- प्रदर्शन की जगह दर्शन वाली संस्कृति ने डुबोई पार्टी की लुटिया
- कट्टर हिंदुत्व और नरम हिंदुत्व की चाल में फंस गई कांग्रेस
अमित नेहरा
नई दिल्ली।देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस कई दशकों तक केंद्र और राज्यों में बेहद ताकतवर स्थिति में थी और उसके पास बहुत बड़ा कैडर भी था। लेकिन आज वही कांग्रेस, छोटे-छोटे दलों के सामने भी असहाय महसूस कर रही है। दरअसल, साल 2014 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आगमन के साथ ही कांग्रेस के दुर्दिन शुरू हो गए, जो अभी तक जारी हैं।
इसके लिए मोदी नहीं, बल्कि खुद कांग्रेस जिम्मेदार है। दरबारी संस्कृति, लचर राष्ट्रीय नेतृत्व, कड़े व प्रभावी फैसले नहीं ले पाना और नई राजनीति की जगह पारंपरिक राजनीति पर चलना निरंतरता का अभाव, परिवारवाद, स्पष्ट रोडमैप का न होना, मतदाताओं से सीधा संवाद न होना, बड़े नेताओं का फील्ड में दिखाई न देना तथा पार्टी के विभिन्न मोर्चों का निष्क्रिय होना आदि अनेक वजहें हैं, जिनके कारण कांग्रेस रसातल में जा रही है।
लचर नेतृत्व का उदाहरण यह है कि देश के अधिकांश प्रदेशों में जिला और ब्लॉक स्तर पर पार्टी का संगठन ही नहीं है। सच तो यह है कि कांग्रेस अब एक राजनीतिक पार्टी नहीं रह गई है, बल्कि अब यह सामंतशाही, पारिवारिक दुकान या जागीर बन गई है, जिसके उत्तराधिकारियों में गद्दी संभालने का कौशल ही नहीं है।
सोनिया गांधी की अस्वस्थता के चलते पार्टी चलाने की जिम्मेदारी राहुल गांधी पर आ गई है, लेकिन राहुल को अपने और कांग्रेस के रोडमैप को लेकर ही स्पष्टता नहीं है और उनमें बहुत ज्यादा अन्तर्विरोध भी हैं। वैसे भी किसी भी खानदान की तीसरी-चौथी पीढ़ी तक आते-आते शिथिलता आ ही जाती है।
यही स्थिति कांग्रेस के सामने आ चुकी है। पार्टी नेहरू युग के बाद उनके परिवार के इर्द गिर्द ही घूमती रही है। हालांकि, कुछ समय पहले उनके नाती राहुल गांधी ने पार्टी के राष्ट्रीय पद से इस्तीफा देकर यह मैसेज देने की कोशिश की थी कि कांग्रेस में लोकतंत्र है, लेकिन इस प्रकरण का जनता में मैसेज उल्टा गया। लोगों ने इसे नाटकबाजी करार दिया। इससे राहुल की स्थिति और ज्यादा हास्यास्पद हो गई।
जबकि कांग्रेस की लड़ाई उस बीजेपी के साथ है, जिसने राजनीति को कारपोरेट की तरह गली-मोहल्लों तक पहुंचा दिया है। नरेन्द्र मोदी ने वक्त के अनुरूप खुद को तथा पार्टी को ढ़ाला। साथ ही, राजनीति में इन्नोवेटिव प्रयोग किये। भारत की युवा आबादी को फोकस में रखकर सोशल मीडिया का बेहतरीन उपयोग किया। यूट्यूब और फेसबुक जैसे प्लेटफार्मों द्वारा अपना और बीजेपी का प्रचार किया। पार्टी ने आक्रामक तरीके से अपनी जबरदस्त और विशाल आईटी सेल बनाई जो सेकेंडों में अपने पक्ष और विरोधियों के खिलाफ माहौल बनाने में सक्षम है। यही नहीं, सोशल मीडिया के संचालकों के साथ भी कूटनीतिक संबंध स्थापित किये गए। इसके तहत विपक्षी पार्टियों के प्रचार को या तो सोशल मीडिया के प्लेटफार्मों से हटवा दिया गया या उसकी पहुंच बेहद सीमित करवा दी गई।
कांग्रेस इस मोर्चे पर बेहद फिसड्डी साबित हुई, बेशक राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी से युवा हैं, लेकिन वो देश के युवाओं और सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा नहीं लगा पाए। इससे कांग्रेस और उनकी छवि जनता तक नहीं पहुंच पाई और पार्टी सोशल मीडिया में अपने खिलाफ दुष्प्रचार को न तो रोक पाई और न ही ऐसे मैटेरियल पर प्रतिबंध लगवा पाई। वो अपने पारंपरिक प्रचार तंत्र और मेनस्ट्रीम मीडिया के भरोसे रही, लेकिन ये दोनों अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
उधर, नरेन्द्र मोदी अपने एक नारे पर शुरू से ही काम कर रहे हैं वो है कांग्रेस मुक्त भारत। लोग मजाक में कहते हैं कि इस चक्कर में देश तो कांग्रेस मुक्त होता जा रहा है, लेकिन बीजेपी, कांग्रेस युक्त होते जा रही है। क्योंकि बड़ी संख्या में कांग्रेसी नेताओं ने बीजेपी का पल्लू पकड़ लिया है और कमल के निशान पर सांसद व विधायक बन गए हैं। भाजपा हर हालत में कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने में लगी हुई है। काबिले गौर बात ये है कि कांग्रेस की जिस विचारधारा से भाजपा लड़ रही है, कांग्रेस खुद उससे पीछे हटती जा रही है। उसने विचारधारा के लिए आंदोलन से परहेज करने वाली राजनीतिक संस्कृति अपना ली है। पार्टी में विचारधारा में बदलाव की यह शुरूआत इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही हो चुकी थी। इंदिरा ने जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनी मजबूत लोकतांत्रिक परंपराओं को तोड़ डाला और उन्होंने अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर मे देश पर आपातकाल थोप दिया था। इससे पूरे देश की जनता में कांग्रेस का खौफ बैठ गया।
इंदिरा ने कांग्रेस की विचारधारा को ऐसी हानि पहुंचाई जिसकी आज तक भरपाई नहीं हो सकी है। हालांकि, इंदिरा गांधी बेहद मजबूत नेता थी। अत: आपातकाल के बाद विपरीत परिस्थितियों की परवाह न करते हुए उन्होंने कांग्रेस को फिर से सत्ता में काबिज कर दिया। इसके बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस अपनी आर्थिक नीतियों से हटने लगी थी और उदारवादी नीतियों को अपनाया। राजीव गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल में आर्थिक उदारीकरण का दौर चला। देखा जाए तो महात्मा गांधी की नीतियों को नेहरू ने छोड़ना शुरू कर दिया था, इंदिरा और राजीव ने नेहरू की नीतियां छोड़ दीं। नरसिम्हा राव के समय तक आते-आते कांग्रेस, महात्मा गांधी की नीतियों से एकदम अलग हो चुकी थी। उसके बाद 2004 से 2014 तक सोनिया गांधी ने नरसिम्हा राव की आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देने वाले मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जिन्होंने उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया।
दूसरी तरफ बीजेपी ने पूरे देश में नरेन्द्र मोदी के मजबूत नेतृत्व में कॉरपोरेट पूंजीवाद और कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा को लेकर एक मजबूत अभियान चला रखा है। बीजेपी ने पाकिस्तान और मुसलमानों के विरोध के जरिये राष्ट्रवादी पार्टी की छवि बना ली है। इसके साथ-साथ प्रादेशिक स्तर पर जाति के आधार पर अनेक अवसरवादी गठबंधन भी खड़े कर दिए हैं।
कांग्रेस, बीजेपी की इस चाल में फंस गई, पार्टी ने कट्टर हिंदुत्व के सामने नरम हिंदुत्व रखने की कोशिश की। इसके चलते राहुल गांधी से लेकर दिग्विजय सिंह तक खुद को आस्थावान हिंदू साबित करने में लग गए। इससे उनको मजाक का पात्र बनना पड़ा। नरम हिंदुत्व के जरिये वोटरों को लुभाने की इस कोशिश का विफल होना पक्का था। इसके चलते पार्टी से मुसलमान और दलित भी छिटक गए। पार्टी को समझ में ही नहीं आ रहा कि उसे करना क्या है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी कांग्रेस के इस ढुलमुल रवैये का खूब फायदा उठा रही है।
आज की कांग्रेस न तो गरीबों को अपनी हमदर्द दिखाई देती है और न ही अल्पसंख्यकों को। इस समय कांग्रेस के पास देश पर राज करने की न तो नीयत है और न नीति है, ग्राउंड पर काम होने की बात तो छोड़ ही दीजिए। कांग्रेस के पास एक तुरुप का पत्ता बचा था प्रियंका गांधी। पार्टी ने प्रियंका के नेतृत्व में यूपी विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन वे भी कोई करिश्मा नहीं कर पाई।
कांग्रेस को फिर से केंद्र की सत्ता आना है तो उसे जीरो से गिनती शुरू करनी पड़ेगी और दसियों साल लगातार कल्पनातीत मेहनत करनी पड़ेगी। उसे अपने खिलाफ प्रोपागेंडा से तो निपटना ही होगा, सामने वाली पार्टी के खिलाफ भी बहुत बड़ा अभियान छेड़ना पड़ेगा। इन सभी के लिए उसे देश के युवाओं वैचारिक आधार पर अपने साथ जोड़ना होगा। उसके बड़े नेताओं को दर्शन देने का लोभ छोड़ना होगा और कार्यकतार्ओं के साथ जनविरोधी नीतियों के खिलाफ सड़कों पर लगातार प्रदर्शन करने होंगे। अगर कांग्रेस ऐसा नहीं कर पाई तो सम्भव है कि आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी (आप) जैसे दल केंद्र में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आ जाएं!
तब की कांग्रेस और अब की कांग्रेस
कांग्रेस ने 54 साल, 4 महीने और 27 दिन भारत की सरकार चलाई है। उसके सहयोग से अन्य दलों ने भी 2 साल 10 महीने देश पर शासन किया है। यह कुल समय अवधि 56 साल और 2 महीने हो जाती है। इसकी स्थापना 28 दिसंबर, 1885 में हुई थी। अत: 137 साल की यह देश की सबसे पुरानी पार्टी है जो इस समय भी अस्तित्व में है। आजादी से लेकर 1977 तक कांग्रेस का पूरे देश में एकछत्र शासन रहा। उसके बाद भी 2014 तक अधिकांश कांग्रेस सत्ता में बनी ही रही। लेकिन अगर हाल ही में आयोजित उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव के परिणाम पर नजर डालें तो यह सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी 403 में से केवल 2 ही सीटें जीत पाई।
उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाजपा के 255, सपा के 111, अपना दल (एस) के 12, रालोद के 8, हमारा आम दल व सुभासपा के 6-6, जेडीएल (राजा भैया) के 2, कांग्रेस के 2 व बसपा का 1 सदस्य पहुंचने में कामयाब रहे। इन चुनावों में उत्तरप्रदेश के 15 करोड़ में से 8.35 करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया जिनमें से भाजपा को 3.78 करोड़, सपा को 2.93 करोड़, बसपा को 1.17 करोड़, रालोद को 26.28 लाख और कांग्रेस को केवल 21 लाख वोट मिले। यूपी ही क्यों, उसके साथ ही हुए चार प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस किसी भी राज्य में सरकार नहीं बना पाई और पंजाब में तो अपनी सरकार भी नहीं बचा पाई!