गोपेश्वर। कोरोना महामारी के बीच हो रहे विधान सभा चुनाव में जनसरोकारों से जुड़े असल मुद्दे पूरी तरह हासिए पर चले गए हैं। इस कारण चुनावी प्रतिबंधों के चलते चुनावी सन्नाटे में बेरोजगारी तथा महंगाई जैसे असल मुद्दे गायब से हो गए हैं।
दरअसल नौनिहालों को रोजगार देने के सवाल पर ही उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन ने जोर पकड़ा था।
मंडल कमीशन के लागू होने के बाद सरकारी नौकरी से हाथ धोने की आशंका के चलते ही लोगों ने अपने नौनिहालों के सुरक्षित भविष्य को उत्तराखंड राज्य में बांचा था। यही वजह है कि राज्य आंदोलन में पूरा जनमानस सडक़ों पर कूद पड़ा था। इसके चलते ही राज्य निर्माण का सपना साकार हुआ।
राज्य निर्माण के बाद नौनिहालों के सुरक्षित भविष्य को लेकर बेरोजगारी जैसे मसले पर न तो कोई उपयुक्त नीति बनी और ना ही स्वरोजगार के लिए ही कोई बड़े कदम उठाए गए। इस कारण युवा नौकरी के लिए सरकार की राह तांकते रहे किंतु हालात अब युवाओं को मायूस कर रहे हैं। उत्तराखंड में उद्योगों की भारी कमी के चलते रोजगार के अवसर युवाओं को नहीं मिल पा रहे हैं। इसलिए सबकी नजरें सरकारी नौकरी पर ही टिकी पड़ी है। स्थाई नियुक्ति को सरकारों ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। यही वजह है कि उपनल, आउटसोर्स तथा पीआरडी के माध्यम से ही सरकारें युवाओं को रोजगार देती रही।
मौजूदा दौर में हजारों युवा उपनल, पीआरडी तथा आउटसोर्स के माध्यम से सरकारी सिस्टम का संचालन कर रहे हैं किंतु बढ़ती उम्र के कारण स्थायीकरण की समस्या लटकी पड़ी है। अब तो उपनल तथा पीआरडी और आउटसोर्स के माध्यम से भी नौकरी पाना आसमान के तारे गिरना जैसा हो गया है।
अतिथि शिक्षकों की नियुक्ति से पहाड़ों की शिक्षण व्यवस्था पटरी पर लौट तो आई किंतु हजारों युवाओं का भविष्य अभी भी अधर में लटका पड़ा है। इसी तरह के हालात अन्य सेवारत उपनल, आउटसोर्स तथा पीआरडी जवानों के भी हैं। हालांकि तमाम स्थाई कर्मचारी लगातार सेवानिवृत होते जा रहे हैं और खाली पदों को भरने की कोशिशें नाकाम साबित हो रही है।
किसी पद विशेष के लिए आवेदन करने पर परिणाम आने में 4 से 5 साल गुजर जा रहे हैं। इस तरह के हालातों ने युवाओं को हैरान परेशान कर रख दिया है। हालांकि अब सरकार ने सरकारी नौकरी के बजाय स्वरोजगार पर जोर दिया है किंतु बैंकों की कठिन ऋ ण प्रणाली के चलते भी युवाओं को स्वरोजगार स्थापित करने के लिए पापड बेलने पड़ रहे हैं। छोटे मोटे उद्यम कोई स्थापित कर भी रहा है तो बाहरी कंपनियों की दखल के कारण स्थानीय युवाओँ को कामधाम ही नहीं मिल पा रहा है। इस कारण युवाओँ के अरमानों पर लगातार पानी फिरता जा रहा है। शिक्षित प्रशिक्षित युवाओँ की बड़ी फौज खड़ी होती जा रही है और रोजगार के लिए सरकारी सिस्टम ने पूरी तरह हाथ खड़े कर दिए हैं।
इसके चलते अब युवाओँ के सामने भविष्य का संकट विकराल रू प धारण करता जा रहा है। विधान सभा चुनाव का विगुल बज चुका है तो कोरोना महामारी के चलते बेरोजगारी जैसा मुद्दा भी कोरोना महामारी के कारण नेपथ्य में चले गया है। असल मुद्दे पर न तो सोशल मीडिया पर और ना ही गली चौपालों में होने वाली सियासी दलों की बैठक में कोई बहस हो रही है।
इस कारण युवा अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। कोराना महामारी के चलते चुनावी प्रचार पर लगे सख्त प्रतिबंध के चलते राजनीतिक दल भी अब बेरोजगारों से सामना करने के संकट से निजात पाते दिख रहे हैं। महंगाई का मामला भी कोरोना महामारी के चलते चुनावी परिदृष्य से पूरी तरह गायब हो चला है। महंगाई के कारण आम आदमी त्रस्त है। इस सवाल पर भी चुनावी प्रतिबंधों के चलते बैठकें न होने से कहीं बहस होती नहीं दिखाई दे रही है।
कर्मचारी शिक्षकों की पुरानी पेंशन बहाली की मांग भी नेपथ्य में चली गई है। इस मसले पर भी कहीं कोई बहस होती नहीं दिखाई दे रही है। इस कारण राज्य के तमाम कर्मचारी शिक्षक पेंशन न मिलने के कारण भविष्य को लेकर हैरान परेशान हैं। इसके अलावा जन सरोकारों से जुड़े तमाम सवाल भी मौजूदा चुनाव में गायब से दिखाई दे रहे हैं। फिर भी युवाओँ और आम लोगों की नजरें राष्ट्रीय दलों पर टिकी हैं। पहाड़ों में डाक्टरों की कमी के कारण स्वास्थ्य सेवा जवाब दे रही है। लोगों को सुरक्षित स्वास्थ्य के लिए महानगरों पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है। पहाड़ों के अस्पताल तो महज रेफर सेंटर बने हुए हैं।
इस कारण तमाम लोगों को स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में दम तोडऩा पड़ रहा है। सडक़ नेटवर्किंग पहाड़ की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। अभी भी कई गांवों तक लोगों को मीलों पैदल सफर तय करना पड रहा है। इसके चलते राज्य बनने पर सडक़ सुविधा से जुडऩे का सपना तमाम दूरस्थ क्षेत्र के ग्रामीणों का सपना ही बना हुआ है। अब देखना यह है कि राजनीतिक दलों के एजेंडे में बेरोजगारी, महंगाई समेत जन सरोकारों से जुड़े मामले किस तरह सामने आते हैं। इस पर ही लोगों की भविष्य की राह तय होगी।