उत्तराखंड विधानसभा चुनाव: क्या हाथी चढ़ पाएगा पहाड़

देहरादून। एक समय प्रदेश में तीसरी सबसे बड़ी सियासी ताकत रही बहुजन समाज पार्टी के सामने इस विधानसभा चुनाव में एक ओर जहां अपना पहला सा वजूद पाने की चुनौती है वहीं यक्ष प्रश्न यह है कि अब तक कभी भी पहाड़ न चढ़ सका हाथी क्या पहाड़ चढ़ पाएगा।
बहुजन समाज पार्टी ने उत्तराखंड के 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए अपने 37 सीटों प्रत्याशियों की पहली आधिकारिक सूची जारी कर दी है।
सूबे का चुनावी इतिहास गवाह है कि बसपा अब तक उत्तराखंड के दो मैदानी जिलों हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में ही सीटें जीतने में कामयाब हो पाई है यह बात और है कि भारतीय राजनीति में हिंदुत्व की राजनीति मोदी फैक्टर के पदार्पण के बाद मैदान से भी उसका जनाधार लगातार छीन रहा है और पिछले यानी 2017 के विधानसभा चुनाव में तो उसके जनाधार यानी मत प्रतिशत में भारी गिरावट आ गई।
राज्य जब बना था तो शुरुआती विधानसभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन काफी अच्छा था। वर्ष 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में बसपा ने 1.93 मत प्रतिशत लेकर सात विधानसभा सीटें जीत ली थी और सूबे में तीसरा सबसे बड़ा दल बन कर उभरी थी। इसके बाद वर्ष 2007 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में बसपा का मत प्रतिशत बढ़ गया और बसपा ने 11.76 प्रतिशत वोट लेकर आठ सीटों पर जीत हासिल की और फिर तीसरा बड़ा दल बनी रही।
 वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा का मत प्रतिशत फिर बढ़ा मगर  उसकी सीटें कम हो गई।  2012 में बसपा को 12.19 प्रतिशत मत मिले लेकिन सीटें मिली महज तीन। इस बार बसपा ने कांग्रेस को समर्थन दिया। सत्ता में भागीदारी पाकर कैबिनेट की सीट व दायित्व भी हासिल किए इसी बीच उसके कैबिनेट मंत्री सुरेंद्र राकेश का आकस्मिक निधन हो गया। बाकी दो विधायक कांग्रेस के पाले में ऐसे खड़े हुए कि बसपा को उन्हें निलंबित करना पड़ा।
सुरेंद्र राकेश की पत्नी ममता राकेश ने अब कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और जीतीं। इस तरह 2017 आते आते बसपा के पास तीन विधायक भी न रहे। कांग्रेस 2017 के विधानसभा चुनावों पर क्योंकि मोदी लहर का असर था और चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच यानी लगभग द्विध्रुवीय था तो बसपा का वोटबैंक ऐसा छीजा कि उसका खाता ही नहीं खुला।2017 के विधानसभा चुनावों में बसपा का मत प्रतिशत बुरी तरह गिरा और वह घटकर 6.98 फीसद ही रहा। बसपा को एक भी सीट से जीत नहीं है हासिल हो सकी। अब इस बार बसपा फिर चुनाव मैदान में है देखना है कि क्या वह अपना खोया हुआ जनाधार और राजनीतिक ताकत हासिल कर पाती है।

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