किसान आंदोलन बना ‘गेम चेंजर’

  • महाबली’ की सियासत को दिया जोर का झटका!
  • पूरा विपक्ष जो नहीं कर सका, उसे किसानों ने कर दिखाया

वीरेंद्र सेंगर

नयी दिल्ली। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर चले आ रहे ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने 26 नवंबर को एक साल पूरा कर लिया है। इसके बाद भी इसके तेवर कड़े बने हुए हैं। किसान आंदोलन की धमक से ‘महाबली’ समझी जाने वाली मोदी सरकार भी राजनीतिक रूप से हिल गई है।

पूरा विपक्ष मिलकर भी जो काम नहीं कर सका, उसे इस आंदोलन के जरिए किसानों ने कर दिखाया है। इसका प्रभाव इतना तेज हुआ कि पूरे देश की सियासत बड़े बदलाव के कगार पर खड़ी नजर आने लगी है। कृषि से जुड़े तीन विवादित कानूनों को लेकर किसान आंदोलन शुरू हुआ था।

धीरे-धीरे ये बड़े तूफान में बदलता गया। अगले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब समेत पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं। किसान आंदोलन अब भाजपा नेतृत्व के गले की फांस बन चुका है। इसके चलते पार्टी को हार का खतरा दिखाई पड़ रहा है। इसी का नतीजा रहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारी सियासी ‘यू टर्न’ लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
सत्ता की जिद और अहंकार से कैसे छोटा सा विरोध प्रदर्शन जन आंदोलन बन जाता है? इसकी अप्रतिम मिसाल बन गया है, किसान आंदोलन। इसके चलते केंद्र और भाजपा की राज्य सरकारों के खिलाफ भारी जन असंतोष पैदा हुआ है। इसको संभाल पाना भाजपा नेतृत्व के लिए भारी चुनौती बन गया है।

अब यह विरोध महज किसान मुद्दों तक सीमित नहीं रहा। इसमें महंगाई और बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दे भी जुड़ते जा रहे हैं। इससे देशव्यापी जन असंतोष दिखाई पड़ रहा है। बीते एक साल में सरकार ने आंदोलन खत्म कराने के लिए तमाम दांव चले। आंदोलनकारियों को झूठे मुकदमों में फंसाया गया।

ज्यों-ज्यों सरकार का उत्पीड़न बढ़ता गया किसानों के जुझारू तेवर और तीखे हो गए। विवादित कानूनों की वापसी के ऐलान के बाद भी आंदोलनकारी धरना स्थलों पर डटे रहे। विरोध कार्यक्रमों का दौर तय रणनीति के हिसाब से चलाया गया। किसानों के इन तेवरों से सरकार खासे दबाव में है।

सरकार के आकाओं का अनुमान था कि कानूनों की वापसी के ऐलान के बाद, तुरंत आंदोलन खत्म हो जाएगा। इसीलिए गुरु पर्व के अवसर पर प्रधानमंत्री ने बिना किसी पूर्व सूचना के टीवी पर राष्ट्र के नाम पर एक संदेश जारी किया था। इस प्रसारण के कुछ क्षणों पूर्व तक किसी को अनुमान भी नहीं था कि मोदी जी इतना बड़ा ऐलान कर सकते हैं।

क्योंकि किसान आंदोलन के प्रति उनकी सरकार का रुख काफी सख्त रहा है। आंदोलन में करीब 700 किसान शहीद हो गए, लेकिन प्रधानमंत्री ने एक को भी श्रद्धांजलि नहीं दी।
किसान आंदोलन ने कई नाटकीय मंजर भी देखे। 26 जनवरी को गणतंत्र पर बड़ा बवाल हुआ। किसानों ने लाल किले तक ट्रैक्टर रैली निकाली थी। सुरक्षा के भारी बंदोबस्त के साथ किसानों को शांति पूर्वक रैली निकालने की अनुमति दी गई थी। लेकिन कुछ अराजक तत्वों ने पुलिस का घेरा तोड़कर लाल किले की प्राचीर पर एक धार्मिक झंडा लहरा दिया था। छिटपुट हिंसा की भी वारदातें हुई।

इस को लेकर आंदोलन काफी बदनाम भी हो गया था। एक दौर में आंदोलन खतरे में पड़ गया था, लेकिन युवा किसान नेता राकेश टिकैत के आंसुओं से पासा पलट गया। आंदोलन में नई ऊर्जा आ गई। अब तीनों बार्डरों पर बड़ी संख्या में किसान फिर जुट गए तो सरकार के तेवर नरम पड़े। तब से लेकर आज तक किसानों के जुझारू तेवर बरकरार रहे।
यू तो सरकार ने आंदोलन के तंबू उखाड़ने के लिए समय-समय पर कई दुरभी संधियां कीं। भाजपा के तंत्र द्वारा आंदोलनकारी नेतृत्व को बदनाम किया गया। इससे किसानों का गुस्सा भी बढ़ता रहा। इस बीच उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में एक शर्मनाक हादसा भी हुआ। किसानों के एक प्रदर्शन के दौरान केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के पुत्र और उसके साथियों ने किसानों की भीड़ पर गाड़िया चढ़ा दी।

इससे चार किसानों की मौके पर ही मौत हो गयी और कई घायल भी हुए। एक बड़े किसान नेता टेनी के पुत्र की गाड़ी के नीचे कुचल गए थे। वह लंबे समय तक जीवन मौत के बीच जूझते रहे थे। कई आपरेशनों के बाद ही जीवित बच पाए। घटना के तमाम जीवंत वीडियो होते हुए भी मंत्री पुत्र को बचाने की तमाम कोशिशें की गयीं।
मंत्री पुत्र की यह गुंडागर्दी भी सरकार के खिलाफ ही गई।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत सरकार की कड़ी आलोचना हुई। किसानों के गुस्सैल तेवर देखकर, उत्तर प्रदेश की कड़क सरकार भी नरम पड़ गयी। घटना के तुरंत बाद किसान नेताओं के साथ एक फौरी समझौता किया गया। क्योंकि किसान लाशों के साथ प्रदर्शन करने पर आमादा थे। इससे हिंसा की आशंका बढ़ गई थी। हादसे के बाद किसानों ने भी टेनी के चार सहयोगियों को मार डाला था।

भारी दबाव से आखिर आरोपी मंत्री पुत्र के खिलाफ पुलिस में साजिशन हत्या का मुकदमा पंजीकृत हुआ। मृतकों के परिवारों के लिए 45-45 लाख रुपए का मुआवजा घोषित किया गया। अगले ही दिन चेक भी जारी हो गए। इसके बाद भी सरकारी तंत्र ऊपर के दबाव में मंत्री पुत्र की गिरफ्तारी में टालमटोल करता रहा।

इसको लेकर किसानों ने देशव्यापी रोष प्रदर्शन का ऐलान कर दिया। सरकार पर दबाव बढ़ता गया।इसी बीच उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने अभूतपूर्व पहल कर दी। उन्होंने स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले की समीक्षा का एलान कर दिया।

न्यायालय की माननीय पीठ ने उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार को उनके रवैये को लेकर कई बार फटकार लगाई। तब कहीं मंत्री पुत्र की गिरफ्तारी हुई। अभी तक न्यायालय जांच की सतत समीक्षा कर रहा है। इस मामले में योगी सरकार और केंद्र सरकार की खूब किरकिरी हुई।
दिलचस्प पहलू यह है कि पूरे विपक्ष और आंदोलनकारियों के स्तत दबाव के बावजूद केंद्रीय गृह राज्य मंत्री को पद पर बरकरार रखा गया है। जबकि आम धारणा है कि टेनी के पद पर रहते निष्पक्ष पुलिस जांच संभव नहीं। इशारों-इशारों में उच्चतम न्यायालय भी यह मंशा जाहिर कर चुका है।

फिर भी मंत्री जी अपनी कुर्सी में बरकरार हैं। इन मंत्री महोदय का अपना रिकॉर्ड भी गैंगेस्टर वाला ही रहा है। हत्या के एक मामले में इनको सजा भी हो चुकी है। इसकी अपील इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित है। दागदार छवि के बावजूद केंद्र सरकार में इन महाशय को इतनी खास जिम्मेदारी दे रखी है।

कार प्रकरण के कुछ दिन पहले इन्ही मंत्री महोदय ने एक जनसभा में आंदोलनकारी किसानों को खुली धमकी भी दी थी। उसका वीडियो वायरल हो रहा है। इसमें मंत्री जी किसी अपराधी डॉन की तरह चेतावनी दे रहे हैं। इस धमकी की प्रतिक्रिया में ही बेटे ने नरसंहार करके दिखा दिया।पांच राज्यों में चुनाव हैं, उनमें उत्तर प्रदेश राजनीतिक तौर पर खासा महत्वपूर्ण है।

यहां भाजपा के हिंदुत्व के चेहरे योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं। वे काफी सख्त हैं। ‘ठोक दो’ की ठेठ शैली के लिए जाने जाते हैं। किसान आंदोलन के चलते भाजपा नेताओं को भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इस आंदोलन का खास प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। खास तौर पर पूरी जाट बिरादरी भाजपा से बहुत नाराज है।

जबकि 2017 और 2019 के चुनाव में पूरा जाट समाज योगी और मोदी का कट्टर समर्थक बन गया था। किसान आंदोलन के मुख्य चेहरे राकेश टिकैत शामली के हैं। इनके पिता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत भी भारतीय किसान यूनियन के कद्दावर नेता रहे हैं। 1980 के दौर में वे राष्ट्रीय स्तर का बड़ा आंदोलन चला चुके थे।

इसके चलते कांग्रेस की तत्कालीन सरकार को टिकैत की सभी मांगें मानने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसी परंपरा में अब राकेश टिकैत नेता है। आंदोलन के एक साल ने उन्हें बहुत निखार दिया है। पिछले एक साल से घर भी नहीं गए। देश भर में घूम-घूम कर आंदोलन की अलख जगा रहे हैं।

ये आंदोलन राष्ट्रीय स्वरूप ले रहा है। टिकैत की रैलियों में खासी भीड़ जुटती है। इसी के साथ पंजाब के दर्जनों किसान संगठन पूरी ताकत से जुटे हैं। पूरा हरियाणा आंदोलनरत है। राजस्थान का भी बड़ा हिस्सा इस आंदोलन में महीनों से भागीदारी कर रहा है।
किसान आंदोलन के चलते उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में भाजपा को हार का बड़ा खतरा साफ-साफ दिखने लगा है। भाजपा और आर एस एस के आंतरिक सर्वेक्षणों में यही फलित सामने आया है आंदोलन जारी रहा तो तीनों राज्यों में भाजपा को सियासी डूब का सामना करना पड़ेगा।

राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि यूपी में भाजपा की चुनावी नैया डूबी तो 2024 में मोदी सरकार के लिए बड़ा खतरा हो जाएगा। पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री अमित शाह एक जनसभा में यह कह भी चुके हैं कि यदि 2024 के चुनाव में मोदी जी की को फिर चुनाव जिताना चाहते हैं तो जरूरी है कि विधानसभा चुनाव में योगी जी को फिर से जिता दें। माना जा रहा है कि साहब अपने समर्थकों में जोश भरने के लिए इस तरह की सियासी जुमलेबाजी कर रहे हैं। लेकिन यह एक संदेश भी है कि उन्हें भी यूपी उत्तराखंड पंजाब में चुनावी डूब का खतरा दिखने लगा है।
भाजपा नेतृत्व को संघ के शीर्ष नेतृत्व ने भी सतर्क कर दिया है कि आंदोलनकारियों को यदि मनाया नहीं गया तो भाजपा सियासी डूब की तरफ बढ़ जाएगी। समझा जाता है कि संघ के इस अलर्ट के बाद ही मोदी जी ने कानूनों का पलटने का फैसला लिया।
कैबिनेट में भी इस प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई है। 29 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हुआ है। यह शीतकालीन सत्र 23 दिसंबर तक चलना है। इस सत्र में कानून वापसी का बिल पास कराए जाने का एजेंडा है।
विपक्ष भी संसद सत्र की शुरूआत से ही आक्रामक और हंगामा बरपा करने की मुद्रा में है। सरकार एकदम बचाव की रणनीति पर है। विपक्ष के खास निशाने पर प्रधानमंत्री हैं। इसके बावजूद भाजपा सांसदों के स्वर विनती के हैं।
इस प्रक्रिया में देश भर में माहौल सरकार के खिलाफ बनने लगा है। क्योंकि बढ़ती महंगाई और रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी से मोदी भक्त भी हलकान हुए हैं। राकेश टिकैत कहते हैं कि सरकार जब तक फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून नहीं बनाती, तब तक उनका आंदोलन किसी कीमत पर वापस नहीं होगा। इसी के साथ बिजली का प्रस्तावित विधेयक भी सरकार वापस ले। इसके पहले आंदोलनकारियों की घर वापसी का सवाल ही नहीं।
उल्लेखनीय है कि बिजली विधेयक इसी सत्र में पास करवाने का इरादा सरकार रखती है। टिकैत दो टूक कहते हैं कि सभी चुनावी राज्यों में हमने भाजपा को हराने की अपील की है। ऐसी ही अपील हमने पश्चिमी बंगाल के चुनाव में भी की थी। ‘वोट पर चोट’ हमारा शांतिपूर्ण हथियार है। हम इससे अत्याचारी सरकार को सबक सिखा कर रहेंगे। हमारा आंदोलन लोकतंत्र बचाने का आंदोलन भी है।

आंदोलन से फीका पड़ा मोदी मैजिक

तीनों कृषि कानून वापस लेने के फैसले के बाद भी केंद्र सरकार को सियासी राहत मिलने के आसार फिलहाल नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग सरकार के हलक में फंस गयी है। क्योंकि यह मांग पूरी की जाती है तो सरकार के चहेते कॉरपोरेट घरानों को भी नुकसान होगा।

खासतौर पर अडानी उद्योग घराने को, जिसने सरकार के भरोसे ही अरबों रुपए का निवेश गोदाम बनाने में कर दिया है। यह निवेश बर्बाद हो सकता है। इस बीच कारपोरेट लॉबी ने कहना शुरू कर दिया है कि कृषि सुधार कार्यक्रम रोके जाने से गलत संदेश जा रहा है।

यह भी कि मोदी सरकार भी ज्यादा मजबूत इरादों वाली नहीं है। इसी से भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेता बयान दे रहे हैं कि समय बदलेगा तो फिर यह कानून लाए जाएंगे। भाजपा नेताओं की यह टिप्पणियां किसानों को और उत्तेजित भी कर रही हैं। एक बड़े किसान नेता डॉक्टर दर्शन पाल कहते हैं कि किसान अब जागरूक हो गया है। वह ‘वोट की चोट’ से मोदी सरकार की विदाई तय कर देगा।

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