- कोविड-19 की तमाम विफलता के बावजूद योगी पर फैसला रुका
- मोदी-शाह के मंसूबों में पानी फेर योगी ने तोड़े कई मिथक
वीरेंद्र सेंगर
लखनऊ/दिल्ली। पिछले पखवाड़े लखनऊ से लेकर दिल्ली तक भाजपा में अंदरूनी सियासी हलचल काफी तेज रही। अंतिम निर्णायक फैसला अभी रुका हुआ है, क्योंकि मोदी राज में पहली बार किसी क्षत्रप ने दिल्ली दरबार को ‘आंख’ दिखाने की हिम्मत की है। ‘आंख’ भी ऐसी तरेरी कि, ‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए।’ वाली स्थितियां बन गईं। ये बांके क्षत्रप हैं, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी।
‘दिल्ली दरबार’, कोविड-19 की तमाम विफलता का ठीकरा योगी महाराज पर फोड़ना चाहता था। क्योंकि पिछले दिनों हुए पंचायती चुनाव में पार्टी बुरी तरह हारी थी। हजारों लाशें कानपुर से लेकर बलिया तक गंगा में तैरती मिलीं। प्रयागराज में गंगा तटों पर सैकड़ों लाशों के भगवा चादरों में दफन किए जाने वाले फोटो पूरे जहां में तैरते रहे हैं। माना यही गया कि अप्रैल-मई में कोरोना से इतनी ज्यादा मौतें हुईं कि लोग अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाए। ऐसे में शव गंगा मां को समर्पित करके लौट गए।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसकी जमकर सुर्खियां बनीं। इससे उत्तर प्रदेश ही नहीं, मोदी सरकार की गढ़ी गई छवि तार-तार हो गई। कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने दो महीने जमकर मौतों की बरसात की। शहरी ही नहीं, ग्रामीण इलाकों में समुचित इलाज के अभाव में हजारों लोग रोज तड़प-तड़पकर कर मरते रहे। चूंकि यूपी देश का सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य है, फिर यहां गंगा-जमुना में शव खूब बहाए गए। इसी के चलते यह राज्य शर्मनाक कारणों से लगातार सुर्खियों में रहा। यद्यपि कोरोना का ‘मौत तांडव’ पूरे उत्तर भारत में ही नहीं, महाराष्ट्र और गुजरात में भी जमकर हुआ।
लेकिन कई कारणों से यूपी पर फोकस कुछ ज्यादा रहा। प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र है, वाराणसी। यहां भी सरकारी नाकामी के, कम किस्से नहीं हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी के कारण सैकड़ों लोग मारे गए। इससे हाहाकार मचा। सोशल मीडिया में सरकार के ना चाहते हुए भी तमाम खबरों की बाढ़ सी आ गई। यद्यपि मुख्य मीडिया, जो आजकल सरकार के पाप छिपाने के लिए बेशर्मी की हद भी नहीं मानता। उसने तथ्य छिपाने की कोशिश की। सरकारी बयानों को ही तरजीह दी। इसके बावजूद हर स्तर पर सरकारी असंवेदनशीलता और सफेद झूठ के किस्से बाहर आए। पीड़ित परिवारों की चित्कारें और गुस्सा सामने आया।
यूपी की आबादी करीब ढाई करोड़ की है। यहां से लोकसभा के 80 सदस्य चुने जाते हैं। माना यही जाता है कि केंद्रीय सत्ता का रास्ता यहीं से खुलता है। यदि यहां की सियासत फ्लॉप हुई, तो दिल्ली की सत्ता दूर हो जाएगी। ऐसे में भाजपा के लिए यहां की सियासत खास मायने रखती है। यहां पर भगवाधारी योगी, मुख्यमंत्री हैं। उनकी सियासी शैली भी निराली है। वे भाजपा की सियासत में ‘धुर हिंदुत्व’ का कट्टर चेहरा बन गए हैं। पूरे देश में मोदी के बाद भाजपा की रैलियों में योगी की ही मांग रहती है। वे पहलवानी के अंदाज में हिंदू-मुस्लिम सियासत के उस्ताद हैं। ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए वे कुछ भी बोलते हैं। चाहे वो संविधान के दायरे में हो, या बाहर की बात। योगी न रुकते हैं, न थमते हैं। वे भड़काऊ जुमले उछालते हैं। ऐसे में संघ परिवार में वे खासे लोकप्रिय हैं।
वे गोरखपुर के प्रसिद्ध मठ के मठाधीश हैं। संन्यासी बाना वाले हैं। ऐसे में आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप विरोधी भी उन पर नहीं लगाते। लेकिन वे दशकों से पूर्वांचल में अपनी दबंग राजनीति के लिए जाने जाते हैं। अयोध्या के चर्चित राम मंदिर प्रकरण में वे दशकों से सुर्खियों में रहे हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर भी उनकी धु्रवीकरण की सियासत की धुरी में अयोध्या मंदिर ही रहता है। कभी वे खास मौकों पर एक साथ लाखों दिए जलवा कर, रिकॉर्ड बनवाते हैं, तो कभी अयोध्या को महातीर्थ बनवाने के लिए अरबों रुपए से इसका नक्शा बदलने की योजनाएं लाते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि मानो इस राज्य में खुशहाली का रास्ता अयोध्या, मथुरा व काशी को चमकाने से ही निकल आएगा। जबकि जमीनी हकीकत है कि योगी राज में यहां बदहाली कम नहीं हुई। तमाम घोषणाएं हवा हवाई ही साबित हुई हैं।
मार्च, 2017 में यहां भाजपा को भारी बहुमत मिला था। विधानसभा चुनाव के दौर में योगी मुख्यमंत्री की दौड़ में कहीं नहीं थे। प्रधानमंत्री मोदी के वे चहेते नेताओं में कभी नहीं रहे। ऐसे में मुख्यमंत्री पद के लिए ‘दिल्ली दरबार’ ने किसी और का नाम तय कर भी लिया था। शपथ समारोह की तैयारियां भी शुरू हो गई थीं। लेकिन ऐन मौके पर योगी की ‘बजरंगी’ शैली ने ‘दिल्ली दरबार’ को मजबूर कर दिया। संघ के एक बड़े धड़े का समर्थन भी ‘फायर ब्रांड’ नेता योगी के लिए था। इस तरह योगी उस समय भी ‘दिल्ली दरबार’ को बागी तेवर दिखाकर ही कुर्सी पर कुर्सी पाए थे। ये तेवर आज भी बरकरार है।
क्योंकि 250 विधायकों की लामबंदी उन्होंने उस समय भी रातों-रात कर ली थी। अपनी मजबूत पकड़ के चलते वे भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह कभी ‘दिल्ली’ की कृपा पर बेचारे बन कर नहीं रहे। जाहिर है कि यह खास स्वाभिमानी शैली मोदी स्टाइल से सामंजस्य नहीं बैठा पायी। अंदर ही अंदर हलचल की करंट दौड़ती रही। पंचायती चुनाव में पार्टी ने मात खायी, तो योगी की कुर्सी खिसकाने का मौका ‘दिल्ली’ के हाथ लगा। उधर, संघ के अपने ‘सर्वेक्षणों’ में यह बात सामने आने लगी कि यदि कुछ खास प्रयास नहीं किए गए, तो 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की लुटिया डूब जाएगी।
संघ परिवार के अंदर इस तरह की अफवाहें चलीं कि योगी को नहीं बदला गया, तो 2022 ही नहीं, 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भारी खतरा है। क्योंकि यूपी में योगी शासन स्टाइल से पिछड़े और वंचित वर्गों में भारी असंतोष है। मुख्यमंत्री पर ठाकुरवादी वर्चस्व की सियासत करने की आवाजें उठीं। यह बात भी आई कि इस रवैये से ब्राह्मण समाज भी नाराज है। जो कि संघ परिवार का वोट बैंक है। यह भी कहा गया कि मुख्यमंत्री दस-बारह अफसरों की सलाह पर ही शासन चलाते हैं। इससे शासन तंत्र में भ्रष्टाचार भी है। पार्टी के सांसदों और विधायकों की बात भी नहीं सुनी जाती।
इस बीच इक्का-दुक्का पार्टी के विधायकों ने नाराजगी वाले पत्र भी लिखे। इन्हें खूब तूल दिया गया। माहौल बनाया गया कि पिछड़े वर्गों और ब्राह्मणों में असंतोष बढ़ा है। दूसरे राज्यों के भाजपाई मुख्यमंत्री मोदी और अमित शाह के गुणगान बात-बात पर करते हैं। मौका लगते ही ‘दिल्ली दरबार’ की चापलूसी कुछ भी करके करते हैं। लेकिन योगी की स्टाइल कुछ अलग है। वे अमित शाह से कुछ काम अक्खड़ नहीं हैं।
इधर, तीन-चार महीनों से वे दिल्ली भी लपक कर नहीं गये थे। एक तरह से ये ‘दिल्ली दरबार’ की हुकुम उदूली सी मानी गयी। लेकिन मुख्यमंत्री बेपरवाह बने रहे। क्योंकि वह ‘ठसक’ की सियासत ही करते हैं। सो, मई के आखिरी सप्ताह से योगी शासन का ‘ऑडिट’ आरएसएस ने शुरू कराया। संघ के एक बड़े चेहरे दत्तात्रेय हौसबोले ने लखनऊ का दौरा किया। वे कई दिन यहां टिके। उन्होंने मंत्रियों, विधायकों और संघ के जमीनी कार्यकर्ताओं से फीडबैक लिया। उनके इस दौरे को गोदी मीडिया ने खास तरजीह दी। इस तरह की विवेचना की गई कि मोदी साहब खुश नहीं हैं।
उनकी इच्छा को देखते हुए ही संघ ने ‘सर्वे’ की कवायद शुरू की। योगी को दिल्ली भेजने की योजना है। यहां तक कि उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री पद पर लाने की योजना है, ताकि 2022 में जीत सुनिश्चित की जा सके। यह भी कयास बढ़े कि मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष को भी बदला जाएगा। इस प्रकरण में पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा को लेकर तरह-तरह की कहानियां सामने आयीं। इसको लेकर भी योगी को एक कार्य योजना के नाम पर जमकर चिढ़ाया गया। कहा गया कहा कि प्रधानमंत्री के खास चहेते शर्मा को योगी महीनों से श्घासश् नहीं डाल रहे। जबकि केंद्रीय सचिव स्तर की नौकरी छोड़कर शर्मा साल की शुरुआत में लखनऊ आ गये थे।
जाहिर है इसमें ‘दिल्ली दरबार’ का कोई बड़ा मकसद जरूर होगा। ऊपर के दबाव में अरविंद शर्मा को एमएलसी तो बना दिया गया। लेकिन कैबिनेट में लेकर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं दी गई। जबकि ‘दिल्ली दरबार’ ने दबाव बनाया था। यहां तक कि महीनों मुख्यमंत्री योगी ने शर्मा को मुलाकात का वक्त भी नहीं दिया। बाद में शर्मा को कोरोना मामलों की निगरानी के लिए वाराणसी भेज दिया गया। इसमें उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही हो, ऐसी खबरें नहीं है। हकीकत यह है कि वाराणसी और उसके आसपास कोरोना महामारी में बहुत ही तबाही हुई है। इसमें ‘दिल्ली दरबार’ के खिलाफ स्थानीय आक्रोश बढ़ा। कहते हैं कि इस सबसे लखनऊ और दिल्ली के बीच तनातनी बढ़ गई।
योगी के सिपहसालारों ने यह बात कहनी शुरू भी कि दिल्ली का गोदी मीडिया, जो मोदी-शाह की भूमिका की तारीफ करता है, वही यूपी में योगी शासन की असफलताओं के नगाड़े बजाता है। यानी इशारों-इशारों में ये जताया गया कि ये सब ‘दिल्ली दरबार’ के इशारे पर हो रहा है। इससे सियासी लामबंदी तेज हो गई। दत्तात्रेय के दौरे के बाद योगी शासन की ‘आडिट’ और तेज हो गई।
दिल्ली में संघ प्रमुख ने अपने प्रमुख घटकों के साथ दो दिवसीय मंथन किया। इसमें पश्चिमी बंगाल में पार्टी की हार के अलावा यूपी में योगी शासन की भी समीक्षा हुई। बताया गया कि इस बैठक में दत्तात्रेय ने अपने लखनऊ दौरे का ‘फीडबैक’ रखा। यूपी की स्थिति को कठिन बताया। इसी बीच भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राधामोहन सिंह भी सक्रिय हुए। वे उत्तर प्रदेश मामलों के प्रभारी भी हैं। उन्होंने दोनों उप-मुख्यमंत्रियों सहित तमाम विधायकों से मुलाकात की। योगी से भी मिले। प्रदेश के संगठन महासचिव सुनील बंसल से भी चर्चा की। लेकिन विवाद ने और तूल तब पकड़ा, जब यह खबर आयी कि राज्यपाल आनंदीबेन पटेल को भोपाल से लखनऊ बुलाया गया। खासतौर पर राधामोहन सिंह से भेंट के लिए।
मुलाकात में खास चर्चा का विषय सफेद लिफाफा रहा। कहा गया कि लिफाफा राज्यपाल को राधामोहन सिंह ने सौंपा है। इस लिफाफे में क्या था? इसको लेकर तमाम कयास लगाये गये। कहा गया कि इसमें 250 से ज्यादा भाजपा विधायकों के हस्ताक्षर हैं, जो मुख्यमंत्री को पसंद नहीं करते। तरह-तरह के कयास लगे। लेकिन किसी जिम्मेदार पदाधिकारी ने लिफाफे के बारे में स्पष्टीकरण नहीं दिया। अलबत्ता, राधामोहन सिंह ने इतना ही कहा कि राज्यपाल से उनकी मुलाकात महज शिष्टाचार मुलाकात थी। लेकिन इस पर भी मीडिया कयासों का जोर रहा। कुछ ने कयास लगाया कि योगी को बर्खास्त किया जा सकता है।
इधर, लखनऊ में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष भी आ धमके। उन्होंने भी दो-तीन दिन में ‘फीडबैक’ लिया। इस दौरे को निर्णायक ‘फीडबैक’ बताया गया। इस बीच अंग्रेजी के एक बड़े अखबार में मुख्यमंत्री ने एक लंबा इंटरव्यू दिया। इसमें योगी ने दावा किया कि कोरोना के प्रबंधन में उनकी सरकार ने देश भर में ‘उत्तम’ काम किया। जबकि कुछ निहित स्वार्थ वाले सियासी तत्व उन्हें बदनाम कर रहे हैं। उन्होंने यहां तक दावा किया कि प्रदेश में कहीं भी ऑक्सीजन की कमी नहीं रही। झूठा, हो-हल्ला किया गया। उनकी इन टिप्पणियों का एक अर्थ यह भी लगा कि योगी पार्टी के कुछ तत्वों से नाराज हैं। इनकी तरफ भी उनका इशारा रहा है।
इस सारी कवायद का इतना असर हुआ कि संघ के इशारे पर योगी ने दिल्ली जाकर ‘दिल्ली दरबार’ से अपनी दो टूक बात कहने की बात मान ली। ढाई दिन तक दिल्ली रहे। इसके कुछ दिन पहले ही उनका जन्मदिन पड़ा था। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह ने उन्हें ट्विटर पर बधाई नहीं दी। इसको लेकर भी तमाम बातें चली। यही कि मोदी एंड कंपनी ने बधाई संदेश न भेजकर अपनी नाराजगी जता दी है। जबकि पिछले कई साल से ट्विटर पर सुबह-सुबह ही उनका बधाई संदेश आ जाता था। इस पर योगी की तरफ से कोई सफाई नहीं दी गई। हालांकि, चंपू मीडिया ने सूत्रों के हवाले से ये खबर चलाई कि मोदी और शाह ने फोन पर बधाई दी थी, लेकिन योगी कैंप ने इस खबर की पुष्टि नहीं की थी।
दिल्ली में योगी ने अमित शाह से करीब डेढ़ घंटे तक मुलाकात की। अगले दिन मोदी से भी उनकी लंबी मुलाकात चली। पार्टी अध्यक्ष नड्डा से भी वे मिले थे। इन तमाम मुलाकातों के बाद वे लखनऊ लौटे थे। सवाल ये उठा कि क्या योगी को ‘अक्षय’ वरदान मिल गया है? यूं तो यही माना जा रहा है योगी के जुझारू तेवरों के चलते ‘दिल्ली दरबार’ को ही नरम पढ़ना पड़ा है। क्योंकि इस ठौर पर योगी को नाराज करना सियासी तौर पर भाजपा को महंगा पड़ सकता है। इसकी एक वजह यह भी है कि योगी चाहे चुनाव जीतने की ‘गारंटी’ ना हो, लेकिन योगी ने दिल्ली को सबक सिखाने की ठान ली, तो वे हार की गारंटी जरूर साबित हो सकते हैं।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि फिलहाल योगी ने अपने तेवरों में भाजपा के अंदर यह मिथ तोड़ दिया है, कि मोदी-शाह की हर इच्छा ‘आदेश’ होती है। जिसे कोई क्षत्रप चुनौती नहीं दे सकता। योगी ने ये मिथ खुलकर तोड़ दिया है। ये जता दिया है कि वे ‘किंग’ हैं। कम से कम अपनी चारदीवारी के। योगी खेमा सतर्क है। वह इसे ‘सेमीफाइनल’ मानकर चल रहा है। इस बीच खबर है कि संघ ने खुलकर जता दिया है कि उसके लिए मोदी-योगी दोनों जरूरी हैं। यदि योगी को नीचा दिखाया गया, तो ‘धुर हिंदुत्व’ का दाव कमजोर होगा। संदेश साफ है कि जो कि जो कुछ करना योगी को राजी करके ही करो।
इधर, पिछले दिनों कांग्रेस के एक हारे ब्राह्मण क्षत्रप को भाजपा में शामिल किया गया है। (देखे बाक्स) इससे भी योगी खेमा खुश नहीं है। 13 जून को राम मंदिर ट्रस्ट में 16 करोड रुपए के एक घोटाले का दस्तावेजी आरोप भी सामने आया है। इससे संघ कुनबे में खलबली है। खबर है कि मुख्यमंत्री भी इससे खुश नहीं है। तमाम दबाव के बावजूद योगी, मोदी के चहेते अरविंद शर्मा को कैबिनेट में ‘महाबली’ नहीं बनाने की जिद पर कायम है। इसे योगी खेमा अपनी ‘महाजीत’ के रूप में देख रहा है।
जतिन प्रसाद ‘बोझ’ या ‘वरदान’ ?
कांग्रेस के एक ‘लघु क्षत्रप’ रहे हैं, जतिन प्रसाद। मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री भी रहे हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की हमजोली मंडली में लंबे समय तक रहे हैं। उनका खास जनाधार कभी नहीं रहा। यूपी के शाहजहांपुर क्षेत्र के एक-दो संसदीय क्षेत्रों तक उनके पिता स्व. जितेंद्र प्रसाद का जनाधार था। एक दौर में वे नेहरू-गांधी परिवार के करीबी रहे थे। बाद में इस ‘सुपर’ परिवार से इनके रिश्ते बिगड़े थे। इसी दौर में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सोनिया गांधी को चुनौती दी थी। इसमें वे बुरी तरह से हारे थे। लेकिन कांग्रेस के ‘बियाबान’ में ही हाशिए पर पड़े रहे। उनकी मौत के बाद बेटे जतिन का सियासत में उदय हुआ था।
विदेशी संस्थानों से शिक्षा प्राप्त जतिन जल्दी ही राहुल के हमजोली बन गए थे। इसी से कांग्रेसी राजनीति में उनका कद बढ़ा था। वे केंद्रीय मंत्री बने। एक ब्राह्मण नेता के तौर पर उनकी खास पहचान कभी नहीं रही। वे 2014, 2017 और 2019 के चुनाव लगातार हारे। एक चुनाव में उनकी जमानत तक जब्त हुई। इसके बाद भी वे संगठन में और बड़े पद की दावेदारी करते रहे। उनको वैसे भी औकात से ज्यादा मिलता भी रहा। इधर, सालों से राहुल गांधी उन्हें पहले जैसी तरजीह नहीं दे रहे थे। इससे भी कुछ-कुछ नाखुश थे।
हालांकि, वे कांग्रेस की तरफ से पश्चिमी बंगाल में हुए चुनाव के राज्य प्रभारी थे। इस चुनाव में पार्टी 44 के मुकाबले जीरो पर आ गई। पहले उसके पास 44 सीटें थी। इस ‘फ्लॉप’ शो के बाद वे सहमे थे कि कहीं इसकी वजह से पार्टी में उनकी हैसियत और कमजोर हो जाए? भाजपा में जाने की एक वजह ये भी मानी जा रही है। जतिन प्रसाद की छवि एक धुर ब्राह्मण नेता की कभी नहीं रही। इतना जरूर है कि वे पिछले कुछ अर्से से ‘ब्राह्मण परिषद’ नाम का एक जातीय संगठन चलाते थे। इसके जरिए वे आवाज उठाते थे कि ‘योगी राज’ में पंडितों पर नाइंसाफी बढ़ी है। ‘बिकरू कांड’ में इन्होंने योगी की तीखी आलोचना की थी। मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग की थी। इसके संगठन ने आरोप लगाया था कि विकास दुबे मुठभेड़ नकली थी। इसके बाद तमाम निर्दोष पंडित परिवारों का सरकारी उत्पीड़न हो रहा है। यूं तो लोकसभा चुनाव के पहले 2019 में भी जतिन के भाजपा में जाने की अटकलें थी।
इधर, कुछ महीनों से खबरें आ रही थी कि प्रदेश के ब्राह्मणों में योगी राज के खिलाफ आक्रोश बढ़ा है। भाजपा के ब्राह्मण नेता भी मुख्यमंत्री से खुश नहीं हैं। जबकि, स्वर्ण वोट बैंक में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी इसी समाज की है। योगी को लेकर सियासी हलचल के बीच जतिन प्रसाद का भाजपा में लाया जाना, एक तरह से योगी को और चिढ़ाना माना जा रहा है।
जबकि राजनीतिक तौर पर जतिन प्रसाद हारे हुए ‘हीरो’ हैं। लगातार तीन चुनाव भाजपा से ही हारे हैं। सालों से योगी के कटु आलोचक रहे हैं। इसके बाद पार्टी ने सीधे दिल्ली से उनके दलबदल को ‘उत्सव’ का रूप दे दिया। ऐसा वातावरण बनाया गया मानो पार्टी एक बड़े सितारे को कांग्रेस से छीन लाई है। जब यूपी में जतिन से बड़े ब्राह्मण चेहरे पार्टी में मौजूद हैं। वे हाषिए में पड़े हैं। ऐसे में ये नेता भी जतिन को लेकर उत्साहित नहीं हैं। कई ने तो ‘आफ द रिकार्ड’ कहा भी है कि जतिन, भाजपा के लिए भी ‘बोझ’ बनेंगे। सूत्रों के अनुसार, जतिन प्रसाद को शामिल करने के पहले प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री योगी को भी विश्वास में नहीं लिया गया था। अब दबाव है कि प्रदेश में जतिन को कद्दावर मंत्री बनाया जाए। योगी मंडली इसके लिए तैयार नहीं है। यह जरूर है कि 4 जुलाई को विधान परिषद की 4 सीटें खाली हो रही है इनमें एक सीट जतिन को मिल जाएगी।
राम नाम ‘जपना’ घोटाले का ‘माल’ अपना
13 जून संघ परिवार के लिए काफी अशुभ रहा। दशकों के विवाद के बाद अयोध्या का राम मंदिर बन रहा है। इस निर्माण के लिए संघ परिवार ने देश भर में घर-घर जाकर अरबों रुपए का चंदा इकट्ठा किया है। यद्यपि आधिकारिक तौर पर नहीं बताया गया कि कुल कितना चंदा इकट्ठा हुआ है। राम मंदिर ट्रस्ट के सदस्यों ने औपचारिक तौर पर बताया है कि करीब ₹30 करोड़ रुपया जमा हुआ है। जबकि 1990 के दौर में विश्व हिंदू परिषद ने आधारशिला के लिए 14 सौ करोड़ रुपए चंदे में पाए थे।
अयोध्या के कई हिंदुत्ववादी संगठनों ने आरोप लगाया कि इस भारी-भरकम रकम में भी बड़ा घोटाला हुआ है। विहिप के नेता कभी इसका दस्तावेजी स्पष्टीकरण भी नहीं दे पाए। अयोध्या में बनने वाले राम मंदिर का सियासत से भी गहरा जुड़ाव है। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा इस मंदिर को वोट बैंक का हथियार बनाना चाहती है। 2024 के पहले इस मंदिर को तैयार होना है। जाहिर है लोकसभा चुनाव में इसे गाजे-बाजे के साथ भुनाने की तैयारियां शुरू हो गई है।
लेकिन मंदिर निर्माण के पवित्र समझे जाने वाले इस धार्मिक अनुष्ठान में यदि करोड़ों के घोटाले का ‘दाग’ लग जाए तो स्थिति गंभीर तो होनी ही है। यही हुआ 13 जून को। आम आदमी पार्टी के तेजतर्रार सांसद संजय सिंह ने लखनऊ में पुख्ता सबूतों के साथ यह खुलासा किया। संजय सिंह ने मीडिया के सामने दस्तावेज पेश किए। बताया गया कि इसी साल मार्च में अयोध्या की एक जमीन को 2 लोगों ने 2 करोड रुपए में खरीदा और उसी दिन कुछ मिनटों के अंतराल में यही जमीन राम मंदिर ट्रस्ट ने साढ़े 18 करोड़ में रजिस्ट्री करा ली। नकद भुगतान भी कर दिया गया। मंदिर के ट्रस्टी चंपत राय इस मामले में खास भूमिका में रहे। चंपत राय संघ के कद्दावर चेहरों से जुड़े हैं।
उन्हें प्रधानमंत्री मोदी का भी खास करीबी माना जाता है। पूर्व मंत्री रहे पवन पांडे अयोध्या की राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। उन्होंने दावा किया है कि इस सौदे में साढे़ सोलह करोड़ का घोटाला हो गया है। वे कहते हैं कि राम मंदिर के नाम पर पहले भी 14 सौ करोड़ रुपए का महा घोटाला हुआ था। अब दस्तावेजी घोटाला है। इस खुलासे से अयोध्या से लेकर दिल्ली तक सियासी हलचल है। ट्रस्ट के सचिव चंपत राय ने यही कहा, ‘सैकड़ों साल से हिंदू संगठनों पर आरोप लगते रहे हैं। महात्मा गांधी की हत्या का आरोप भी हम पर लगा था। हम परवाह नहीं करते। मीडिया अपना काम करें हम अपना काम करते रहेंगे।’