेरे में इस लिखे हुए पर काला रंग पोतना है। यह भी सोचता हूँ कि किसी दिन इन पिल्लों के लिए कुछ खाने को लेकर आऊंगा। मेरा विचार जल्द ही बदल जाता है। मुझे क्या जरूरत है, यह लड़की तो इनके लिए लेकर आ ही रही है! पर, ये जोड़ा निगाह में है। इनकी आमद ज्यादा दिन जारी नहीं रह पाएगी।
जिंदगी से चिढ़े हुए लोगों को लगता है कि इस सर्विस रोड पर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो प्रेमी-प्रेमिका हैं। और इनकी निगाह में प्रेम एक बड़ा गुनाह है! शायद उन्हें लगता है कि इस सड़क पर गृहस्थी के जाल में जकड़े हुए और उससे निराश हो चुके लोगों को ही घूमने का अधिकार है।
प्रेम में खोए हुए लोगों को यहां नहीं आना चाहिए! और ना ही उन्हें अनाथ हो चुके और मां के बिना मृत्यु की तरफ जा रहे पिल्लों पर इतनी दया दिखानी चाहिए! यह सोच एक खास तरह के नियंत्रण के भाव की तरफ संकेत करती है।
यहां एक पुरानी पीढ़ी है जो या तो जीवन से थक गई है या हर चीज से ऊब गई है इसलिए उसे लगता है कि कोई भी रचनात्मक क्रिया या अच्छा भाव जगाने वाली चीज उनके आसपास हो रही है तो उस पर भी उनका नियंत्रण होना चाहिए। यह मनुष्य की पीढ़ियों के बीच का अनवरत संघर्ष है, जिसका कोई एक सिरा पकड़ में नहीं आता।
यहां तीन तरह के चित्र हैं-एक, लड़की और उसका प्रेमी, दूसरा, मैं जो हर चीज दूर बैठकर देखना चाहता है और तीसरे वे जो घाट के किनारे पर अपने नाम को सजा रहे हैं और हर सार्वजनिक जगह पर एकाधिकार चाहते हैं। वस्तुतः कोई भी गलत नहीं है। तीनों तरह के लोग अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं, अच्छे और बुरे के पैमाने से परे।
कई बार सोचता हूं कि आज ये लड़का इस लड़की की इतनी फिक्र कर रहा है, जब ये एक पारिवारिक रिश्ते में आएगा, तब भी इतनी ही कर पाएगा ? बार-बार ओशो रजनीश की वह बात याद आती है कि पुरुष अपनी मूल प्रकृति में इस तरह का बना है कि वह स्त्री को पाने तक ही सदाचारी रहता है। जैसे ही वह किसी स्त्री को पा लेता है, तत्काल नई स्त्री की तलाश में लग जाता है। अपवाद हर जगह होते हैं, लेकिन अपवादों से किसी समूह के चित्र का निर्धारण नहीं होता।
अब देर शाम हल्की ठंड महसूस होने लगी है। अंधेरा घिर रहा है, घूमने वाले भी अपने घरों की तरफ जा रहे हैं। लड़की ने पिल्लों के लिए गत्ते के डब्बे को घर की शक्ल दे दी है। मोटा आदमी घाट पर लगाये गए बोर्ड पर, ठीक अपने नाम के ऊपर बिजली का बल्ब लगवा रहा है। ताकि नाम चमकता रहे।
भगवान की छोटी मूर्तियां गहराते अंधियारे में भी उतने ही निरपेक्ष भाव से अपनी जगह पर ठिठकी हुई हैं, जितने की घने उजाले के वक्त थी। लौटते हुए लोगों ने भगवान को अकेला छोड़ दिया है। किसी शायर ने क्या खूब लिखा है, ” मस्जिद तो बना ली दम भर में ईमां की हरारत वालों ने, मन अपना पुराना पापी था बरसों में नमाजी बन न सका।”