सुशील उपाध्याय
दुनिया में उपलब्ध सबसे श्रेष्ठ दर्शन और सबसे प्रभावपूर्ण तर्क भी युद्ध को जायज नहीं ठहरा सकते। टैगोर के शब्दों के कहें तो जब मानवता और राष्ट्र में से किसी एक के चयन की स्थिति पैदा हो तो मानवता के पक्ष में खड़े होना चाहिए।
इस पैमाने पर आज भारत को यूक्रेन के साथ दिखना चाहिए, लेकिन वो यूक्रेन के साथ नहीं है। अब दर्शन से परे जाकर देखें तो साफ पता चलेगा कि रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत ने सही निर्णय लिया है। यह निर्णय व्यावहारिक धरातल पर टिका हुआ है। और इसी निर्णय से भविष्य में भारत और भारतीयों की सुरक्षा तय होगी।
अब उन आधारों को देखिए जिनके चलते भारत को मानवता और राष्ट्र के बीच में राष्ट्र को चुनना पड़ रहा है। भारत दो तरफ से दुश्मनों से घिरा हुआ है। यदि भारत को एक साथ पाकिस्तान और चीन से निपटना पड़े तो अमेरिका पर भरोसा किया जा सकता है ? क्या अमेरिका सीधे और खुले तौर पर भारत के साथ खड़ा हो सकता है ?
यूक्रेन को उदाहरण मान लें तो इस सवाल का जवाब संदेह के घेरे में है। और यह नहीं की तरफ ज्यादा झुका हुआ है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, जब पिछले साल चीन ने भारत की सीमा पर 50 हजार से ज्यादा की फौज तैनात कर दी थी क्या उस वक्त संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, महासभा और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ने वैसी तेजी दिखाई थी, जैसी कि आज रूस के खिलाफ दिखती है।
ये भी याद कर लीजिए कि तब भारत को पर्दे के पीछे से रूस से ही मदद मिली थी। यानि भारत के पास केवल रूस ही है जो भारत-चीन के मामलों में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है।
अतीत पर निगाह डालकर देखिए तो पता चलेगा कि बीते 50 साल में दर्जन भर मौकों पर रूस ने वैश्विक स्तर पर भारत की लाज बचाई होगी। वस्तुतः अमेरिका की तुलना में रूस ज्यादा भरोसेमंद है और परखा हुआ दोस्त है। मौजूदा हालात में यदि भारत यूरोप और अमेरिका के खेमे में चला जाता तो निकट भविष्य में उसकी भरपाई संभव नहीं होगी।
इस मामले में इस पहलू को भी देखिए कि यदि भारत रूस का साथ न दे तो रूस, चीन और पाकिस्तान का गठजोड़ बनने में कितनी देर लगेगी! ऐसे गठजोड़ का भारत के पास कोई तोड़ नहीं होगा और देश बेहद गंभीर खतरे में फंस जाएगा। जब तक रूस के साथ हमारा रिश्ता मबजूत है, तब पाकिस्तान और चीन के गठजोड़ का भी आसानी से मुकाबला किया जा सकता है।
सभी जागरूक लोगों को पता है कि भारत हथियारों के मामले में पूरी तरह रूस पर निर्भर है। आज भारत को दुनिया की चौथे-पांचवें नंबर की सैन्य ताकत माना जाता है और इस ताकत के पीछे करीब दो तिहाई हथियार और तकनीक रूस से ही मिली है। इन हथियारों और तकनीक के इस्तेमाल के लिए भी रूस की ही जरूरत पड़ेगी।
मौजूदा दौर में भारत को जिस प्रकार की प्रौद्योगिकी और सैन्य सहयोग की जरूरत है, उसकी पूर्ति में रूस सक्षम है।
फ़ोर्स मैग़जीन की कार्यकारी संपादक गज़ाला वहाब ने बीबीसी हिंदी के पोर्टल पर लिखा, ‘‘हथियारों की ख़रीद में रूस पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए भारत अब फ्रांस, अमेरिका, इज़रायल, ब्रिटेन से भी हथियार ख़रीद रहा है. लेकिन रूस पर रक्षा क्षेत्र में हमारी दूसरी़ क़िस्म की निर्भरता भी है।
अगर भारत में डीआरडीओ मिसाइल बनाता है तो उसमें रूस से भारत को मदद मिलती है, दूसरे देशों से नहीं। न्यूक्लियर सबमरीन में भी रूस जो मदद कर सकता है, वो अमेरिका नहीं कर सकता। रूस भारत को जिस तरह की तकनीक देता है, दूसरे देश नहीं देते।
इस लिहाज से देखें तो भारत के रक्षा और सुरक्षा प्रणाली की नीतियों का आधार बिंदु रूस ही है। रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम का समझौता उपुर्यक्त बातों का बहुत बड़ा प्रमाण है।‘‘
ऐसा मानना बचकाना होगा कि रूस के हाथ खींच लेने पर अमेरिका तत्काल इसकी भरपाई कर देगा। अफगानिस्तान का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं है कि अमेरिका किस तरह और कितनी आसानी से निकल भागता है।
अब यूक्रेन को देख लीजिए, युद्ध के आठ दिन बाद भी अमेरिकी सहायता नहीं पहुंच सकी है और इस बीच यूक्रेन बर्बाद हो चुका है। जबकि, अमेरिकी के राष्ट्रपति अपनी संसद (कांग्रेस) में व्लादिमीर जेलेंस्की की तारीफ करके ही अपने कर्तव्य की पूर्ति कर ले रहे हैं।
भारत की भौगोलिक स्थिति के लिहाज से भी देश को रूस की जरूरत है।
बल्कि, एक मजबूत रूस की जरूरत है जो न केवल सैन्य स्तर पर, बल्कि आर्थिक तौर पर भी मजबूत हो। इसी मजबूती में भारत का हित है। और यही मजबूती भारत को भविष्य के खतरों से बचाएगी। वैसे, अमेरिका का इतिहास और वर्तमान, दोनों ही लाभ हासिल करने की बुनियाद पर खड़ा है। इसलिए अमेरिका के लिए भारत एक बड़ा बाजार हो सकता है, यहां की मेधा उसके लिए उपयोगी हो सकती है, लेकिन वह अच्छा दोस्त भी हो, ऐसा नहीं है।
एक और तथ्य अमेरिका के खिलाफ है, जिसका इन दिनों चीनी नेताओं ने खूब इस्तेमाल किया है। वो ये है कि बीती एक सदी में दुनिया में हुए करीब 250 युद्धों में करीब 200 युद्ध सीधे तौर पर अमेरिका के कारण हुए हैं। बात साफ है, अमेरिका अपने हितों के लिए न युद्ध से परहेज करता और न ही दोस्त बदलने से। जिस पाकिस्तान ने आधी शताब्दी से अमेरिका के पांव चूमे, जब अमेरिका उसका दोस्त नहीं रह सका तो भारत का क्या रह सकेगा।
एक बार पुनः भारत के अब तक के रुख को देखें तो वो हर तरह से सही और संतुलित है। भारत ने यूक्रेन को मानवीय सहायता उपलब्ध कराई है। दोनों पक्षों से शांति स्थापित करने का अनुरोध भी किया है। यूक्रेन के विपक्ष में वैश्विक मंचों पर कोई वोट नहीं दिया है। भारत का रुख इसलिए भी सराहनीय है कि अतीत में जब भी भारत को यूक्रेन की जरूरत पड़ी है, वह हमेशा विरोधी खेमे में ही रहा है। इन बातों छोड़ भी दे तो इस युद्ध में रूस की जीत इसलिए भी जरूरी है ताकि तेल उत्पादन और आपूर्ति पर अमेरिका की चौधराहट स्थापित न हो। फिलहाल, यही कामना की जा सकती है कि युद्ध जल्द खत्म हो, यूक्रेन में पुनर्निर्माण के काम शुरू हों और दुनिया में संतुलन की स्थिति पैदा हो।