उत्तराखंड में फिर से परवान चढ़ेगी गैंडा लाने की कवायद
प्रदेश सरकार ने एनटीसीए को भेज दिए हैं उसके सवालों के जवाब
- 2019 में राज्य वन्यजीव बोर्ड ने दी थी परियोजना को मंजूरी
देहरादून।उत्तराखंड के जंगलों को फिर से गैंडे से आबाद करने की कवायद फिर से
परवान चढ़ेगी। बता दें कि मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक व कार्बेट प्रशासन असम से गैंडे लाकर कार्बेट में बसाने की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (नेशनल टाइगर कंजरवेशन अथरिटी-एनटीसीए) को भेजी थी।योजना को लेकर एनटीसीए ने सरकार से कुछ सवाल किए थे।
डीपीआर का अध्ययन भारतीय वन्यजीव संस्थान से भी कराया गया था। बता दें कि
भारतीय वन्यजीव संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक कमर कुरैशी और अन्य दो विशेषज्ञों ने
2007 में कर्बेट नेशनल पार्क में गैंडो को बसाए जाने की वकालत की थी। उन्होंने कर्बेट के अलावा प्रदेश के दक्षिणी पूर्व में तराई पूर्वी वन प्रभाग के सुरई रेंज और ढिकाला रेंज के पतेरपानी के घास के मैदानों को गैंडे के लिए मुफीद बताया था लेकिन कर्बेट को सबसे बेहतर विकल्प बताया था।
कमर कुरैशी के मुताबिक गैंडे के कर्बेट में आने से बाघों और गैंडों में संघर्ष की आशंका नगण्य है क्योंकि बाघ केवल नाबालिग व शिशु गैंडों पर ही हमला करते हैं , वयस्क गैंडों का शिकार नहीं कर पाते। अठारहवी सदी के अंत तक उत्तराखंड में भी एक सींग वाला विशालकाय गैंडा विचरता था। 1788 से 1789 के बीच दो ब्रिटिश चित्रकारों थमस डैनियल और उनके भतीजे विलियम डैनियल ने कलकत्ता से लेकर गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर तक की यात्रा की इसी दौरान उन्होंने कोटद्वार के पास गैंडा देखा था और उसका चित्र भी बनाया था।
एक सींग वाला गैंडा आईयूसीएन की रेड लिस्ट यानी खतरे में पड़ेजीवों की सूची में है। दुनिया में केवल 3500 गैंडे हैं जिनमें से 2400 असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में व 600 नेपाल के चितवन नेशनल पार्क में हैं। करीब दो सौ साल पहले उत्तराखंड के तराई के इलाके में गैंडा पाया जाता था।
भारतीय गैंडा एक समय सिंधु, गंगा व ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों में यानी पाकिस्तान से लेकर भारत-म्यांमार सीमा, बांग्लादेश नेपाल व भूटान के दक्षिणी हिस्से यानी भारतीय उपमहाद्वीप के समूचे उत्तरी भाग में पाया जाता था। लेकिन लगातार शिकार के साथ ही तराई के घास के मैदानों में बढ़ती आबादी खेती के कारण उससे यह इलाका छिनता गया और 19वीं सदी तक वह केवल उत्तर प्रदेश नेपाल के तराई, उत्तरी बिहार, उत्तरी पश्चिमी बंगाल व असम की ब्रह्मपुत्र घाटी तक सिमट गया।
थॉमस सी जेर्डन में 1867 में लिखा कि कर्नल जेंटिल के नक्शों के मुताबिक वह 1770 तक उत्तरी बिहार व अवध में गैंडा बहुतायत में पाया जाता था। 1910 में भारत में गैंडे के शिकार पर पाबंदी लगा दी गई थी। एक आंकलन के मुताबिक भारतीय उपमहाद्वीप में भारतीय गैंडे की आबादी लगभग साढ़े तीन से चार हजार है जिसमें से अधिकांश गैंडे भारत के संरक्षित क्षेत्रों खासकर असम में हैं।
कहीं और से गैंडों को दूसरी जगह बसाने का प्रयोग यानी रिलोकेशन का सबसे पहले प्रयोग पाकिस्तान में हुआ। 1983 में पाकिस्तान के लाल सुहनरा नेशनल पार्क में नेपाल के चितवन नेशनल पार्क से दो गैंडे लाकर बसाने का प्रयास किया गया था लेकिन माना जाता है कि यह प्रयोग असफल रहा।
भारत में सबसे पहले 1984 में असम की पोबितोरा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के बाहरी हिस्सों व गोलपाड़ा से पांच गैंडे उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क में बसाए गए थे। इसके बाद उग्रवादी गतिविधियों के कारण असम के मानस नेशनल पार्क में गैंडे विलुप्त हो जाने के कारण उन्हें 1989 में वहां दोबारा रिलोकेट किया गया
‘‘ राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (नेशनल टाइगर कंजरवेशन अथरिटी-एनटीसीए) ने गैंडे को उत्तराखंड लाने की योजना के बाबत कुछ सवाल किए थे। जिसमें यह भी था कि इसका खर्च कौन उठाएगा। प्रदेश सरकार ने बता दिया है कि परियोजना का खर्च राज्य उठाने को तायार है। जैसे ही परियोजना को केंद्र से पूर्ण मंजूरी मिलती है। परियोजना तेजी से आगे बढ़ेगी।’’डॉ. हरक सिंह रावत