भारी शब्द कहां मिलेंगे!

सुशील उपाध्याय

पाखंड एक भारी शब्द है, लेकिन जरूरी नहीं है कि यह किसी भाव को ठीक-ठीक अभिव्यक्त कर सके। कई अनुभव, अहसास और घटनाएं ऐसी होती हैं, जिनके सामने भाषा का असामर्थ्य साफ दिखने लगता है। किसी काम से घर से बाहर निकला तो देखा कि पुलिस-फोर्स के लोगों ने पूरा इलाका कवर किया हुआ था।

उन्हें मेरी आमद भी अवांछित लगी। किसी खास आदमी की सुरक्षा में लगे लोग शब्दों के जरिये ज्यादा संवाद के पक्ष में नहीं होते। अक्सर उनकी भाव-भंगिमाएं और यदा-कदा डंडा भी उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है।

उनके अंदाज को देखकर मैंने खुद ही पहल की और बताया कि घर के लिए कुछ सामान लेने निकला हूं। उन्होंने वापस घर जाने का इशारा किया क्योंकि सुरक्षा के लिहाज से पूरा बाजार भी बंद था।
पता चला कि देश के गृह मंत्री अंकिचन, गृहत्यागी, विरक्त और निस्पृह जीवन जी रहे कुछ प्रमुख संतों से मिलने आए हैं। बाद में उनकी मुलाकात का एक फोटो भी जारी हुआ।

इस फोटो में संतों की दिव्यता के साथ उनके आश्रम की भव्यता की मुखर होकर सामने आ रही थी। आलीशान कमरा, मन को लुभाते कालीन, आर-पार चमक वाली मेज, उस पर रखा गुलदान, बहुत उम्दा कपड़े से बना गैरिक पहनावा, दसियों लोगों के बैठने लायक सोफे और किसी कीमती लकड़ी से बना बुक-सेल्फ और भी न जाने क्या-क्या! बस, फोटो में इतना ही देख पाया।

इस फोटो में एक ही बात राहत देती दिखी कि देश के गृह मंत्री बराबरी के भाव से सोफे पर बैठकर बात कर रहे थे! खैर, संतो के इस वैभव में भी ईश्वर-अनुराग का ही कोई भाव छिपा होगा। भला, जो दीन-हीन हैं, ईश्वर भी उसका क्या करेगा!

घर वापसी की राह में दुर्गा मंदिर के ठीक किनारे पर कूड़े का ढेर अपनी मौजूदगी की दुंदुभी बजा रहा था। इन दिनों दिवाली की सफाई के कारण जरूरत से ज्यादा कूड़ा-कचरा निकल रहा है।

दो-तीन छोटे बच्चे, कुछ औरतें कूड़े से काम की चीजें छांटने में लगी थी। उनके सामने गंदा होने या गंदगी से लिथड़ जाने का न कोई भय था और न ही वे जुगुप्सा जैसे किसी भाव से वाकिफ थे।

उन्हें तो जिंदगी का सरंजाम ढूंढना था। शायद, मैं कुछ ज्यादा ही गौर से उन्हें देखने लगा। एक अधेड़ महिला को मेरा देखना कुछ अच्छा नहीं लगा, उसने कूड़े का एक बड़ा ढेर अपने हाथों से दूसरी तरफ ठेला और फिर कूड़े के उस हिस्से पर थूक दिया।

मैं असहज हुआ, फिर लगा कि मुझ पर नहीं, पाखंड शब्द के असामर्थ्य पर थूका है। या फिर मेरे जैसे लोगों को ‘विडंबना’ शब्द को फिर से पढ़ने-समझने के लिए प्रेरित किया है। वो फिर अपने काम में लग गई और मैं अपने जरूरी सामान के लिए विकल्प सोचने लगा।
नजदीक आती दिवाली विचारों की अबाध श्रंखला को तेज कर देती है। पड़ोस में ही एक सरदार परिवार रहता है। वे एंबुलैंस चलाते हैं। बल्कि, उनका मामला एंबुलैंस चलाने से ज्यादा का है। उनके पास हर तरह की एंबुलैंस है, छोटी-बड़ी, एसी वाली-बिना एसी वाली। ज्यादा दिन की बात नहीं है, महज छह महीने पहले कई लोगों को उनके सामने गिड़गिड़ाते देखा है।

उनका एक ही जवाब होता था, “इससे कम में कहीं एंबुलैंस मिल रही हो तो वहां से ले लो!” उन्हें पता था कि कोरोना के कहर में ग्राहकों की कमी नहीं है। उन्होंने सच में आपदा को अवसर में बदल लिया था।

इस दिवाली पर उनकी खुशी से भी प्रमाणित हुआ कि बीता सीजन जबरदस्त रहा है। अपनी उपलब्धियों के प्रदर्शन के लिए वे हर तरह के पटाखे लेकर आए और फिर कई घंटे तक उन्होंने पटाखों के जरिये जो तांडव किया, उसके लिए तांडव शब्द भी छोटा ही है।
मुझे उनकी खुशी से कोई तकलीफ नहीं थी।

मेरी दिक्कत अपने 85 साल उम्र के बूढ़े पिताजी को लेकर थी, जो खांसकर बेहाल हुए जा रहे थे। जरा-सी ही सही, लेकिन पड़ोस में रह रही 7-8 महीने की छोटी बच्ची के लगातार रोने से भी चिंता हो रही थी। मैं सुझाव ही दे सकता था कि बच्ची के कानों में रूई लगा लें। देर रात में वे किसी वक्त शांत हुए।

पटाखे बनाने पर रोक लगे या न लगे, मामला ये नहीं है, बात ये है कि लोग इतने असंवेदनशील कैसे हो सकते हैं! सुबह देखा तो उनके घर के सामने पटाखों के अवशेषों का ढेर लगा था। आज निगम के सफाईकर्मी ने शगुन मिलने की उम्मीद में पूरी गली को अच्छी तरह से साफ किया।

जिस घर से जो मिला, उसने ले लिया, लेकिन मामला सरदार जी के घर पर अटक गया। पता नहीं किस बात पर दोनों में बहस हुई और लगभग गाली-गलौच की नौबत आ गई। सफाईकर्मी भी कम नहीं था, उसके एक वाक्य ने सरदार जी को चित कर दिया, ‘‘देखना एक दिन इन्हीं एंबुलैंस में लदकर जाआगे!
खैर, छोड़िये इन बातों को।

फिलहाल टीवी चैनलों पर प्रधानमंत्री के उस वक्तव्य का आनंद लीजिए, जिसमें उन्होंने अगले 10 साल को उत्तराखंड का दशक कहा है। उम्मीद में कोई बुराई भी नहीं है। बीते दो दशकों से उत्तराखंड इसी उम्मीद पर तो टिका हुआ है।

जबकि, मेरे जैसे निंदाजीवी ज्यादा भारी-भरकम शब्दों की तलाश में हैं, जिनके जरिये खुद को अभिव्यक्त कर सकें क्योंकि हमारे आसपास के माहौल के सामने ‘पांखंड’ और ‘तांडव’, दोनों ही कमतर साबित हो रहे हैं।

विडंबना ने तो न जाने कब से अपना अर्थ खोया हुआ है। फिर भले ही कूड़े में जिंदगी की उम्मीदों को तलाश रही महिला कूड़े पर थूके या चमचम करते दिव्य कालीनों पर!

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