देहरादून। बद्रीनाथ के पूर्व विधायक महेंद्र प्रसाद भट्ट जीवन भर संगठन के ही खेवनहार रहे हैं। इसके चलते अब उन्हें भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी गई है तो उनके सामने सांगठनिक कौशल की परीक्षा पास करने की चुनौती आ खड़ी हो गई है। हालांकि प्रदेश अध्यक्ष पद पर काबिज होने से पूर्व विधायक भट्ट ने एक तरह से हारी बाजी जीत ली है।
भाजपा नेता भट्ट को संगठन का उस्ताद मान कर समर्थक प्रेरित करते रहते हैं। अब जबकि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की सांगठनिक जिम्मेदारी मिली है तो उनके सामने सांगठनिक कौशल की परीक्षा को पास कर अपना हुनर प्रदर्शित करने की चुनौती आ गई है।
बताते चलें कि भट्ट ने भाजपा में संगठन से ही अपनी सियासी पारी की शुरुआत की है। 1991 से 1996 तक एबीवीपी के सह सचिव रहे और फिर 1994 से 1998 तक एबीवीपी टिहरी के विभाग संगठन मंत्री रहे। भाजयुमो के प्रदेश सचिव पद पर उन्हें 19९8 से 20 तक काम करने का मौका मिला। फिर 20 से 202 तक महासचिव पद पर रहे।
भाजयुमो प्रदेश अध्यक्ष पद पर 2002 से 2004 तक काम किया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और हिमाचल भाजपा के प्रदेश प्रभारी पद का दायित्व भी उन्होंने निर्वहन किया। 2012 से 2014 तक भाजपा के गढ़वाल संयोजक और 2015 से 2020 तक प्रदेश मंत्री पद पर रहे। 2002 से 2007 तक नंदप्रयाग विधान सभा के विधायक रहे। 2007 में पराजय का सामना करना पड़ा।
2012 में उन्हें टिकट ही नहीं मिला। 2017 में बद्रीनाथ विधानसभा से विधायक बने और मौजूदा साल में विधानसभा चुनाव में बद्रीनाथ विधान सभा से पराजित हो गए। मौजूदा विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करने के बावजूद वे सांगठनिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहे।
इसी सक्रियता के चलते उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान मिली है। सांगठनिक कौशल में निपुण बताए जा रहे भट्ट का अधिकांश जीवन संगठन की सेवा में ही रहा। यही वजह है कि जब वे विधायक पद पर रहे तो विभिन्न राज्यों में चुनावों के दौरान वे अपनी विधान सभा को छोड़ कर प्रचार में जुट जाते थे।
संभवत: बदरीनाथ सीट पर उन्हें इसी बात का खामियाजा भुगतना पड़ा। मोदी लहर में जबकि नए नवेले लोग विधान सभा की देहरी तक पहुंचे तो महेंद्र भट्ट जीत के मिशन में पिछड़ गए। भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने इस बार पराजित विधायक भट्ट पर दांव चला है। वैसे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के भी पराजित होने पर उन्हें सीएम की कुर्सी पर आसीन कर दिया गया। भट्ट की तैनाती को इसी रूप में देखा जा रहा है।
अब जबकि भट्ट संगठन के प्रदेश अध्यक्ष पद पर काबिज हो गए हैं तो उनके सामने 2023 में निकाय चुनाव फतह और 2024 में लोकसभा चुनाव को ऐन-केन प्रकारेण जीतने की चुनौती है। इसलिए उन्हें सभी क्षत्रपों को एकजुट कर जीत की पटकथा लिखने के लिए समर्पित करना होगा।
भाजपा के सत्ता में होने के कारण तमाम लोगों की निगाह संगठन तथा दायित्वों पर टिकी है। ऐसे में समर्पित कार्यकर्ताओं को एडजस्ट करना भी चुनौती रहेगी। विधानसभा चुनाव में टिकट से मात खाए तमाम भाजपा के दिग्गज भविष्य की राह देख रहे हैं। ऐसे में भट्ट को पुराने से लेकर नई पीढी के कार्यकर्ताओं को संगठन के लिए समर्पित करना होगा। यही उनकी सांगठनिक मजबूती की कसौटी भी होगी।
चमोली जिले में भी उनके लिए चुनौती मुंह बाए खड़ी है। कार्यकर्ताओं को संगठन के प्रति एकजुट करने पर जोर नहीं दिया गया तो फिर भविष्य की चुनौती बनी रहेगी। वैसे इस बार पराजय के चलते वे भविष्य को लेकर काफी चिंता में डूबे पडे थे। राष्ट्रीय नेतृत्व ने उन पर दांव चला है तो कहा जा सकता है कि पूर्व विधायक महेंद्र भट्ट हारी बाजी जीत गए हैं। अब सांगठनिक कौशल पर ही उनका सियासी भविष्य निर्भर करेगा।