पांच राज्यों में चुनाव, भाजपा की साख दांव पर

  •  जनता से जुड़े मुद्दों से ध्यान बांटने में माहिर भाजपा इस बार भी विपक्ष को उलझाकर वास्तविक मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश में
  • आज जब कांग्रेस को अपनी सारी ताकत से भाजपा को चुनौती देने की जरूरत है तब वह दिशाहीन दिख रही 

आर के प्रसाद कोलकाता

2021 में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी तथा केरल के बाद 2022 में सात राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इनमें पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब तथा मणिपुर में 2022 की प्रथम तिमाही तथा शेष दो राज्यों-गुजरात, हिमाचल प्रदेश में अंतिम तिमाही में मतदान होंगे। पांच राज्यों के लिए सभी दलों ने अपनी रणनीति, गठबंधन तथा प्रत्याशियों के चयन की आरंभिक प्रक्रिया शुरू कर दी है, पार्टी के दिग्गज नेता मंत्रणा में जुटे हैं।

इन राज्यों में विधानसभा की कुल 690 सीटें हैं तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की साख सर्वाधिक दांव पर लगी है क्योंकि इनमें से एक पंजाब को छोड़कर शेष राज्यों में उसकी सरकार है। भाजपा की प्रमुख विरोधी कांग्रेस मेरुदंडहीन, दिशाहीन तथा बिखराव एवं अंतरकलह से जर्जरित है और उसके समक्ष भाजपा को चुनौती देने का हिमालयीन लक्ष्य है।

आम आदमी पार्टी (आप), तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा) आदि अन्य क्षेत्रीय दल भी हैं जो मैदान में ताल ठोंक रहे हैं और भाजपा के लिए गंभीर चुनौती बन सकते हैं। कृषि कानूनों को लेकर आलोचनाओं, प्रदर्शन झेल रही भाजपा ने आनन-फानन में इन कानूनों को समाप्त कर खोया जनाधार वापस पाने की चेष्टा की है। जनता के जुड़े मुद्दों से ध्यान बंटाने में माहिर भाजपा इस बार भी यही प्रयास करेगी और विपक्ष को उलझाकर वास्तविक मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल देगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नेसपा प्रमुख अखिलेश यादव के जिन्ना वाले बयान को लेकर लगातार हमलावर हैं, एक्सप्रेस-वे को विकास का नया रोडमैप बता रहे हैं तथा वहां की वास्तविक समस्याओं की कोई चर्चा नहीं हो रही है। इस बार भी राम मंदिर, अनुच्छेद 370 को ही भाजपा हथियार बना रही है तथा विपक्ष को फेरने की चेष्टा करेगी। भ्रष्टाचार, राफेल, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, कोरोना कुप्रबंधन, कोरोना से अनाथ बच्चों की देखभाल का दायित्व, क्षतिपूर्ति जैसे ज्वलंत मुद्दों से बचने की यह कूट चाल है।

मोदी के तरकश का पहला तीर

देश से क्षमा मांगता हूं। अंतरमन एवं दुखी मन से कहता हूं कि हमारी तपस्या में निश्चित रूप से कोई त्रुटि रही है। इसलिए प्रदीप के प्रकाश की ही तरह यह स्पष्ट है कि किसान भाईयों को समझाने में असफल रहा हूं। मैं तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस ले रहा हूं। आंदोलनकारी किसान भाई अब अपने गांव एवं परिवार में लौट जाएं। आइये, एक नये युग की शुरूआत करें।

कृषि कानूनों की वापसी का सत्ता और विपक्ष सभी ने स्वागत किया है लेकिन किसान अभी भी मोर्चे पर डटे हुए हैं और अपनी नौ सूत्रीय मांगों पर जोर दे रहे हैं। सरकार के प्रति अनास्था और अविश्वास का इससे प्रबल उदाहरण और क्या होगा जहां प्रधानमंत्री की बातों पर किसानों को यकीन नहीं हो रहा है। आखिर ऐसा क्यों? अध्यादेश के माध्यम से लाए गये इन कानूनों का आरंभ से ही विरोध होता रहा और सरकार बातचीत का प्रहसन करती रही, किसानों को खालिस्तानी, देशद्रोही, आंदोलनजीवी, आतंकी तक कहा गया।

उनका मनोबल तोड़ने की हर कोशिश की गयी। किसान डटे रहे और 19 नवंबर को आखिर सरकार को झुकना पड़ा।क्या यह मान लिया जाये कि लोकतंत्र के प्रति प्रधानमंत्री की आस्था का यह प्रतिफलन है? किसान तथा अधिसंख्य आबादी इसे मानने को तैयार नहीं है क्योंकि सरकार की अनमनीय नीति, मानसिकता से सभी परिचित हैं।

इसी भाषण में जब उन्होंने कहा कि यह साफ है कि किसानों से एक वर्ग को समझाने में वे असफल रहे हैं तो प्रकारांतर से उन्होंने किसानों को ही दोषी माना कि सरकार की मंशा ठीक रही है, किसान ही उसे नहीं समझ पाये।

सच तो यह है कि उत्तरप्रदेश, पंजाब सहित पांच राज्यों के आसन्न विधानसभा चुनावों में पार्टी की पराजय की आशंका ने सरकार को झुकने के लिए मजबूर किया। वस्तुत: मोदी ने रणनीतिक वापसी की है।

उन्होंने सात सौ से अधिक किसानों की मौत के बाद भी इसे वापस नहीं लिया था, इन्हें चुनावी रणनीति के तहत जीवित रखा था और सही समय पर सही कदम उठाने में विलक्षण क्षमतावान मोदी ने विपक्ष के सबसे प्रभावशाली हथियार को कुंद कर दिया। किसानों ने अपने आंदोलन से राजनीतिज्ञों को अलग रखा था अत: राहुल गांधी हों, या अखिलेश यादव या इस मुद्दे पर केंद्र सरकार तथा भाजपा से संबंध विच्छेद करने वाला अकाली दल, कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उनके दबाव से झुककर

सरकार ने यह कदम उठाया है। मोदी ने अति चतुराई से इसे चुनावी मुद्दा बनने का आधार समाप्त कर दिया है। फिर भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं। पहला यह कि क्या कृषि कानूनों की वापसी से भाजपा खिसके जनाधार को वापस पा सकती है, दूसरा यह कि क्या मोदी की अपराजेय, मानवेतर, अनमनीय, लौहपुरुष की छवि को आघात नहीं लगा है। इनके जवाब में कहा जा सकता है कि मोदी अभी भी लौहपुरुष हैं, भारतीय राजनीति के विराट व्यक्तित्व।

फिलहाल ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल या अखिलेश यादव, सभी बौने नजर आ रहे हैं। आज भी मोदी का विकल्प नहीं है। कृषि कानूनों की वापसी के पीछे मूल कारण यह है कि देश की करीब आधी आबादी कृषि से सम्बद्ध है, उसकी उपेक्षा आत्मघाती हो सकता है। मोदी अति निकट भविष्य में अपनी किसी अनूठी कला, योजना के माध्यम से रूठे को मना सकते हैं, खोई जमीन वापस लेने की चेष्टा कर सकते हैं। मोदी हार मानने वाले नेताओं में नहीं हैं।

अब कृषि कानूनों के समान ही खतरनाक श्रम कानून, सीएए, नागरिकता कानून को वापस लेने की मांग उठ रही है लेकिन यह सर्वविदित तथ्य है कि ये कानून कुछ दिनों तक टल सकते हैं, वापस नहीं होंगे। झटका लगा है मोदी को, वे पीछे हटे हैं, मैदान से हटे नहीं हैं।

मोदी सरकार पर बड़े औद्योगिक घरानों के पक्ष में काम करने के आरोप लगते रहे हैं। राहुल गांधी सरकार को अडानी-अंबानी की सरकार कहते रहे हैं। ग्रामीण भारत में कारपोरेट निवेश को सुगम बनाने के मोदी सरकार के दो प्रयास भूमि अधिग्रहण अध्यादेश तथा तीन कृषि कानून- भारी जनविरोध के कारण वापस लेने पड़े हैं। राम मंदिर, हिन्दुत्व के पक्ष में धुआंधार प्रचार के दम पर सरकार में आयी पार्टी इस मोर्चे पर पिट गयी। तीन कृषि कानूनों पर सरकार डरी हुई थी क्योंकि इससे पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में हिन्दू और सिख किसानों के एकजुट होने से भाजपा को चुनाव में हारने का खतरा सता रहा था। दूसरे, जिस तरह शाहीन बाग में सिखों ने मुस्लिम प्रदर्शनकारियों का साथ दिया था, उससे भी भाजपा चिंतित थी।

ममता की नयी रणनीति

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस को बाद देकर राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों के नये गठबंधन की रणनीति पर काम कर रही हैं और इसी कारण अपनी पिछली दिल्ली यात्रा के दौरान उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के मुलाकात नहीं की और संसद में भी कांग्रेस से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। कक्ष-समन्वय से इनकार कर दिया।

उन्होंने घोषणा की है कि वे शीघ्र ही मुंबई जाकर एनसीपी नेता शरद पवार तथा शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे से मिलेंगी। छोटे तथा क्षेत्रीय दलों को लेकर गठबंधन करने का ममता का यह नया राजनीतिक समीकरण कितना कारगर होगा, कितना स्वीकार्य होगा, कह पाना फिलहाल मुमकिन नहीं है लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस से उनकी दूरी बढ़ रही है और मोदी के लिए इससे सुविधाजनक स्थिति भला और क्या हो सकती है। मेघालय में

कांग्रेस के 17 में से 12 विधायक तृणमूल में आ गये हैं, गोवा में ममता पहले ही कांग्रेस को झटका दे चुकी हैं, असम से भी कांग्रेस के लिए कोई सुखबर नहीं है। स्पष्ट है कि निकट भविष्य में कांग्रेस के गढ़ में और सेंध लगने वाली है।लोकसभा में कांग्रेस के नेता और ममता के प्रबलतम विरोधी अधीर चौधुरी का आरोप है कि केवल मेघालय नहीं, पूरे उत्तरांचल में कांग्रेस को तोड़ने में तृणमूल जुटी हुई है। तृणमूल के नये राजनीतिक समीकरण का उद्देश्य कांग्रेस को कमजोर कर मोदी और भाजपा को मजबूत करना है।

ममता की यह भाजपा के साथ दुरभिसंधि है। देश में कम से कम 120 लोकसभा सीटें हैं जहां भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है और जहां कोई स्थानीय दल नहीं हैं। ममता निश्चित रूप से इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हैं। ममता चाहती हैं कि विभिन्न राज्यों में तृणमूल की सांगठनिक क्षमता का विस्तार कर देश में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस का विकल्प बनें।

वे राष्ट्रीय स्तर पर अपने को स्थापित करने तथा अपनी छवि चमकाना चाहती हैं। उनकी छवि पहले से ही एक जुझारू, अनमनीय तथा कुशल राजनेता की है। वोट रणनीतिकार प्रशांत किशोर कई बार पवार से मिल चुके हैं। जुलाई में ममता दिल्ली आयी थीं तब पवार से नहीं मिली थीं लेकिन इस बार वे इसी उद्देश्य से मुंबई जा रही हैं।

पवार के साथ बैठक में गोवा चुनाव में तृणमूल-एनसीपी गठजोड़ पर चर्चा हो सकती है। एनसीपी महाराषट्र में कांग्रेस और शिवसेना के साथ सरकार में है अत: महाराष्ट्र में तो नहीं लेकिन गोवा में यह संभव है। राजनीतिक गलियारे में यह भी चर्चा है कि यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार का पतन होता है और विपक्ष की ताकत बहुत बढ़ती है तो समूचा विपक्ष एकजुट होकर पवार को अगले साल राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बना सकता है। पवार भी इस पद के इच्छुक बताये जाते हैं। ममता के लिएयह भी एक अवसर है। ममता ने कहा है कि पार्टी सभी राज्यों में चुनाव नहीं लड़ेगी अपितु जिस राज्य में जो प्रमुख विरोधी दल है, उसका समर्थन करेगी। वह उप्र में अखिलेश यादव की सपा का समर्थन करने को तैयार है।

ममता को कोई भी कदम उठाने के पहले त्रिपुरा के नतीजों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जहां निकाय चुनावों में भाजपा ने बिना किसी गंभीर चुनौती के जीत हासिल की तथा तृणमूल को 222 सीटों में केवल एक सीट मिली। वहां खेला के जमने की बात तो दूर, खेला ही नहीं हुआ।

भाजपा का यही लक्ष्य था, केवल जीतना ही काफी नहीं, विपक्ष को मेरुदंडविहीन कर देना था ताकि भविष्य में वह सिर नहीं उठा सके। यह ठीक है कि वहां हिंसा हुई लेकिन लोकतंत्र में अंतिम चीज होती है जीत। हिंसा के आरोप तो तृणमूल पर भी लगे हैं। एक समीक्षा के अनुसार कम से कम 40 सीटों पर विपक्ष जीत सकता था यदि गठजोड़ होता।

वैसे राजनीति में असंभव जैसा कुछ नहीं है। भविष्य में भारतीय राजनीति किन मोड़ों से गुजरेगी, किसे मंजिल मिलेगी, कौन दिशाहीन हो अंधेरे में गुम हो जायेगा, कौन पिछली पंक्ति से जोर लगाकर आगे निकल जायेगा, कहना मुश्किल है लेकिन सतत प्रयास जरूरी है अंतिम सफलता के लिए। मेघालय में मुकुल संगमा कांग्रेस के 17 विधायकों में 12 को लेकर तृणमूल में शामिल हुए हैं, उससे भी ममता का उत्साहित होना स्वाभाविक है, फिर भी रणनीति आज की नहीं, भविष्य की होनी चाहिए।

कांग्रेस में आत्ममंथन जरूरी

मेघालय में कांग्रेस के विभाजन, कई दिग्गज नेताओं के पार्टी से अलग होने से पैदा संकट तथा पांच राज्यों के आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस में गहन आत्ममंथन की नितांत आवश्यकता है। आज जब कांग्रेस को अपनी सारी ताकत से भाजपा को चुनौती देने की जरूरत है तब वह दिशाहीन दिख रही है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी बीमार चल रही हैं और नेताओं के लाख कहने पर राहुल गांधी कमान संभालने में आनाकानी कर रहे हैं। हाल ही में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में जब उनसे आग्रह किया गया तब उन्होंने भाजपा की विचारधारा से लड़ने की बात कही जो देश में विभाजन पैदा कर रही हैं। जो भाजपा-संघ से भयभीत हैं, वे कांग्रेस छोड़कर जा सकते हैं। राहुल के प्रति नवीन-प्रवीण सबकी आस्था है और यह धारणा है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस को नेतृत्व देने तथा मोदी का सामना करने में राहुल ही सक्षम हैं। राहुल को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसी विचारधारा तथा पार्टी सिद्धांत की दुहाई देते हुए अमेरिका से परमाणु संधि के विरोध में माकपा ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया था तथा बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल ने मिलकर वाम शासन का अंत कर दिया था। इसके लिए माकपा के तत्कालीन महासचिव प्रकाश करात की काफी आलोचना हुई थी।

आदर्श, विचारधारा, सिद्धांत का पालन जरूरी है लेकिन राजनीति में समकालीन परिस्थितियों के अनुकूल ढलना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। राहुल अपने ढंग से पार्टी चलाना चाहते हैं, ठीक है लेकिन लोकतंत्र में वोट का सर्वाधिक महत्व है। उसमें लगातार पिछड़ने का मतलब पार्टी का कमजोर होना। तब पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा। राहुल को इसके लिए आम कार्यकतार्ओं के लिए अपने दरवाजे खोलने होंगे, उनकी बातें सुननी होंगी, जनता से सीधे जुड़ना होगा, सही सलाहकार का चयन और सही रणनीति, सही दिशा, सही मार्गदर्शन अपनाना होगा।

उन्हें यह सोचना होगा कि कभी उनके दाहिने तथा बाएं हाथ समझे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा जितिन प्रसाद क्यों भाजपा में गये, मुकुल संगमा जैसे पुराने और समर्पित नेता ने क्यों अलग राह अपनायी, केरल में हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन की परंपरा क्यों टूटी, बंगाल, त्रिपुरा आदि राज्यों में वह क्यों विधायकशून्य है? इन विषयों का गहन मंथन, ईमानदार विश्लेषण उन्हें सही मार्ग दर्शन में सहायक होगा।

उत्तर प्रदेश

चुनावी राज्यों का संक्षिप्त विश्लेषण : उत्तर प्रदेश में 2017 में भाजपा विशाल बहुमत से सत्ता में आयी। उसने 403 में से 312 सीटों पर जीत दर्ज की। योगी आदित्यनाथ ने बागडोर संभाली और वे लगातार सशक्त होते गये, उनका कद पार्टी में शिखर की ओर उठता गया। आज स्थिति यह है कि मोदी के बाद उनका नाम आने लगा है। उनके खिलाफ पार्टी में आवाज उठी, चर्चा थी कि चुनाव के मद्देनजर उन्हें हटाकर नया मुख्यमंत्री बनाया जायेगा लेकिन आदित्यनाथ के आगे किसी की नहीं चली, हालांकि संकेत थे कि मोदी उनके खिलाफ हैं।

आज प्रधानमंत्री योगी के कंधे पर हाथ रखे नजर आ रहे हैं और जनता को संदेश दिया जा रहा है कि दोनों नेताओं में अद्भुत सामंजस्य है, दोनों की केमिस्ट्री बेमिसाल है, जनसभाओं में योगी की प्रशंसा करते नहीं थकते मोदी। आज योगी भाजपा की ताकत के पर्याय बन गये हैं हालांकि उनकी कार्यशैली, आक्रामकता, हठवादिता पार्टी के लिए भविष्य में खतरा बन सकती है।

इनके लिए वे विपक्ष के निशाने पर हैं। भाजपा का दावा है कि योगी ने राज्य से कुख्यात माफिया गिरोहों को मटियामेट कर दिया है और विधि-व्यवस्था की स्थिति पूवार्पेक्षा काफी अच्छी है लेकिन लखीमपुरखीरी, हाथरस कांड इस दावे को खोखला साबित करते हैं।

कोरोना संक्रमण से निपटने में योगी प्रशासन की शोचनीय असफलता समूते विश्व में चर्चा का विषय बनी जब लाशों को जलाने के लिए श्मशान में जगह नहीं थी, लाशों को गंगा में प्रवाहित करने, उन्हें गंगा तट पर बालू के नीचे दफनाये जाने के मार्मिक दृश्यों ने दुनिया का ध्यान खींचा।

पंचायत चुनावों में भाजपा को जोर का झटका लगा। खिसकते जनाधार ने पार्टी की चिंता बढ़ा दी। मंत्रिमंडल में विस्तार कर जातीय समीकरणों को साधने का प्रयास हुआ, योगी ने इसे सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने और सामाजिक संतुलन बताया।

2017 में योगी का लव जिहाद के खिलाफ प्रचार, अंतर्धमीय विवाह के खिलाफ आक्रामकता उनके हिन्दुत्व मुद्दे के ज्वलंत उदाहरण बने। और योगी हिन्दुत्व के शुभंकर। संसार के सबसे पुराने और वृहत्तम अति दक्षिणपंथी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो साथ है ही।

सर्वेक्षणों में भाजपा की पुनर्वापसी की भविष्यवाणी की जा रही है लेकिन अभी गंगा में काफी जलप्रवाह होना है, अभी नये समीकरण उभरने बाकी हैं, धुंधली तस्वीर के स्पष्ट होने की प्रतीक्षा है। प्रियंका गांधी ने महिलाओं को 40 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा कर महिलाओं को लुभाने की चेष्टा की है।

पार्टी का अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा भी सही कदम है क्योंकि पार्टी ने जब-जब गठजोड़ किया है तब-तब उसका जनाधार खिसका है। सपा के अखिलेश यादव उत्साहित हैं पंचायत चुनावों के नतीजों से। उन्होंने राज्य के पांच क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाकर जातीय समीकरण में भाजपा को मात देने का प्रयास किया है। भाजपा भी ऐसे संतुलन बनाने में जुटी है। राज्य में इस बार भी जातीय समीकरण निर्णायक हो सकते हैं। मुख्य मुकाबला इन्हीं दोनों गठजोड़ में है।

पंजाब

चुनावी राज्यों में पंजाब एकमात्र राज्य है, जहां कांग्रेस की सरकार है तथा वहां के नाटकीय घटनाक्रमों, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह के इस्तीफे, नयी पार्टी के गठन, भाजपा के साथ जाने तथा चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद कांग्रेस मजबूत स्थिति में है तथा मुख्य लड़ाई आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस के बीच है। अकाली दल भाजपा का साथ छोड़ चुका है और भाजपा अपने बूते वहां कोई चुनौती नहीं है।

राज्य के नये मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चेन्नी और पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच बेहतर तालमेल का अभाव है तथा कई मुद्दों पर दोनों में तीव्र मतभेद हैं। कैप्टन के अलग होने तथा भाजपा के साथ चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद यहां भाजपा को किसी बड़ी सफलता की उम्मीद नहीं है क्योंकि कैप्टन के साथ कांग्रेस के विधायकों का गुट नहीं गया और आपसी कलह को दरकिनार करते हुए एकजुट रहे। चुनाव में यदि सिद्धू संयमित रहे, सही रणनीति अपनायी तो कांग्रेस एक बार फिर वापसी की उम्मीद कर सकती है हालांकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में आप चंद सीटों से आगे है।
उत्तराखण्ड में भाजपा आपसी कलह से जूझ रही है और उसके सामने अपनी साख बचाने की चुनौती है। 2017 में 70 सदस्यीय विधानसभा में 57 सीटें जीतने वाली भाजपा डगमगायी दिख रही है हालांकि सर्वक्षणों में उसकी वापसी के संकेत हैं।

तब भाजपा के चाणक्य तथा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के चहेते त्रिवेंद्र सिंह रावत को कमान सौंपी गयी। और उन्हें हटाकर लोकसभा सांसद तीरथ सिंह रावत को लाया गया। तीन महीने बाद ही उनके स्थान पर जुलाई, 2021 में पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया।

धामी के सामने चारधाम मैनेजमेंट बोर्ड की समस्या का सर्वस्वीकार्य समाधान निकालने की चुनौती थी, धामी ने उच्च स्तरीय समिति की अनुशंसा पर बोर्ड भंग कर दिया है। यदि यह स्वीकार्य हुआ तो उनकी बड़ी सफलता होगी। वैसे, यहां भाजपा में अंदरूनी कलह और गुटबाजी कायम है।

झारखण्ड में पिछला चुनाव भाजपा इसलिए हार गयी थी क्योंकि मुख्यमंत्री रघुबर दास के प्रति पार्टी में विक्षोभ था। यदि भाजपा अपना घर संवारने में सफल रहती है तो वह एक बार फिर सत्ता में वापस आ सकती है।
60-सदस्यीय मणिपुर तथा 40-सदस्यीय गोवा विधानसभा में भाजपा की जीत पक्की मानी जा रही है। मणिपुर में कांग्रेस को पिछले चुनाव में 28 सीटें मिली थीं लेकिन 21 सीटें जीतने वाली भाजपा ने नगा पीपुल्स फ्रंट, नेशनल पीपुल पार्टी तथा लोक जनशक्ति पार्टी के सहयोग से सरकार की गठन किया।

उसके बाद से यहां कांग्रेस पतनशील हो गयी, उसकी शक्ति लगातार क्षीण होती गयी और वह आज हाशिए पर है क्योंकि कांग्रेस आलाकमान ने वहां की स्थिति पर गहन चिंतन करने, सुधारात्मक कदम उठाने के बदले अन्य दलों पर दोषारोपण करने में ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लिया।

भाजपा के सहयोगी नीतीश कुमार का जनता दल (यू) ने भी इस बार चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। गोवा में भी कांग्रेस हाशिए पर है। यहां भी मणिपुर दुहराया गया जब 17 सीटें जीतने के बावजूद सरकार गठन का न्यौता भाजपा को मिला जिसने क्षेत्रीय दलों के सहयोग से सरकार का गठन किया।

इस बार कांग्रेस को तोड़कर तृणमूल भी मैदान में है और संभवत: एनसीपी के साथ चुनाव लड़ सकती है। आप, शिवसेना, महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी, गोवा फार्वर्ड पार्टी भी मेंमैदान में है। बहुकोणीय संघर्ष में भाजपा की जीत आसान मानी जा रही है।

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