देहरादून । साल नया है और मौसम भी सियासी। जाहिर है बातें भी सियासी ही होंगी। आम चुनाव के बहाने जगह-जगह चौपाल सजी हुई है। नई सरकार को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं।
तरह-तरह के सियासी समीकरण बनाकर कोई सरकार भाजपा की बना रहा है तो कोई कांग्रेस की। मैदान में खड़े दूसरे दलों के प्रत्याशी व निर्दलीय किसका सियासी गणित बिगाड़ रहे हैं इस पर भी खूब माथापच्ची हो रही है। यानी हर तरफ चुनाव की सरगर्मी पूरी तरह रफ्तार पर है।
इन सबके बीच सियासत का अजब हाल देखने को भी मिल रहा है।
चुनाव में न मुद्दे हैं ना कोई चेहरा। कहीं सांप्रदायिकता हावी है तो फिर कहीं तुष्टिकरण की राजनीति। बेरोजगारी, पलायन, भू-कानून, लोकायुक्त, महंगाई जैसे मुद्दे गायब हैं। ऐसे में लोगों की पीड़ा गीतों में ढालने वाले लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी का गीत ह्यतन्नि तान तन्नि तून तन्नि ढ़ेबरी तन्नि ऊन, तेरिभि सुणला खैरि पैलि उत्तराखंडै सूण याद आता है।
अर्थात अबकी चुनाव में भी वही ताना-बाना जो कि राज्य गठन के बाद हुए पिछले चार विस चुनाव में हुआ है। चुनावी बेला में सियासी लाभ लेने के लिए जनता को भ्रमित करना सियासतदां का पुराना अंदाज रहा है।
मैदान से लेकर पहाड़ तक पांचवें विस चुनाव की सरगर्मी पूरी रफ्तार पकड़ चुकी है। स्वाभाविक है कि आगामी 14 फरवरी को होने वाले मतदान से पहले सियासतदां के कई दिलचस्प अंदाज देखने को मिलेंगे।
इस दौरान सियासी दंगल में खड़े अपने प्रतिद्वंदियों को मात देने के लिए तरकश से तरह-तरह के तीर भी निकलेंगे और जुबानी जंग भी। शह-मात के इस खेल में बुनियादी मुद्दे लगभग गौण हो गए हैं। ना ही विकास पर बहस हो रही है और ना भविष्य के मास्टर प्लान पर। जुबानी जंग के इर्द-गिर्द है तो सिर्फ वार-पलटवार का राग और आरोप-प्रत्यारोप का प्रहार।
भाजपा हो या फिर कांग्रेस अथवा अन्य छोटे दल व निर्दल विकास के रोडमैप पर सियासत करते हुए कोई दिख नहीं रहा है। यह बात अलग है कि चुनावी घोषणा पत्रों व प्रचार माध्यमों में विकास का ख्याली पुलाव दिखाकर मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की जा रही है।
चुनावी बयार में मतदाताओं को दिखाये जा रहे ये सुनहरे सपने कब साकार हो पाते हैं यह तो भविष्य के गर्त में छिपा हुआ है। एक बात सच है कि राज्य गठन के दो दशक बाद भी उत्तराखंड विकास के लिए छठपट्टा रहा है। विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले इस पर्वतीय राज्य में बढ़ता पलायन व रोजगार बड़ा मुद्दा तो है ही, इसके इतर आवाम को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना भी बड़ी चुनौती।
देहरादून, हरिद्वार व ऊधमसिंहनगर जैसे मैदानी इलाकों में हालात कुछ हद तक बेहतर जरूर हैं, मगर इतने बेहतर भी नहीं कि बारी-बारी से सत्ता संभाल चुके राजनीतिक दल अपना सीना ठोंककर जनता के बीच जाकर वाहवाही लूट सके। नगरीय क्षेत्र में ही उबड़-खाबड़ सडक़ें, चौक नालियां, बदहाल यातायात, आबादी बहुल क्षेत्रों में बिजली के झूलते तार, पटरी से उतरी सफाई व्यवस्था, कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते शहर जैसे सवालों के सामने सभी निरुत्तर हैं।
यही वजह कि चुनावी सरगर्मी में जनहित से जुड़े इन तीखे सवालों से बचने के लिए मैदान में खड़े प्रत्याशी सियासी प्रपंच का खेल खेलकर वोटरों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं। सूरते-ए-हाल जो मैदानी क्षेत्रों का है उससे कई ज्यादा बदतर पर्वतीय क्षेत्रों का। फाइव-जी टेक्नोलॉजी के दौर में भी पहाड़ में अभी भी कई इलाके ऐसे हैं जहां कम्युनिकेशन के लिए मोबाइल सिग्नल तक नहीं है।
बिजली, सडक़, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझना मानों पहाड़वासियों की नियति ही बन गई है। शिक्षा व स्वास्थ्य की बात करें तो चुनावी बेला में लोगों को सुनहरे सपने दिखाने वालों का असली-नकली चेहरा सामने आ ही जाता है। लब्बोलुआब यही कि इस बार के चुनावी बयार में भी अधिकांश चेहरे वही पुराने हैं जो नकली मुखौटा लगाकर वोटरों के दर पर दस्तक दे रहे हैं।