सुशील उपाध्याय।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का बिंदू संख्या 19.5 कहता है कि उच्चतर शिक्षण संस्थाओं को हर स्तर (वित्तीय, प्रबंधकीय, नियुक्ति एवं संचालन संबंधी) पर स्वायत्ता प्रदान की जाएगी। शिक्षा नीति यह भी स्पष्ट करती है कि नियुक्ति एकल स्तर पर होगी यानि इसका अधिकार संबंधित संस्था को ही होगा।
सैद्धांतिक धरातल पर यह बात काफी आकर्षक लगती है, लेकिन जब व्यावहारिक तौर पर देखते हैं तो सरकारी दखल साफ-साफ दिखने लगता है। वर्तमान में विश्वविद्यालयों, कॉलेजों एवं अन्य समकक्ष संस्थाओं में नियुक्ति के लिए यूजीसी रेगुलेशन-2018 के प्रावधान लागू हैं।
इन प्रावधानों में नियुक्ति प्रक्रिया के साथ चयन समिति (छानबीन सह-मूल्यांकन समिति सहित) के गठन के बारे में नियम बनाए गए हैं। इन नियमों को बनाते वक्त कुछ हद तक इस बात का ध्यान रखा गया है कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता बनी रही और थोड़ी-सी ही सही, संस्थाओं को स्वायत्तता मिली रहे।
अब उपुर्युक्त संदर्भ में उत्तराखंड शासन के 07 जनवरी, 2022 के निर्णय को देखिए तो साफ पता चलेगा कि शिक्षकों के चयन/प्रोन्नति की स्वायत्तता का प्रश्न मुंह छिपाकर बैठ गया है। इस आदेश में शासन ने यूजीसी द्वारा निर्धारित छानबीन सह-मूल्यांकन समिति सहित को शीर्षासन करा दिया है।
जो कॉलेज सरकार की आर्थिक सहायता पर चलते हैं, उनमें एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के चयन/प्रोन्नति का अधिकार प्रबंध समिति से लेकर परोक्ष तौर पर उच्च शिक्षा निदेशालय को दे दिया गया है। यूजीसी रेगुलेशन-2018 में छानबीन सह-मूल्यांकन समिति का अध्यक्ष कॉलेज प्रबंध समिति अर्थात शासी निकाय के अध्यक्ष या उसके प्रतिनिधि को बनाया गया है, लेकिन सरकारी आदेश में इसका जिम्मा उच्च शिक्षा निदेशक या उनके प्रतिनिधि को दे दिया गया है और शासी निकाय के अध्यक्ष को महज सदस्य बना दिया गया है।
इतना ही नहीं, अभी तक शासी निकाय द्वारा प्रस्तुत किए गए नामों में से कुलपति (जिस विश्वविद्यालय से महाविद्यालय संबद्ध है, के कुलपति) पांच नामों को स्वीकृत करते थे और इन पांच नामों में से किन्हीं दो नामों को महाविद्यालय के शासी निकाय द्वारा चयन समिति का सदस्य बनाया जाता था, लेकिन अब इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया है। (यह व्यवस्था सरकार के पूर्ववर्ती आदेश जो कि 25 अक्तूबर, 2021 को जारी किया गया था, उसमें मौजूद थी।)
अब कुलपति द्वारा ही इन दोनों विशेषज्ञों का नाम दिया जाएगा। इन सबको शामिल करते हुए यह अनिवार्य किया गया है कि न्यूनतम छह लोगों का बोर्ड होगा, जिसमें दो लोग सब्जेक्ट एक्सपर्ट होंगे। इसमें यह कहीं अनिवार्य नहीं किया गया है कि संबंधित शासी निकाय के अध्यक्ष, संबंधित कॉलेज के प्राचार्य या संबंधित विभाग के अध्यक्ष/प्रभारी की उपस्थिति जरूरी होगी।
यानि उच्च शिक्षा निदेशक और संबंधित विश्वविद्यालय के कुलपति चाहें तो संबंधित शासी निकाय के अध्यक्ष/प्रतिनिधि, संबंधित कॉलेज के प्राचार्य एवं विभागाध्यक्ष की गैरमौजूदगी में भी इस प्रक्रिया को पूर्ण कर सकते हैं।
यहां एक प्रश्न बार-बार उठाया जाता है कि सरकारी सहायताप्राप्त कॉलेजों की चयन प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है इसलिए सरकार को इस प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ रही है। लेकिन, इसके समानांतर एक दूसरा प्रश्न यह है कि क्या निदेशालय और विश्वविद्यालय को सारे अधिकार दिए जाने से यह प्रक्रिया पारदर्शी और योग्यता-केंद्रित हो जाएगी! इस प्रश्न का जवाब नहीं में है क्योंकि चाहे यूजीसी रेगुलेशन-2018 हो या मौजूदा सरकारी आदेश, उन सबमें ऐसे अनेक छेद मौजूद हैं जिससे कोई भी आसानी से सेंध लगा सकता है।
इस सारे मामले में सबसे रोचक बात यह है कि उक्त समिति को कोई ओपन-सेलेक्शन नहीं करना है, बल्कि कॉलेजों में पहले से कार्यरत शिक्षकों को उच्चतर पदों के लिए प्रोन्नत करना है। महज प्रोन्नति के लिए इतना बड़ा तामझाम अलग तरह के संदेह पैदा करता है।
सहायताप्राप्त कॉलेजों में सहायक प्रोफेसर के लिए बनने वाली समिति में भी पूर्व में सरकार ने उच्च शिक्षा निदेशालय के प्रतिनिधि की मौजूदगी अनिवार्य कर दी है। इन सारी बातों के बीच मूल प्रश्न वहीं का वहीं रहता है कि यदि उच्च शिक्षा का सर्वोच्च नियामक निकाय यानि यूजीसी और राज्य सरकार (या कोई भी सरकारें) सच में नई नीति के अनुरूप योग्य, सक्षम और प्रेरित लोगों का चयन करना चाहती हैं तो वे आमूल-चूल परिवर्तन क्यों नहीं करती! केवल थेगली लगाने से उच्च शिक्षा का कायाकल्प नहीं होगा। और ऐसे आदेशों से तो बिल्कुल नहीं होगा, जहां किसी एक निकाय के अधिकार किसी दूसरी संस्था या व्यक्ति को दे दिए जाएं।