उत्सव की राजनीति और कोरोना विस्फोट

आर के प्रसाद

कोलकाता। उत्सवोन्मुखी पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा का उत्सव अभी समाप्त हुआ है और दीपावली तथा काली पूजा की तैयारियां चरम पर हैं। पूजा के दिनों में पण्डालों में जिस तरह से भीड़ उमड़ी और काली पूजा के दौरान भी इस उत्साह में जरा भी कमतरी के संकेत नहीं हैं, उससे कोरोना की तीसरी लहर की आहट मिल रही है।

राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर जोरदार धमाका करने को आतुर हैं तथा गोवा से लेकर असम और त्रिपुरा से लेकर उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को पहचान दिलाने तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प के रूप में सशक्त दावा ठोंकने के तहत भारत अभियान पर हैं लेकिन कोरोना की ओर प्रशासन में अनिवार्य सतर्कता का अभाव है।

बंगाल में बारो मासे तेरो पार्वण की उक्ति प्रचलित है जिनके साथ राजनीति अपरिहार्य रूप के जुड़ी है। सद्य समाप्त दुर्गापूजा के दौरान भीड़ जिस तरह बेफिक्र, लापरवाह थी, उसका खामियाजा आने वाले महीनों में राज्य के निवासियों को भुगतना पड़ सकता है।

आश्चर्य की बात है कि केरल का उदाहरण सामने था, जहां ओणम महोत्सव के बाद कोरोना विस्फोट विकराल बन गया और नियंत्रण के बाहर हो गया लेकिन तृतीया और चतुर्थी से ही पण्डालों में भीड़ अनियंत्रित होने लगी। स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने तृतीय लहर की बार-बार चेतावनी दी थी लेकिन कौन सुनता है। अंत में प्रशासन सतर्क हुआ, बाहर से दर्शकों पर प्रतिबंध लगाया गया।

स्थिति की गंभीरता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि श्रीभूमि स्पोर्टिंग क्लब का बुर्ज खलीफा की अनुकृति पर निर्मित पण्डाल की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए रेलवे ने संबद्ध स्टेशन पर ट्रेनों का ठहराव कम कर दिया, बाद में वहां प्रवेश बंद करना पड़ा।

आनंदोत्सव में उन्माद की अनुमति क्यों दी गयी, कोरोना के बढ़ते मामलों के लिए दोषी कौन है, सवाल यह है। कोरोना की दूसरी लहर की भयावहता को कोई कैसे भूल सकता है, जब अस्पतालों में बेड उपलब्ध नहीं थे, आक्सीजन के अभाव में लोगों ने तड़प-तड़प कर जान गंवायी, श्मशानों में जगह नहीं थी, लाशें गंगा में प्रवाहित की गयीं, किनारे दफन कर दी गयीं।

फिर भी मनुष्य यदि सचेत न हो, तो यह मौत को आमंत्रित करने से कम कुछ भी नहीं है। लमहों की खता, सदियों की सजा। थोड़े से आनंद के लिए घोर विपत्ति को आमंत्रण। मानव स्मृति इतनी कमजोर तो नहीं है कि सद्य घटित विभीषिका को भूल जाये।
यह सच है कि कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं लेकिन अनियंत्रित नहीं हैं। यदि स्थिति भयावह होती है तो इसकी जिम्मेदारी नेताओं, प्रशासन पर समान रूप से होगी। भारी भीड़ अप्रत्याशित नहीं थी, सभी पक्षों को इसका पूर्वानुमान था, फिर भी अनगिनत पूजा आयोजन की अनुमति दी गयी, प्रशासन के आड़े आ गयी राजनीति।

जब आयोजक मंत्री हों, नेता हों और वे लोग नियों का उल्लंघन कर रहे हों, हाई कोर्ट के निर्देशों को अमान्य किया जा रहा हो, तब हालात बेकाबू होंगे ही। छह माह पहले विधानसभा चुनाव हुए। सभाओं में उमड़ी भारी भीड़ ने नेताओं को संबल प्रदान की लेकिन घातक कोरोना मानवता को तबाह कर गया।

एक दिन में (7 मई) संक्रमितों की संख्या जब 4.14,188 हो गयी, विश्व-कीर्तिमान बन गया, तब फिर लाकडाउन की याद आयी। जो भी हो, जीतने वाले जीते, गद्दीनसीं हुए, जनता पिसने के लिए है, पीसी गयी।
आर्थिक पहलू
दुर्गापूजा के दौरान होने वाली आर्थिक गतिविधियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि राज्य की अर्थव्यवस्था में इसका भारी योगदान है। ब्रिटिश काउंसिल के एक सर्वेक्षण के अनुसार इस साल पूदा के दौरान 32,377 करोड़ का लेनदेन हुआ जिसने राज्य की अर्थव्यवस्था में (जीडीपी) में 2.58 प्रतिशत का योगदान दिया। मूर्ति निर्माण, पंडाल, बिजली, खुदरा कारोबार, विज्ञापन आदि से ये आय हुई। अस्थायी ही सही, लाखों को आय का मौका मिला। कई क्षेत्रों में स्थिति करीब कोरोना पूर्व की स्थिति में पहुंच गयी।
केंद्र के निर्देश
कोरोना की तीसरी लहर को रोकने के लिए केंद्र ने राज्य को उत्सवों के दौरान संयम और सतर्कता बरतने के निर्देश दिए थे लेकिन दुर्गोत्सव में बेपरवाह भीड़ ने कोरोना प्रोटोकोल का उल्लंघन किया जिसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है और महादशमी के बाद केवल कोलकाता में संक्रमितों की संख्या में 27 प्रतिशत की वृद्धि ने चिंता बढ़ा दी है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के इस सर्वेक्षण के आधार पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्य को सतर्कता के निर्देश दिए हैं। केरल में भी यही स्थिति रही है जहां ओणम के बाद कोरोना विस्फोट हो गया और परिस्थितियां नियंत्रण के बाहर हो गयीं।

ऐसी स्थिति में भी पश्चिम बंगाल सरकार ने क्यों नरमी बरती, अनियंत्रित भीड़ को पूजा-स्थलों के भ्रमण के दौरान कोरोना नियमों का खुलेआम उल्लंघन की छूट क्यों दी गयी, इस पर भी चिंता जाहिर की गयी है। केंद्र ने कोरोना परीक्षण की गति में तेजी लाने के साथ ही आसन्न कालीपूजा, दीपावली आदि त्योहारों के दौरान कड़ी निगरानी के निर्देश दिए हैं।
राज्य के एक स्वास्थ्याधिकारी के अनुसार पूजा के दौरान उमड़ी भीड़ आतंक पैदा करने वाली थी। बुर्ज खलीफा (श्रीभूमि) पण्डाल सहित मंत्रियों के पण्डालों तथा अन्यत्र जनसैलाब को शुरू से नियंत्रित करने की आवश्यकता थी, जिसकी अनदेखी की गयी। राज्य के चिकित्सकों ने आशंका जतायी है वह भविष्य के प्रति भयावह दृश्य प्रस्तुत करती है। उनका कहना है कि पूजा के बाद कोरोना के जो मामले आये हैं, उनमें अधिसंख्य घातक हैं।

परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए राज्य के 28 अस्पतालों के विभिन्न विभागों में 17 से 29 अक्टूबर के बीच आये 11,200 आउटडोर रोगियों (प्रत्येक अस्पताल के 400 रोगी) की परीक्षा की जायेगी जिसकी रपट 1 नवंबर तक केंद्र को प्रेषित करनी है। दूसरी ओर राज्य का दावा है कि पूजा के शीघ्र बाद उच्च स्तरीय बैठक में समीक्षा के बाद कई उपचारात्मक कदम उठाये गये हैं जिनमें रात्रिकालीन प्रतिबंध, जांच-गति-वृद्धि, कंटेनमेंट तथा माइक्रो कंटेनमेंट जोन में वृद्धि शामिल है।
परिवर्तन की बयार
राज्य में दुर्गोत्सव का पिछले करीब एक दशक से व्यापक पैमाने पर राजनीतिकरण होता गया। राजनीति पहले भी थी, लेकिन वह सीमित और मर्यादित थी। बाद में यह राजनीति के प्रचार का मंच बनता गया, विवादों में घिरता गया। पूजा आयोजकों की अभिनत्व की खोज, प्रतिस्पर्धी मानसिकता, मां दुर्गा की प्रतिमा निर्माण में वैविध्य की चाह भी कई अवसरों पर विवाद का कारण बना।

करीब साढ़े तीन दशकों के वाम शासन के दौरान शासन इन आयोजनों से नीतिगत कारणों से प्रत्यक्ष रूप से विरत रहा लेकिन लोगों की भारी संख्या में स्वत:स्फूर्त भागीदारी, लहराता जनसमुद्र भला वाम मोर्चे को कैसे आकृष्ट नहीं करता। दुर्गोत्सव फिर शारदोत्सव में परिणत हो गया। वैसे, राज्य के लिए राजनीतिक थीम कोई नयी बात नहीं है। कई पूजा के आयोजक माकपा (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) के नेता होते थे।

इससे होने वाली आय पार्टी के काम आती थी। उन दिनों एकडालिया पार्क की पूजा की काफी ख्याति थी जिसे आम तौर पर सुब्रत मुखर्जी का ठाकुर (प्रतिमा) कहा जाता था। सुब्रत कांग्रेस के प्रमुख नेता थे, बाद में तृणमूल में आ गये। नेताजी सुभाष चंद्र बोस बागबाजार सार्वजनिन दुर्गापूजा के प्रमुख थे।
कई बार जब पूजा के दिनों में मुस्लिम पर्व आया तब अल्पसंख्यकों को तरजीह देने पर विवाद हुए और अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा। 2000 के बाद आधुनिकता, कलात्मकता, पण्डालों की भव्यता, नये प्रयोग, जगमगाती वैद्युतिक छटा, सेलिब्रिटी तथा नेताओं द्वारा प्रतिमाओं का ससमारोह अनावरण के नये दौर की शुरुआत हुई।

पण्डालों की विविधता, अभिनवता ने पूरे विश्व को आकर्षित और चमत्कृत किया। कहीं भांड़, कहीं दियासलाई की तिल्लियों, कहीं रिफिल आदि से बने पण्डालों ने भारी भीड़ को आकृष्ट किया। इस बदली हुई परिस्थिति का भरपूर लाभ उठाया ममता बनर्जी ने। ममता और अन्य प्रमुख तृणमूल नेता हर प्रमुख पण्डालों में उद्घाटन करने लगे और कई नेता पूजा के आयोजक बन बैठे। कुछ इस काम में पहले से शामिल थे, कुछ अन्य ने बाद में आयोजन शुरू किया।

पूजा कमेटियों को नकद राशि, बैनर, होर्डिंग्स पर छूट आदि की परंपरा शुरू हुई। फिर शुरू हुई थीम आधारित पूजा, जिनमें राजनीतिक थीम प्रमुख थी। कभी प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा, कभी उनका पलायन, कभी नया नागरिकता कानून को थीम बनाया गया। कई बार कुछ थीम को लेकर भारी विवाद हुए। कुछ ने इसे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर प्रहार बताया तो कुछ ने भावाभिव्यक्ति की स्वतंत्रता करार दिया, कुछ ने जनभावनाओं की कलात्मक प्रस्तुति कहा।
पूजा की शुरुआत
बंगाल में पिछली तीन शताब्दियों से दुर्गापूजा के आयोजन हो रहे हैं। बंगाल से ही देश तथा विदेश के दूसरे हिस्सों में दुर्गा पूजा आयोजित करने का चलन फैला। कहा जाता है कि 1757 के पलासी युद्ध में बंगाल के शासक नवाब सिराजुद्दौला पर रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत पर भगवान के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था।

युद्ध के दौरान नवाब सिराजुद्दौला ने क्षेत्र के सारे चर्च को मटियामेट कर दिया था। तब राजा नव कृष्णदेव ने भव्य दुर्गा पूजा के आयोजन का प्रस्ताव रखा और इस प्रकार उसी वर्ष पहली बार कोलकाता में दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ। राज्य के कृष्णनगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों ने भव्य मूर्तियों का निर्माण किया। इसके प्रमाण के तौर पर अंग्रेजों की एक पेटिंग मिलती है. जिसमें कोलकाता में हुई पहली दुर्गा पूजा को दर्शाया गया है।

दुर्गा पूजा को देखकर जमींदार अचंभित हो गये और बाद के वर्षों में जब बंगाल में जमींदारी प्रथा लागू हुई तो जमींदार हर साल भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन करने लगे। एक अन्य कहानी के अनुसार पहली बार नौवीं सदी में बंगाल के रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान के पहली बार दुर्गा पूजा आयोजित की थी। एक दूसरी कहानी के मुताबिक पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने करवाया था जो पूरी तरह से पारिवारिक था। बंगाल में पाल और सेनवंशियों ने दुर्गा पूजा को काफी बढ़ावा दिया।
अभिनव प्रयोग
कहने को तो दुर्गापूजा विशुद्ध धार्मिक आस्था का पर्व है लेकिन कालांतर में यह कला और सर्जनात्मकता के भव्य प्रदर्शन का आधार बन गया। कलाकार और दुर्गापूजा के आयोजकों ने समसामयिक विषयों- राजनीतिक परिदृश्य, ग्लोबल वार्मिंग, युद्ध, सिनेमा, कोरोना त्रासदी आदि पूजा के थीम बन बैठे। पश्चिम बंगाल की इस बार की दुर्गापूजा दो अभिनव प्रयोगों के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज रहेगी।

एक तो बुर्ज खलीफा की अनुकृति पर निर्मित भव्य पण्डाल तथा दूसरी बेहाला के बरिशा क्लब में मां दुर्गा की परंपरागत लीक से हटकर बनायी गयी विचारोत्तेजक प्रतिमा जिसमें राजनीतिक परिदृश्य की अभिव्यक्ति ने न केवल दर्शकों को आकर्षित कियी अपितु समीक्षकों और कलाप्रेमियों ने भी जिसकी भरपूर प्रशंसा की है और पुरस्कृत हुई है। यहां प्रतिमा की अवधारणा में शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित, भस्मासुर को ताकते बड़े नेत्र तथा अन्य देव-देवियां नहीं हैं। यहां प्रतिमा के नेत्र नीचे की ओर झुके हैं, यह एक असहाय मां है, अपने बच्चों के साथ जिनके शरीर पर पूरे वस्त्र भी नहीं हैं। यहां शक्ति पूजा नहीं, नारी की असहायता मूर्तिमान है। पण्डाल में भी अभिनवता दिखी। यह एक डिटेंशन कैम्प है जिसे आम तौर पर यातना शिविर समझा जाता है। वस्तुत: इसका थीम भागेर मां (मां का विभाजन) है और यह विशेष रूप से एक डिटेंशन कैंप के अंदर एक परिवार के यातनादायक और असहाय जीवन का विवरण है। नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स और खुद को शरणार्थी के रूप में खोजने वाले लोगों की दुर्दशा को दर्शाया गया है।

अन्यत्र यह भी दर्शाने की कोशिश है कि कैसे विभाजन के दौरान ढाकेश्वरी मां की मूल प्रतिमा को ढाका से कोलकाता लाया गया। प्रतिमा के जिन चार बच्चों को दर्शाया गया है उनमें दो पुत्र, दो पुत्रियां हैं। ये कार्तिक, गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती हैं। उनमें दो पुत्र, दो पुत्रियां हैं। ये कार्तिक, गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती हैं।
बरिशा की इस प्रतिमा और थीम को सरकार ने सर्वश्रेष्ठ माना है और पुरस्कृत किया है। बंगला के सर्वाधिक लोकप्रिय अखबार आनंद बाजार पत्रिका ने भी अपने आनलाइन सर्वेक्षण में इसे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है।

क्लब के अनुसार इस प्रतिमा के संरक्षण का दायित्व प्रमुख जिंदल समूह ने लिया है। क्लब के अध्यक्ष सुदीप ने बताया कि ममता बनर्जी जब उद्घाटन करने आयी थीं तब हमारे काम की प्रशंसा की थी और हमारे लिए वह सबसे बड़ा पुरस्कार था। 2019 और 2020 में भी यहां की प्रतिमाएं प्रशंसित और संरक्षित हुई हैं। इनमें एक इको पार्क और दूसरी न्यू टाउन के रास्ते पर है।

2020 का थीम भी समसामयिक था जिसमें लाकडाउन के कारण लाखों प्रवासी श्रमिकों की त्रासदी दिखायी गयी थी। प्रवासी उमा नामक थीम के अंतर्गत मीलों पैदल चल रहे श्रमिकों की दुर्दशा ने दर्शकों को आकृष्ट किया था।

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