देहरादून। वजूद बचाए रखने को छटपटा रही कांग्रेस अब प्रदेश अध्यक्ष तथा नेता प्रतिपक्ष के चयन के सवाल पर कार्यकर्ताओं की मुखालफत के चलते कांग्रेस संकट में आ घिर गई है। इसके चलते कांग्रेस में सिर मुंडाते ही ओले गिरने वाली कहावत बयां होने लगी है।
विधान सभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता में वापसी करने के बजाय भाजपा के मुकाबले औैधे मुंह गिर गई। इसके चलते कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने हार का जिम्मा लेते हुए नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया। नेता प्रतिपक्ष के चयन को लेकर भी कांग्रेस हाईकमान कोई निर्णय नहीं ले पाया।
यहां तक कि विधान सभा सत्र में भी कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष बिना ही सदन में मौजूद रहने को विवश रही। अब जबकि एक माह बाद कांग्रेस ने नेता प्रतिपक्ष, प्रदेश अध्यक्ष तथा विधान मंडल दल के उप नेता के नामों की घोषणा की तो बवाल खड़ा हो गया है। इस कारण कांग्रेस हाईकमान अपने ही कार्यकर्ताओं के रोष के आगे औंधे मुंह गिर गया है।
जिस तरह कांग्रेस में तीनों पदों को लेकर गढ़वाल मंडल की उपेक्षा का सवाल खड़ा हो गया है उससे वजूद बचाए रखने को छटपटा रही कांग्रेस के सामने गहरा संकट खड़ा हो गया है। दरअसल उत्तराखंड कांग्रेस में राज्य बनने के बाद लीडरशिप को लेकर एक-दूसरे को पछाड़ने का दौर चलता रहा।
कांग्रेसी इस दौड़ में सियासी खेत बचाए रखने के बजाय खेत को ही तहस-नहस करने में जुटे रहे। मौजूदा विधान सभा चुनाव में पराजय का मुख्य कारण कांग्रेसियों की एक-दूसरे को निपटने की वजह प्रमुख रही है।
टिकट बंटवारे में जिस तरह कांग्रेसी आपस में लड़ते भिड़ते रहे उसके चलते ही भाजपा की सत्ता वापसी का मार्ग प्रशस्त हुआ। कहा जा सकता है कि आपसी वर्चस्व की जंग के चलते लोगों ने कांग्रेस के बजाय भाजपा पर ही भरोसा करना बेहतर समझा। गढ़वाल मंडल में एक दौर में कांग्रेस की स्थिति भाजपा के मुकाबले काफी मजबूत रही है।
वर्चस्व की जंग में अब गढ़वाल कांग्रेस के हाथ से फिसलता जा रहा है। पौड़ी संसदीय क्षेत्र में एक दौर में सांसद सतपाल महाराज के इशारे पर ही कांग्रेस चलती थी। 2002 में जब महाराज समर्थकों को किनारे किया जाने लगा तो तब उन्होंने विद्रोह का जैसा बिगुल बजा दिया था।
इसके चलते ही कांग्रेस हाईकमान को तब करीब 8 दावेदारों के टिकट बदलने पड़े थे। टिकट बदलने पर सभी जीत दर्ज कर गए और कांग्रेस अपना दबदबा पहले ही चुनाव में कायम कर सत्ता की दहलीज पर पहुंच गई। 2007 में भी कांग्रेस ने गढ़वाल मंडल में बेहतर प्रदर्शन किया।
यह अलग बात है कि तब भाजपा की सरकार अल्पमत में होने के बावजूद सत्ता पर काबिज हो गई। 2012 में भी कांग्रेस ने खासकर गढ़वाल संसदीय सीट पर बेहतर प्रदर्शन किया और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई। इस दौरान गढ़वाल संसदीय सीट के अधीन वाले विधायकों की उपेक्षा होने लगी।
यही वजह है कि सतपाल महाराज ने 2014 में कांग्रेस को ही अलविदा कर भाजपा का दामन थाम लिया। इसके बाद 2016 में कांग्रेस में जबर्दस्त विद्रोह हुआ और गढ़वाल सीट के अधीन रामनगर की तत्कालीन कांग्रेस विधायक अमृता रावत, रुद्रप्रयाग के तत्कालीन विधायक व काबीना मंत्री डा हरक सिंह रावत, नरेंद्र नगर के विधायक सुबोध उनियाल तथा केदारनाथ की विधायक शैलारानी रावत ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया।
2017 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन कोई करिश्मा नहीं कर पाया। इसके चलते गढ़वाल संसदीय क्षेत्र की विधान सभा सीटों पर कांग्रेस को बुरी मात खानी पड़ी। मौजूदा 2022 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की सत्ता वापसी का वातावरण साफ तौर पर दिखाई दे रहा था किंतु राज्य स्तर पर चल रहे आपसी झगड़े का मतदाताओं पर असर गलत गया।
इसके चलते गढ़वाल संसदीय सीट की 14 विधान सभा सीटों में से कांग्रेस केवल बद्रीनाथ विधान सभा सीट पर ही काबिज हो पाई। पूर्व काबीना मंत्री राजेंद्र सिंह भंडारी अपने बलबूते जीत दर्ज करने में सफल हुए। वह तीसरी बार राज्य विधान सभा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
हालांकि गढ़वाल से सटी टिहरी संसदीय सीट पर भी कांग्रेस 2 ही विधान सभा सीटों पर काबिज हो पाई और 12 सीटों पर औंधे मुंह गिर गई। इस कारण कांग्रेस की सत्ता वापसी की संभावना पर ग्रहण लग गया। हालांकि हरिद्वार संसदीय क्षेत्र, अल्मोड़ा तथा नैनीताल-ऊधमसिंह नगर संसदीय सीटों पर कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। 16 सीटों पर कांग्रेस अपना वर्चस्व कायम करने में सफल रही।
माना जा रहा था कि हाईकमान गढ़वाल में वजूद बचाने को छटपटा रही कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम करेगा किंतु कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष तथा उप नेता की कुर्सी को लेकर कांग्रेस ने गढ़वाल को दरकिनार कर कुमाऊं मंडल पर दांव खेल दिया। इसके चलते प्रदेश अध्यक्ष तथा नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए दावेदारी जता रहे बद्रीनाथ के विधायक भंडारी की भी उपेक्षा कर दी गई।
यही नहीं नेता प्रतिपक्ष रहे प्रीतम सिंह को भी दरकिनार कर दिया गया। यहां तक कि गणेश गोदियाल की पुनर्वापसी पर भी विराम लगा दिया गया। गढ़वाल मंडल की उपेक्षा के सवाल पर तमाम कांग्रेसी भडक़ गए हैं। हाईकमान के फैसले के खिलाफ इस्तीफे की पेशकश कर कार्यकर्ताओं ने हाईकमान के निर्णय को ही सवालों के घेरे में ला खडा कर दिया है।
इसके चलते वजूद बनाये रखने को छटपटा रही कांग्रेस के लिए बड़ा संकट खड़ा हो गया है। कहा जा सकता है कि हाईकमान का फैसला कांग्रेस के लिए सिर मुंडाते ही ओले गिरे वाली कहावत को बयां कर गया है।
कार्यकर्ताओं के आक्रोश के चलते हाईकमान के इस निर्णय से 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव की संभावनाओं पर संशय के बादल मंडराने लगे हैं। अब देखना यह है कि वजूद बचाए रखने को छटपटा रही कांग्रेस के लिए हाईकमान किस तरह के कदमों के साथ आगे बढ़ता है। इस पर ही कांग्रेसी सियासत का भविष्य निर्भर करेगा।