गोपेश्वर। विधान सभा चुनाव में भाजपा भी अब कांग्रेस की राह पर निकल पड़ी है। इसके चलते भाजपा के सामने भी अब कुनवे को बचाए रखने की चुनौती आ खड़ी हो गई है।
दरअसल सत्ता में रहते हुए कांग्रेस राज में विधान सभा चुनाव में दावेदारी की महत्वाकांक्षा के चलते कुनवे को संभालने की हमेशा चुनौती बनी रही। कांग्रेसी अपनों के ही खिलाफ चुनावी मैदान में उतर कर या तो पूरा खेल ही सिमटा देते थे अथवा भितरघात जरिए अपनों को निपटाना कांग्रेस की नियति बन गई थी।
हां, कांग्रेस जब सत्ता में नहीं रहती थी तो तब पूरा क चुनवा अपने प्रत्याशियों की जीत के लिए एकजुटता के साथ विपक्ष के अरमानों पर पानी फेर देता था। उत्तराखंड में पिछले कई चुनावों में कांग्रेस अपने प्रतिद्वंदी भाजपा से नहीं अपितु अपनो से ही निपटती रही।
यही वजह है कि पार्टी उम्मीदवारों को अपने ही निपटा कर भाजपा की राह आसान करते रहे। यह भी अजब गजब का ही संयोग है कि अब भाजपा सत्ता में है तो कांग्रेस की तरह भाजपा को भी अपनों से ही चुनौती मिलने लगी है। इस कारण अब भाजपा के सामने भी कांग्रेस जैसे हालात खड़े हो गए हैं।
उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद हुए पहले विधान सभा चुनाव 2002 में चमोली जिले में ही कांग्रेस के ही बगावतियों ने पार्टी प्रत्याशियों की जीत की रफ्तार थामे रखी। 2002 में नंदप्रयाग विधान सभा सीट पर पार्टी ने सुदर्शन कठैत को उम्मीदवार घोषित किया और नामांकन होते होते उनका टिकट ही काट दिया।
कांग्रेस प्रत्याशी सत्येंद्र बत्र्वाल के विरूद्ध तब सुदर्शन कठैत ने बगावत का विगुल बजाया और पार्टी प्रत्याशी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। इसके चलते यह सीट भाजपा के महेंद्र भट्ट की झोली में चली गई। बदरीनाथ सीट पर तब कांग्रेस ने डा अनुसूया प्रसाद मैखुरी को मैदान में उतारा।
उनके विरोध में किसी कांग्रेसी ने बगावत नहीं की तो वह आसानी से 2002 का पहला चुनाव कांग्रेस की झोली में डालने में कामयाब रहे। कर्णप्रयाग सीट पर भी 2002 में कांग्रेस ने पहले सुरेंद्र सिंह नेगी के नाम की घोषणा की। नामांकन होते होते उनका भी पत्ता साफ कर भरत सिंह चौधरी को उम्मीदवार बना दिया गया।
तब नेगी ने बगावती तेवर अपना कर चुनावी ताल ठोंकी और कांग्रेस प्रत्याशी की जीत की संभावनाओं को चकनाचूर कर दिया। इसके चलते यह सीट भी भाजपा के अनिल नौटियाल की झोली में चली गई। पिंडर (अब थराली) सीट पर तब कांग्रेस ने प्रेम लाल भारती को मैदान में उतारा तो कई और कांग्रेसी उनके विरोध में मैदान में कूद पड़े। इसके चलते भाजपा प्रत्याशी जीएल शाह बाजी मार ले गए।
कहा जा सकता है कि 2002 के चुनाव में कांग्रेस के बगावतियों ने ही पार्टी प्रत्याशियों की जीत पर ग्रहण लगाया। 2007 के चुनाव में बदरीनाथ में विद्रोह के हालात नहीं बने। यह अलग बात है कि कांग्रेस प्रत्याशी डा अनुसूया प्रसाद मैखुरी चुनाव हार गए। नंदप्रयाग सीट पर कांग्रेस ने फिर सत्येंद्र बत्र्वाल पर दांव चला तो तत्कालीन जिला पंचायत अध्यक्ष राजेंद्र सिंह भंडारी निर्दलीय मैदान में कूद पड़े।
हालांकि तब भंडारी ने भाजपा प्रत्याशी महेंद्र भट्ट तथा कांग्रेस प्रत्याशी को पराजित कर यह सीट अपने कब्जे में ले ली। कर्णप्रयाग सीट पर तब कांग्रेस ने पृथ्वीपाल सिंह चौहान को मैदान में उतारा। उनके विरोध में भी तमाम कांग्रेसी मैदान में उतर गए। इसके चलते चौहान की जीत की संभावनाओं पर ग्रहण लगा और भाजपा प्रत्याशी अनिल नौटियाल जीत रिपीट करने में कामयाब रहे।
पिंडर सीट पर कांग्रेस ने भूपाल राम टम्टा पर दांव चला था। उस समय कांग्रेस के डा जीतराम ने विद्रोह का विगुल बजा कर एनसीपी प्रत्याशी के रू प में चुनावी ताल ठोंकी। इसके चलते कांग्रेसी कुनवे में मतों के बिखराव के चलते कांग्रेस प्रत्याशी भूपाल राम टम्टा को पराजय का सामना करना पड़ा।
इसके चलते भाजपा के जीएल शाह इस सीट को भाजपा की झोली में डालने में कामयाब रहे। 2012 के चुनाव में भाजपा को भी कांग्रेस की तरह बगावत के चलते पराजय का सामना करना पड़ा। भाजपा ने तब तत्कालीन बदरीनाथ के विधायक केदार सिंह फोनिया, कर्णप्रयाग विधायक अनिल नौटियाल तथा थराली विधायक जीएल शाह का पत्ता साफ कर दिया था।
इस चुनाव में भाजपा ने बदरीनाथ से प्रेमबल्लभ भट्ट, कर्णप्रयाग से हरीश पुजारी तथा थराली से मगन लाल शाह को मैदान में उतारा। बदरीनाथ में फोनिया, कर्णप्रयाग में नौटियाल तथा थराली में जीएल शाह विद्रोह का विगुल बजा कर मैदान में उतर गए। इस कारण भाजपा प्रत्याशियों की जीत की संभावनाओं को ग्रहण लग गया। कांग्रेस ने बदरीनाथ से राजेंद्र भंडारी को मैदान में उतारा।
हालांकि तब दशोली के पूर्व प्रमुख नंदन सिंह बिष्ट भी बगावती तेवर अपना कर मैदान में कूद पड़े। दोनों दलों में बगावत होने के चलते भंडारी जीत दर्ज कर कांग्रेस की झोली भर गए। कर्णप्रयाग सीट पर डा अनुसूया प्रसाद मैखुरी को कांग्रेस ने चुनाव मैदान में उतारा। उनके मुकाबले सुरेंद्र सिंह नेगी ने निर्दलीय ताल ठोंकी।
भाजपा के हरीश पुजारी के विरू द्ध अनिल नौटियाल के बगावत के चलते डा मैखुरी इस सीट को पहली बार कांग्रेस की झोली में डालने में कामयाब रहे। कहा जा सकता है कि भाजपा के लिए 2012 का चुनाव तब बगावत के अपवाद के रू प में पहली बार सामने आया। इससे पहले भाजपा ने कभी भी बगावती चुनौती का सामना नहीं किया। 2017 के चुनाव में बदरीनाथ सीट पर भाजपा ने महेंद्र भट्ट को मैदान में उतारा। भाजपा में इस चुनाव में कोई बगावत नहीं हुई।
हां, कांग्रेस प्रत्याशी राजेंद्र भंडारी को अपनी ही पार्टी के भितरघातियों से जूझना पड़ा। कहा जा सकता है कि उन्हें अपने ही दल के लोगों का साथ नहीं मिला। मोदी लहर के कारण उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा और भाजपा के महेंद्र भट्ट ने जीत दर्ज की। कर्णप्रयाग सीट पर न तो कांग्रेस और ना ही भाजपा में बगावत हुई।
इसके बावजूद मोदी की सुनामी में भाजपा सुरेंद्र सिंह नेगी जीत का परचम लहराने में कामयाब रहे। थराली सीट पर हालांकि कांग्रेस के विद्रोहियों ने पार्टी प्रत्याशी डा जीतराम की जीत की संभावनाओं ग्रहण लगा दिया। अलबत्ता इस सीट पर भी मोदी की सुनामी के चलते कांग्रेस की जीत पर पानी फिर गया। आसन्न विधानसभा चुनाव में भाजपा ने तीनों सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं।
इस बार कर्णप्रयाग तथा थराली विधायकों की छुट्टी कर दी गई। बदरीनाथ विधायक महेंद्र प्रसाद भट्ट की उम्मीदवारी को रिपीट कर दिया गया है। इसके चलते अब भाजपा के सामने भी कांग्रेस की तरह अपनों की चुनौती आ खड़ी हो गई है। थराली सीट पर विधायक मुन्नी देवी शाह के बगावती सुर आने लगे हैं।
थराली के ही पूर्व भाजपा विधायक जीएल शाह भी पार्टी प्रत्याशी के चयन पर सवाल खड़े कर रहे हैं। कर्णप्रयाग के विधायक सुरेंद्र सिंह नेगी एक तरह से कोप भवन में जैसे बैठ गए हैं। उनके समर्थक अब अपने सियासी भविष्य के लिए नया ठौर तलाश रहे हैं। साफ है कि नेगी समर्थक अब भाजपा में रहने वाले नहीं हैं। इस बीच हालांकि अभी कर्णप्रयाग में खुले तौर पर विद्रोह जैसी स्थिति नहीं सुनाई दे रही है किंतु अंदर ही अंदर पार्टी प्रत्याशी के विरूद्ध खिचडी पक रही है।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस की तरह अब भाजपा को भी अपनों से ही चुनौती मिलने जा रही है। कांग्रेस लिए राहत भरी खबर यह है कि अभी तक टिकटों की घोषणा तो नहीं हुई किंतु बदरीनाथ से पूर्व काबिना मंत्री राजेंद्र सिंह भंडारी को अपनों से चुनौती मिलती नहीं दिखाई दे रही है। इसी तरह थराली सीट पर भी डा जीतराम की दावेदारी को कोई खास चुनौती पार्टी के भीतर से मिलती नहीं दिखाई दे रही है।
हां, कर्णप्रयाग सीट पर सूची जारी होने पर धमाके हालात पहले ही दिखाई देने लगे हैं। भिरतघाती और बगावती भाजपा के लिए परेशानी का सबब तो बनने ही जा रहे हैं। देखना यह है कि कांग्रेस की तरह भाजपा भी अब इससे किस तरह निपट कर कुनवे को सलामत रखती है। इस पर ही उसका सियासी भविष्य तय होगा।