सुशील उपाध्याय
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का बिंदू संख्या 9.2 (छ) बताता है कि अभी तक अधिकतर विश्वविद्यालयों में शोध पर कम ध्यान दिया गया है, अनुसंधानोें में पारदर्शिता का अभाव है और प्रतिस्पर्धी एवं गुणात्मक शोध की कमी दिखाई देती है। नई शिक्षा नीति के इस बिंदू पर पूर्ण रूप से सहमत हुआ जा सकता है।
इसी को ध्यान में रखकर नई नीति में गुणवत्तापरक शोध पर विशेष रूप से ध्यान देने की बात कही गई है। इस नीति में ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना पर जोर दिया गया है जो मुख्यतः शोध पर केंद्रित होंगे। भारत में अकादमिक डिग्री (पीएच.डी. या डी.फिल.) केंद्रित शोध की क्या स्थिति है, इस पर ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। विशेष तौर पर मानविकी, समाज विज्ञानों, भाषाओं और गैर-तकनीकी विषयों के शोध अपने साथ कई तरह के प्रश्नों का बोझ उठाये हुए होते हैं।
बीते एक दशक में यूजीसी ने चोरी के शोध (यहां गुणवत्ता का प्रश्न अभी गौण ही मान लीजिए) पर लगाम लगाने के लिए कुछ कोशिशें की हैं। इस कड़ी में शोधगंगा के रूप में एक यूनिवर्सल ओपन रिजर्ववायर भी बनाया गया है। नकल को पकड़ने वाले साॅफ्टवेयर की रिपोर्ट भी अनिवार्य की गई है, लेकिन तब भी हालात सुधरने की गुंजायश दिखाई नहीं दे रही है।
अब देखना यह है कि नई नीति के दृष्टिगत यूजीसी द्वारा अकादमिक रिसर्च के लिए किस प्रकार का माॅड्यूल (रिसर्च मैकेनिज्म) तैयार किया जाता है। रिसर्च कराने वाले एक शिक्षक के नाते मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि सिंगल रिसर्च गाइड (यदा-कदा को-गाइड की व्यवस्था सहित) की व्यवस्था को तुरंत बदले जाने की जरूरत है। यह व्यवस्था शोधार्थी के शोषण का आधार बनती है।
अपवाद हर जगह संभव हैं, लेकिन आमतौर पर पीएच.डी. डिग्री केंद्रित शोध में शोधार्थी बेहद दयनीय स्थिति में होता है। और यदि रिसर्चर कोई लड़की है तो उसकी चुनौतियां और बढ़ जाती हैं। शोधार्थी के शोषण की अनेक कहानियां अक्सर चर्चा में रहती हैं और अनेक लोग इसी कारण शोध को अधूरा छोड़ देते हैं। अब प्रश्न यह है कि इस समस्या का समाधान क्या है ?
इसके समाधान के लिए सबसे पहला काम तो यह किया जाना चाहिए कि गाइडशिप की मौजूदा व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए। इसके स्थान पर सामूहिक निर्देशन की व्यवस्था को लागू किया जाए। जिस प्रकार स्नातकोत्तर स्तर पर अलग-अलग विषयों-उप विषयों को अलग प्रोफेसर पढ़ाते हैं, उसी प्रकार रिसर्च गाइड की जिम्मेदारी का निवर्हन भी सामूहिक तौर पर ही होना चाहिए।
ये कोई कठिन काम नहीं है। देश के इक्का-दुक्का विश्वविद्यालयों में पहले से ही इस प्रकार की व्यवस्था लागू है। बेहतर यह होगा कि शोधार्थी के शोध निर्देशन का दायित्व किसी एक व्यक्ति विशेष की बजाय विभागीय रिसर्च कमेटी द्वारा किया जाए और इस कमेटी में विभाग के सभी शिक्षक शामिल किए जाएं।
चूंकि, पिछड़े और दूरदराज के ज्यादातर काॅलेजों में विभागों में शिक्षकों की संख्या सीमित होती है इसलिए ऐसे काॅलेजों की रिसर्च कमेटी का गठन काॅलेज-कलस्टर के शिक्षकों को मिलाकर किया जा सकता है। गौरतलब है कि इस वक्त प्री-प्रीएचडी का संचालन विभाग या संकाय के स्तर पर सामूहिक तौर पर ही संचालित किया जाता हैै। इसी पैटर्न पर शोध कार्य की गाइडेंस को भी संपादित किया जा सकता है।
विश्वविद्यालयों के सभी विभागों में पहले से ही रिसर्च कमेटी मौजूद हैं। बस, इनके कार्यदायित्वों को नए सिरे से निर्धारित करने की जरूरत है। रिसर्च कमेटी को शोध-समस्याओं को चिह्नित करने से लेकर शोध की पद्धति तय करने, उसकी प्रगति और थीसिस तैयार करने से लेकर निष्कर्षाें आदि पर निगाह रखनी होगी।
जहां तक थीसिस पर हस्ताक्षर की बात है तो इस काम को पूरी कमेटी अथवा कमेटी के अध्यक्ष या समन्वयक भी कर सकते हैं। इस कमेटी द्वारा अपने विषयों के उन क्षेत्रों को चिह्नित किया जाना चाहिए जिन पर अगले पांच या दस साल में रिसर्च कराई जानी है। मौजूदा पद्धति में रिसर्च टाॅपिकों का निर्धारण बहुत अव्यवस्थित ढंग से होता है। कई बार शोधार्थियों को ऐसे टाॅपिक पर काम करना होता है, जिनमें उनकी कोई रुचि नहीं होती है।
वे इसलिए काम करते हैं क्योंकि संबंधित टाॅपिक गाइड की पसंद का होता है। कई गाइड इतने दयालु होते हैं कि शोधार्थी कुछ भी उलटा-सीधा काम कर लाए, वे हस्ताक्षर करने में देर नहीं लगाते। ऐसे मामलों में डिग्री तो आसानी से मिल जाती है, लेकिन शोधार्थी को अपने जीवन के बाद के वर्षाें में अपने काम की गुणवत्ता और उपयोगिता को लेकर संदेह बना रहता है। (ऐसी भी चर्चा होती हैं कि कुछ गाइड अपने शोधार्थियों की थीसिस भी लिख डालते हैं!)
संभव है कि यह विचार पहले से जमे-जमाए और सिद्ध-शिक्षकों को पसंद न आए, लेकिन यह जरूरी है। इसी से विभागों में शोध-विषयक जड़ता के टूटने की उम्मीद पैदा होगी और नए शिक्षकों को भी रिसर्च कराने का समानांतर अनुभव हासिल हो सकेगा।
जहां तक पीएच.डी. सीटों की संख्या की बात है, उसका निर्धारण विभाग या संकाय में मौजूदा सुविधाओं के आधार पर किया जा सकता है। इस व्यवस्था में भी यदि कोई शोधार्थी किसी शिक्षक विशेष के साथ कार्य करने को उत्सुक है तो उसे यह छूट दी जानी चाहिए। और इस छूट का दायरा संबंधित विभाग के शिक्षकों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि शोधार्थी को बाह्य विशेषज्ञों से मदद लेने की छूट भी दी जानी चाहिए।