हल्द्वानी। विद्यालयी शिक्षा सचिव आर मीनाक्षी सुंदरम ने जाते जाते अविभाजित यूपी में नियुक्त एलटी एवं प्रवक्ता के तदर्थ शिक्षकों से जुड़े मामले का सर्व स्वीकार्य और सर्वग्राही व्यवस्था बनाने के बजाय नए विवाद को जन्म दे दिया है। इससे 650 से ज्यादा शिक्षकों की वरिष्ठता का नया पेंच शुरू हो गया है। अब यह विवाद एक बार फिर न्यायिक पचड़ों में भी शिक्षकों को उलझाए रखने वाला है। इस ताजा आदेश से सचिव ने 23 जुलाई 2019 के शासनादेश को ही पलट दिया है। यह शासनादेश 11 सितंबर 2019 को अपर निदेशक माध्यमिक शिक्षा रामकृष्ण उनियाल ने क्रियान्वित किया था और इसके साथ ही अविभाजित यूपी में नियुक्त किए गए तदर्थ शिक्षकों को 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित कर दिया था। इस तिथि से ही इन शिक्षकों की जेष्टता का भी निधार्रण हुआ था।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर अस्सी और नब्बे के दशक में शिक्षकों की भारी कमी की राह आसान करने के लिए एलटी एवं प्रवक्ता के पदों पर तदर्थ नियुक्ति का चलन शुरू हुआ था। तब शिक्षकों की नियुक्ति के लिए ठोस ढांचा भी नहीं था और बेरोजगारी का स्तर भी बहुत न्यून था। इन शिक्षकों की नियुक्ति करते समय तत्कालीन विशेष सचिव शंकर दत्त ओझा के एक शासनादेश में समाहित व्यवस्था गौर करने लायक है। उन्होंने 21 नवंबर 1995 के शासनादेश में यह उल्लेख किया है कि ‘ विनियमितीकरण की कार्रवाई उत्तराखंड क्षेत्र की परिस्थितियों के संदर्भ में अपवाद स्वरूप जनहित में की जा रही है। इसे किसी अन्य मामलों में पूर्व दृष्टांत नहीं माना जाएगा ’। इस शासनादेश में 2 अक्टूबर 1986 से 3 सितंबर 1990 तक के तदर्थ शिक्षकों का विनियमितीकरण किया गया था।
क्या है मामला
अंग्रेजी सहायक अध्यापक (एलटी) भुवन चंद्र कांडपाल 2002 में पदोन्नति का लाभ न दिए जाने के कारण नैनीताल उच्च न्यायालय की शरण में गए थे। कांडपाल की दलील थीं कि शिक्षा निदेशालय ने 21 नवंबर 1995 के प्रतिबंध के तहत विनियमितीकरण में उनकी ज्येष्ठता 1999 की है। उनकी मांग विनियमितीकरण और ज्येष्ठता 1 अक्टूबर 1990 की थीं। उच्च न्यायालय ने 28 दिसंबर 2004 को कांडपाल की दलील स्वीकार की और 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित करते हुए ज्येष्ठता के आदेश दे दिए। यह फैसला एकलपीठ का था और शिक्षा विभाग ने इसको विशेष अपील के माध्यम से चुनौती दी। यहां भी हार के बाद शिक्षा विभाग उच्चतम न्यायालय की शरण में गया। यहां दाखिल विशेष अनुज्ञा याचिका खारिज हो गई। इसके बाद विभाग ने कांडपाल को 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित किया और ज्येष्ठता भी दे दी। इसी के आधार पर कांडपाल प्रवक्ता, हेड मास्टर और बाद में प्रधानाचार्य बनाए गए। इस मामले को कुछ को शिक्षकों ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी और 3 जनवरी 2019 को न्यायालय ने उनको भी कांडपाल की तरह का लाभ देने का आदेश जारी कर दिया। इस आदेश के बाद न्यायालय जाने वाले शिक्षकों का विनियमितीकरण और ज्येष्ठता का निर्धारण कर दिया।
इसका कमीशन से नियुक्त शिक्षकों ने किया विरोध
1995 या इसके बाद नियुक्त शिक्षकों ने इस आदेश का विरोध किया। इन शिक्षकों का आरोप था कि इससे 1979 एवं संशोधित नियमावली के प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है। इन शिक्षकों ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती भी दी, लेकिन न्यायालय ने राहत देने से इंकार किया और मामले को लोक सेवा अभिकरण नैनीताल में ले जाने का सुझाव दिया। मामला लोक सेवा अभिकरण नैनीताल में चला गया। अभिकरण ने पूरे मामले में सचिव का जवाब तलब किया हैं। अभिकरण ने अंतिम सुनवाई की तिथि 11 अगस्त 2021 को मुकर्रर की है।
सचिव ने पक्ष और विपक्ष के शिक्षकों से मांगे थे प्रत्यावेदन
लोक सेवा अभिकरण के 1 दिसंबर 2019 के आदेश के तहत इस श्रेणी के सभी शिक्षकों से प्रत्यावेदन मांगे और इन प्रतिवेदन के गुणदोष के आधार पर पांच पेज का आदेश जारी कर दिया। इसमें विनियमितीकरण की तिथि तो 1 अक्टूबर 1990 मानी लेकिन ज्येष्ठता का पेंच शुरू कर दिया। यह आदेश 13 जुलाई 2021 को जारी किया गया। इस आदेश के आधार पर 11 सितंबर 2019 को अपर निदेशक माध्यमिक शिक्षा रामकृष्ण उनियाल का आदेश निष्प्रभावी कर दिया। इससे सीधे तौर पर न्यायालय से राहत पाने वाले शिक्षकों की ज्येष्ठता फिर उलझन में फंस गई है।
आदेश का असर : सारे आर्थिक लाभ और पदोन्नति प्रभावित
सचिव के इस ताजा आदेश के बाद करीब 650 एलटी एवं प्रवक्ताओं के सारे आर्थिक लाभ और पदोन्नति बाधित हो गई है। इस श्रेणी के प्रवक्ता विनोद कुमार जोशी का कहना है कि सचिव का आदेश असंवैधानिक और त्रुटिपूर्ण है। चूंकि उत्तराखंड सरकारी सेवक ज्येष्ठता नियमावली 2002 ( कानून) स्थापित है, नियममावली के नियम आठ में स्पष्ट किया गया है कि सरकारी सेवक की ज्येष्टता विनियमितीकरण की तिथि से मानी जाएगी। जोशी का कहना है कि जो भी शिक्षक 1 अक्टूबर 1990 को विनियमित हुए हैं, उनकी ज्येष्ठता इसी तिथि से मानी जाएगी। सचिव ने आदेश जारी करते समय इस नियमावली को संज्ञान में नहीं लिया होगा। उन्होंने यह भी कहा कि जब लोक सेवा अभिकरण में मामला चल रहा था तो इस तरह के आदेश का औचित्य ही नहीं था। यह आदेश शिक्षकों के बांटने और उलझाने का काम करेगा।