डॉ सुशील उपाध्याय
देश की नई शिक्षा नीति में भाषाओं पर काफी विमर्श हुआ। खासतौर से विदेशी भाषाओं के अध्ययन की स्थिति ने काफी ध्यान खींचा। चूंकि, नई शिक्षा नीति करीब 35 साल के अंतराल के बाद लागू की गई है इसलिए वैश्विक स्तर पर भाषाओं की ताकत में भी बदलाव आया है।
मसलन, इस दौरान रूसी भाषा की स्थिति कमजोर हुई है, जबकि चीनी यानि मंडारिन ने खुद को मजबूत बनाया है। अंग्रेजी की स्थिति में भले ही कोई बड़ा बदलाव न आया हो, लेकिन इस दौरान आर्थिक, राजनीतिक और युद्ध-आतंकवाद के कारण कई विदेशी भाषाओं की स्थिति में परिवर्तन हुआ है।
सामान्य ऑब्जर्वेशन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जर्मन, फ्रेंच, जापानी, कोरियन और अरबी भाषा की मांग बढ़ी है और अलग-अलग कारणों से भारतीय युवा इन भाषाओं की ओर आकृष्ट भी हुए हैं।
इस विमर्श में यह स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि भारत, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के संबंध में अब अंग्रेजी विदेशी भाषा नहीं है। इन देशों में अंग्रेजी को सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है।
दूसरी बात यह है कि जब भाषाओं के अध्ययन की बात करते हैं तो यह प्राइमरी, सेकेंडरी और सीनियर सकेंडरी स्तर की पढ़ाई से जुड़ा मामला है क्योंकि उच्च स्तर यानि विश्वविद्यालयों और समकक्ष संस्थानों में कौन-सी विदेशी भाषाएं पढ़ाई जाएंगी, सामान्य तौर पर इनका निर्धारण सरकारों द्वारा नहीं किया जाता।
इस बात को इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि नई शिक्षा नीति में चीनी और अरबी भाषा को स्कूल स्तर पर पढ़ाई जाने वाली भाषाओं में सम्मिलित नहीं किया गया है, लेकिन इन दोनों भाषाओं को देश के अनेक प्रमुख विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। बल्कि, कई स्थानों पर अरबी-फारसी आदि को विशेष प्रोत्साहन देकर पढ़ाया जाता रहा है।
नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने स्कूली स्तर पर आठ विदेशी भाषाओं को स्थान दिया है। यानि इन्हें सरकारी, अर्द्धसरकारी एवं निजी स्कूलों में एक विषय के तौर पर सम्मिलित किया जाएगा और संबंधित बोर्ड इन विषयों के लिए परीक्षा भी आयोजित करेंगे। इन भाषाओं में कोरियाई, जापानी, फ्रेंच, जर्मन, थाई, रूसी, स्पेनिश, पुर्तगाली को सम्मिलित किया गया है।
इन सभी को स्कूल स्तर पर पढ़ाने के मजबूत आधार मौजूद हैं, लेकिन इनके अलावा भी अनेक ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें स्कूलों में विकल्प के तौर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। ऐसे छह आधारों पर उन भाषाओं को देखेंगे जो भारत में स्कूली स्तर पर वैकल्पिक विषय के तौर पर उपलब्ध होनी चाहिएं।
अब यह स्थापित तथ्य है कि दुनिया में नए सिरे से बहुभाषी होने का चलन बढ़ा है। इसके पीछे आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक कारणों की बड़ी भूमिका है। इसी का परिणाम है कि अमेरिका जैसे देशों में बहुभाषा शिक्षा कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है, ताकि अमेरिका की नई पीढ़ी को दुनिया की ताकतवर भाषाओं से रूबरू कराया जा सके।
इसके अलावा यूरोप में ऐसे कई देश हैं जिन्होंने पहले ही स्कूली स्तर पर तीन-चार भाषाओं को पढ़ाने की व्यवस्था की गई है। यह बात इसलिए भी ध्यान देने योग्य है कि भारत की तुलना में यूरोप के देश काफी छोटे हैं और उनमें से एक भी ऐसा देश नहीं है जहां भारत के समान 22 आधिकारिक भाषाएं हों।
इन देशों ने पड़ोसी देशों की भाषाओं के साथ-साथ उन भाषाओं पर भी ध्यान दिया है, जहां से इन्हें भविष्य में आर्थिक, सैन्य और राजनीतिक चुनौती मिल सकती है। अब इस पैमाने पर नई शिक्षा नीति पर निगाह डालिये तो साफ पता चलेगा कि स्कूल स्तर पर चीनी यानि मंडारिन को स्थान न देना एक बड़ी चूक है।
वैसे भी कहा जाता है कि दोस्त की भाषा सभी लोग सीख लेते हैं, इससे कहीं अधिक बड़ी जरूरत प्रतिद्वंद्वी की भाषा सीखने की होती है।
दुनिया में बोलने वालों की संख्या के लिहाज से 15 सबसे बड़ी भाषाओं में अंग्रेजी, हिंदी-उर्दू, मंडारिन, स्पेनिश, फ्रेंच , अरबी, बांग्ला, रूसी, पुर्तगाली, इंडोनेशियाई, जापानी, जर्मन, इटैलियन, थाई अैर तुर्कीज हैं।
ये आंकड़े वर्ष 2020 के आधार पर हैं। हालांकि इनमें हर साल कमी या बढ़ोत्तरी होती रहती है। इन 15 में से केवल मंडारिन, इंडोनेशियाई, इटैलियन, तुर्कीज ऐसी भाषाएं हैं जिन्हें नई नीति में स्थान नहीं दिया गया है। (यहां अरबी का नाम इसलिए सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि ये मुसलमानों की धार्मिक भाषा होने के कारण प्रायः सभी मदरसों और मुस्लिम बहुल स्कूलों में पढ़ाई जाती है
। यह दुनिया के कई प्रमुख मुस्लिम देशों की आधिकारिक भाषा भी है। लगभग यही स्थिति फारसी की भी है। वैसे, फारसी को संस्कृत, पालि, प्राकृत के बराबर शास्त्रीय भाषा के तौर पर महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसलिए अगली पंक्तियों में इन दोनों भाषाओं का उल्लेख आवश्यक नहीं होगा।)
दूसरे आधार के तौर पर भारत के सबसे बड़े आर्थिक साझीदार देशों और उनमें बोली जानी वाली भाषाओं को ले सकते हैं। भारत के 15 सबसे बड़े आर्थिक साझीदारों में क्रमशः चीन, अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, स्वीटजरलैंड, जर्मनी, हांगकांग, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, नाइजीरिया, बेल्जियम, कतर, जापान, इराक सम्मिलित हैं।
इस मानक पर तीन भाषाएं सामने आती हैं, मंडारिन, इंडोनेशियाई (भाषा-इंडोनेशिया) और मलेशियाई (मलय), ये तीनों नई शिक्षा नीति की भाषा-सूची में शामिल नहीं हैं। तीसरा आधार दुनिया की सबसे अर्थव्यस्थाओं को ले सकते हैं क्योंकि इनमें से सभी देशों के साथ भारत के रिश्ते हैं और आने वाले दिनों में भी इन देशों के साथ रिश्ते बनाकर रखने होंगे।
इन प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में क्रमशः अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, ब्राजील, कनाडा, रूस, दक्षिण कोरिया, स्पेन, ऑस्ट्रेनिया, मैक्सिको, इंडोनेशिया का नाम शामिल है। (भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन यहां अन्य देशों की बात हो रही है इसलिए इस सूची में भारत के नाम उल्लेख नहीं किया गया है।)
इन देशों की भाषाओं को देखें तो भारत की नई शिक्षा नीति में मंडारिन, इटैलियन और भाषा-इंडोनेशिया का नाम होना ही चाहिए था। यूरोप की भाषाओं में जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश और पुर्तगाली को शामिल करना और इटैलियन को छोड़ देना अपने आप में रोचक है। इसके पीछे देश की आंतरिक राजनीति के समीकरणों को मुख्य कारण माना जा रहा है।
चौथे आधार के रूप में उन 10 देशों को ले सकते हैं, जहां भारतीय मूल के लोगों की सर्वाधिक आबादी है। ये देश क्रमशः अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, मलेशिया, सऊदी अरब, म्यांमार, इंग्लैंड, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और कुवैत हैं। इस मानक से मलेशियाई (मलय), बर्मीज और सिंहली का नाम सामने आता है।
नई शिक्षा नीति में भाषाओं के चयन का पांचवां आधार संयुक्त राष्ट्र की भाषाएं हैं। इनमें अंग्रेजी, रूसी, फ्रेंच, चीनी और अरबी हैं। इस पैमाने पर ही मंडारिन ही ऐसी है जिसे सम्मिलित रखा जाना चाहिए था। भाषा-शिक्षण का अंतिम आधार पड़ोसी देश होने चाहिए। नेपाल की नेपाली और बांग्लादेश की बांग्ला पहले से ही भारतीय भाषाओं में की सूची में शामिल हैं।
इसलिए इन्हें विदेशी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इसके बाद तीन भाषाएं शेष बचती हैं-चीन की मंडारिन, श्रीलंका की सिंहली और म्यांमार की बर्मीज। थोड़े दूर के पड़ोसियों के बारे में सोचें तो अफगानिस्तान की पश्तो भी इस सूची में शामिल कर सकते हैं क्योंकि थाईलैंड की थाई को पहले से ही सूची में रखा जा चुका है।
अब इन छहों आधारों पर जो भाषाएं निकल कर आती हैं उनकी संख्या आठ है।
यहां कई भाषाएं ऐसी हैं जो सभी आधार पर सम्मिलित किए जाने की पात्रता रखती हैं। इनमें मंडारिन का नाम खासतौर पर लिया जा सकता है। भले ही चीन के साथ भारत का रिश्ता चुनौतीपूर्ण है, लेकिन यह भाषा उपर्युक्त छह में से पांच मानकों पर दावेदार है। भाषा इंडोनेशिया तीन मानकों पर, जबकि इटैलियन, सिंहली, बर्मीज, मलय और तुर्कीज के पास दो आधार हैं, जिस कारण उसे विदेशी भाषा के रूप में पढ़ाए जाने का मौका मिलना चाहिए।
अफगानिस्तान में भारत के हितों को देखते हुए पश्तो भी इस सूची में होनी चाहिए और डच लोगों के साथ ऐतिहासिक रिश्तों को देखें तो नीदरलैंड की भाषा भी इस सूची में स्थान पा सकती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि स्कूल स्तर पर स्वीकृत की गई मौजूदा आठ भाषाओं को कम से कम दोगुना किए जाने की जरूरत है।
इन भाषाआें को स्कूल स्तर पर सम्मिलित न किए जाने का असर अगले कुछ सालों में देखने को मिलेगा। यह सरकार की उस सोच के भी उलट है जो वैश्वीकरण, बाजारीकरण और निजीकरण की हिमायती है।
यह भी स्थापित तथ्य है कि इन भाषाओं के बल पर विदेश में रोजगार के व्यापक अवसर पैदा होते हैं। मसलन, किसी आईआईटी ग्रेजुएट के लिए चीनी, जापानी या जर्मन भाषा आदि में से कोई एक भाषा जानने के चलते कहीं ज्यादा अवसर होंगे।
यहां खर्च का सवाल भी बार-बार आता है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि बड़ी संख्या में विदेशी भाषाओं के शिक्षकों की नियुक्ति कर सके। इसका जवाब यह है कि ये सभी वैकल्पिक भाषाएं हैं और सभी समृद्ध देश अपनी भाषाआें के पठन-पाठन के लिए आर्थिक सहयोग उपलब्ध कराते हैं।
इनमें जर्मनी और फ्रांस का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। वैसे, आर्थिक सहायता न भी मिले तो भी श्रीलंका, म्यांमार और अफगानिस्तान जैसे देशों में अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए बड़ी संख्या में ऐसे युवाओं की हमेशा जरूरत रहेगी जो इन देशों की भाषाएं जानते हों। भाषाएं केवल सांस्कृतिक रिश्तों को ही मजबूत नहीं करती, बल्कि कारोबार के नए रास्ते भी खोलती हैं।
इसलिए नई शिक्षा नीति में अतिरिक्त भाषाओं को शामिल किए जाने की जरूरत है। महज अंग्रेजी जान लेने भर से यह नहीं माना जा सकता कि अब दुनिया की अन्य भाषाओं को जानने और उन्हें पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत नहीं है।