देहरादून। एक पुरानी कहावत है कभी नाव ठेले पर तो कभी ठेला नाव पर। उत्तराखंड की राजनीति में इन दिनों यह कहावत डा. हरक सिंह रावत पर सटीक बैठती है। कभी हरक सिंह राजनीतिक संकटों को चुटकी बजाकर हल कर दिया करते थे, लेकिन बेबस हरक आज ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। यह बिलकुल राजनीति के चक्रव्यूह जैसा ही दृश्य है। हरक सिंह जैसा मंजा हुआ खिलाड़ी इन दिनों राजनीति के चक्रव्यूह में कसमसा रहा है।
हरक सिंह चक्रव्यूह से निकलने के लिए छटपटा रहे हैं, लेकिन चक्रव्यूह के द्वार पर लठ लेकर वो लोग खड़े हैं, जिन्हें हरक सिंह ने करीब छह साल पहले अपनी राजनीति चालों से चारोंखाने चित कर दिया था।
यही नहीं हरक ने तब ऐसी चाल चली कि उनका राजनीतिक कैरियर तक दांव पर लग गया था। यहां बात हरीश रावत की हो रही है। कांग्रेस के दरवाजे खुलने के लिए पिछले पांच दिन से इंतजार कर रहे हरक सिंह रावत के सामने आज वही हरीश रावत चट्टान की तरह खडे़ होकर उनका रास्ता रोके हुए हैं।
मामला राजनीति के गलियारों का है, ऐसे में अभी यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि हरक सिंह इस चक्रव्यूह को तोड़ ही नहीं पाएंगे या पहले की तरह अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता से एक झटके में तोड़ देंगे।
कांग्रेस और हरक सिंह के बीच अब सिर्फ हरीश रावत अकेले बाधा नहीं हैं। उत्तराखंड से सैकड़ों कांग्रेसी अब हरीश रावत के साथ खड़े होकर हरक की राह में ऊंची दीवार चुन चुके हैं। हरक सिंह के विरोध में आये इन कांग्रेसियों ने हरक को न केवल भ्रष्टाचारी करार दिया है बल्कि उनके चरित्र पर भी सवाल उठाये हैं।
ऐसे में अब यह साफ है कि जिस हरक के लिए कांग्रेस या कोई भी दल पहले चुनावी मौसम में पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत करता था वहां अब उनके आने को लेकर कोई गर्मजोशी नहीं दिख रही है। प्रदेश के तमाम दिग्गजों ने इस चक्रव्यूह की दीवारों को इतना ऊंचा कर दिया है कि कांग्रेस आलाकमान भी हरक सिंह रावत को लेने का जोखिम इस हालत में तो कतई नहीं उठाना चाहेगा, जब उसके अपने ही लोग हरक की एंट्री से नाराज हो जाएं।
ऐसे में अगर देरसबेर हरक सिंह कांग्रेस में आ भी जाते हैं तो उनको उनकी इच्छा के मुताबित न तो तवज्जो मिलने वाली है और न ही जिम्मेदारियां। वैसे हरक सिंह रावत भाजपा सरकार में मंत्री रहते हुए पिछले काफी समय से कांग्रेस में आने के लिए पिछले दरवाजे से रास्ता बना रहे थे। इसके लिए बाकायदा उनकी कुछ चुनिंदा कांग्रेस नेताओं के साथ गोपनीय मुलाकातें भी होती रही हैं।
अपने रास्ते में आने वाली परेशानियों को भी हरक सिंह बखूबी समझते थे, इसलिए उन्होंने पिछले दिनों हरीश रावत से भी देहरादून में दो मुलाकातें गोपनीय रूप से की थी। आमने-सामने चाय-काफी की टेबिल पर हुई ये मुलाकातें सौहार्दपूर्ण रही इसलिए हरक शायद यह नहीं समझ पाये कि उन्होंने 2016 में हरीश रावत को जो घाव दिया था, वह अब तक नहीं भरा है। यही कारण है कि हरीश रावत से बड़े भाई के तौर पर हुई मुलाकातें भी हरीश की पीड़ा को कम नहीं कर सकी।
रविवार से अब तक के घटनाक्रम में हरीश रावत की टीवी चैनलों से हो रही बातचीत में साफ देखा जा सकता है कि उनका घायल मन अभी भी छोटे भाई को दिल से गले लगाने को तैयार नहीं है। आलाकमान जोर जबरदस्ती गले लगने के लिए कह दे तो बात अलग है।