- कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना और तमिलनाडु में भी पहुंची आंदोलन की आंच
- सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद आंदोलन का दायरा बढ़ चला है
वीरेंद्र सेंगर, नई दिल्ली
National Capital राष्ट्रीय राजधानी के मुहानों पर चला आ रहा किसान आंदोलन अब ऐतिहासिक मोड़ पर आ पहुंचा है। दोनों पक्षों के अपने-अपने तीर कमान तने हैं। पिछले एक महीने से बैठकों के दौर पर भी ब्रेक लगा रहा। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत पहले ही कह चुके हैं कि सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच बस ह्यएक फोनह्य की दूरी भर है। उनकी इस वाणी से उम्मीद बंधी थी। ये कयास भी लगे थे कि सरकार का रवैया कुछ लचीला हो चला है। इससे अच्छी उम्मीद की जा रही थी। लेकिन इस सरकार के संकेत जरूरी नहीं हैं, सच की परछाई भी हो। ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री की ये वाणी भी एक और जुमला ही साबित हुई। दोनों तरफ से जोर आजमाइश का दौर चल निकला है। तरह-तरह से शक्ति परीक्षणों के दौर जारी है। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद आंदोलन का दायरा बढ़ चला है। तमाम ह्यदमन चक्रोंह्य के बावजूद आंदोलनकारियों के हौसले बुलंद हैं।
आंदोलन का प्रवेश नए चरण में हो गया है। मुख्य मांग किसानी से जुड़े बहुचर्चित तीन कानूनों के रद्द करने की ही है। लेकिन बढ़ते दायरे में महंगाई और बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दों की हवा ने पूरे माहौल को गर्म कर दिया है। सरकार शुरुआती दौर से केवल पंजाब के किसानों का असंतोष भर कहती थी। जब आंदोलन कुछ और बढ़ा, तो उसने स्वीकार किया कि इसमें हरियाणा के किसान भी शामिल हो गये हैं। वार्ताओं का दौर चलता रहा। सरकार हर बार यही कहती रही कि तीनों कानून रद्द नहीं होंगे। कुछ फेरबदल से किसान मान जाएं। किसान भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुए।
किसानों ने कहा कि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की वैधानिक गारंटी हो। जिसमें प्रावधान रहे कि निजी क्षेत्र भी इस दर से कम पर फसलों की खरीद न कर पाए। कानून तोड़ने वालों को सजा का प्रावधान हो। सरकार इसको लेकर लगातार टालमटोल के रवैये पर कायम रही। वो यही जवाब देती रही कि एमएसपी है वो आगे भी रहेगी। सरकार यह लिखकर भी देने को तैयार है। लेकिन आंदोलनकारी नेतृत्व ने इसे भरोसे लायक नहीं माना।किसान नेता डॉ. दर्शन लाल कहते हैं, ह्यसरकार पूरे देश के किसानों के साथ छल करना चाहती है। इसकी नीयत पर हमको भरोसा नहीं है। जग जाहिर है कि मोदी सरकार अपने मित्र पूंजीपतियों के हित में ये सब नंगा नाच कर रही है। जबकि सच्चाई है कि पूरे देश में केवल छह प्रतिशत फसल की खरीद ही एमएसपी की दर पर होती है, बाकि फसल कम दर पर बिकती है इसी से किसानों की कमर टूटी है। अब अन्याय नहीं होने देंगे। भले हमें लंबे दौर तक और आंदोलन करना पड़े। अब यह मामला किसान के स्वाभिमान से भी जुड़ गया है। हम मर जाएंगे लेकिन हारेंगे नहीं। वो तमतमाकर बोले कि किसान आंदोलन को दिल्ली के मोर्चों पर तीन महीने पूरे हो चुके हैं। इसके बाद की आंदोलनकारियों का जोश बरकरार है। धीरे-धीरे यह आंदोलन राष्ट्रीय जन आंदोलन में बदलने लगा है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इधर बड़ी-बड़ी किसान पंचायतें हो रही है। इनमें बीस हजार से लेकर लाख दो लाख भी जुट रहे हैं। केंद्र सरकार के खिलाफ जनाक्रोश गांव-गांव तक पहुंच रहा। जो लोग पिछले सात बरसों में मोदी-मोदी का जय घोष करते नजर आते थे, उनके तेवर भी तल्ख होने लगे है। वे अपने अवतारी नेता को भी कोसते नजर आते हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले साल तक यही समाज, मोदी के खिलाफ जरा भी विरोध की वाणी सहन नहीं करता था। सामने वाले से भिड़ जाता था। लेकिन अब हवा का रुख बदल रहा है। यही इन्हें डरा रहा है।
शायद ये माहौल सरकार के भी रणनीतिकार भांप रहे हैं। ऐसे में भाजपा के अंदर भी बेचैनी महसूस की जा रही है। यहां तक कि राष्ट्रीय सेवक संघ के अंदर भी हलचल समझी जा रही हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि उत्तर भारत में फैल गए इस आंदोलन से संघ की तमाम उस्तादी एकदम फेल हो रही है। उसे उम्मीद थी कि हिदुंत्व के नाम पर पूरे ग्रामीण समाज को दशकों तक मोहपाश में जकड़े रखा जाए। चुनावी दौर में हिंदू मुस्लिम सियासत के नए-नए आयाम ही वोट फैक्ट्री बने रहेंगे। धीरे-धीरे पूरा समाज आज्ञा पालक हो जाएगा। यानी सरकार का हुक्म ही पूरा समाज सिर झुकाकर मानने लगेगा। ऐसा समाज जिसमें असहमति की कोई जगह न हो। जबकि लोकतंत्र का स्वस्थ ढांचा असहमति का स्वागत करता है। इसी से वो फलता फूलता भी है। लेकिन संघ जनित लोकतंत्र की परिभाषा शायद कुछ अलग है। कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने से लेकर अयोध्या में राम मंदिर का उसका सपना पूरा हो गया है। संगठन भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में देखना चाहते है।। इसी लक्ष्य की ओर वे प्रयासरत है। भाजपा सरकारें परोक्ष रूप से इस एजेंडे का बढ़ा रही हैं। ये कोई छिपा तथ्य नहीं है। लव जिहाद जैसे कानूनों की आड़ में खासतौर पर मुस्लिम समाज को डराया गया है। ये सिलसिला चल रहा है जिससे कि सियासी ध्र्रुवीकरण की लकीर और पक्की हो सके। अब इसी में आंदोलन पलीता लगा रहा है।
इस सरकार के महा प्रभुओं को सेक्युलर सोच से बहुत खतरा लगता है। इन बुद्धिजीवी लोगों से भी खतरा लगता हैं, जो कि इस सियासत को बढ़ावा देते हैं। उनसे भी जो समाज में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देते है। जो गैर बराबरी के खिलाफ संघर्ष करने की सतत शिक्षा देते है। सरकार से प्रश्न करने को बढ़ावा देते है। सरकार के जमूरे, ऐसे तत्वों को ही टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे जुमलों से परिभाषित कर रहे है। समां कुछ ऐसे बांधा जाता है, जैसे ये तत्व कोई देशद्रोही हों। बगैर किसी सबूत के इनके बारे में तरह-तरह की अफवाहें फैलाई जाती है। शिगूफेबाजी में संघ परिवार को महारात हासिल है। दुर्भाग्य से इनके झांसे में अधिसंख्य लोग आ भी गये। लेकिन कहते हैं, झूठ और फिर महाझूठ बहुत टिकाऊ नहीं होते। जब ये झूठ का महल ढहता नजर आता है, तो खलबली ज्यादा मचती है।
इधर, सरकार के गण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदलते समाज से काफी डरे हैं क्योंकि इस क्षेत्र के 22 सांसद चुने जाते है। विधानसभा की करीब 110 सीटों में यहां के किसान समाज से निर्णायक असर पड़ता है। यहां की जमीन भाजपा के लिए सबसे ह्यउर्वरकह्य साबित हुई है। 2013 में मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद यहां के सियासी समीकरण तेजी से बदले थे। जाटों और मुस्लिम समाज के बीच नफरत की दीवार खड़ी हो गयी थी। इससे ये पूरा क्षेत्र मोदी-मोदी मय हो गया था। संघ परिवार ने ध्रुवीकरण के लिए खूब मेहनत की जिसके कारण ह्यकमलह्य की फसल बहुत जोरदार रही। अब सूखा पड़ने की आशंका नारंगियों को सता रही है।
इधर, किसान आंदोलन ने संघ परिवार की इस सियासी जमीन में जमकर पलीता लगाना शुरू कर दिया है। हरियाणा और पंजाब के बीच सतलज-यमुना लिंक नगर (एसवाईएल) जैसे मुद्दों पर दशकों से तीखे मतभेद रहे हैं। कई बार दोनों प्रदेशों के बीच भीषण जन टकराव की भी नौबत आयी। इसके पीछे सियासी दलों की कुटिल भूमिका रही है। लेकिन इस किसान आंदोलन ने एक झटके में ही हरियाणा और पंजाब की जनता के साथ एका का संदेश दे दिया। हालांकि, हरियाणा सरकार ने आंदोलन को तोड़ने के लिए एसवाईएल जैसे मुद्दों को नए सिरे से उठाने की पूरी कोशिश की थी। लेकिन उसे सफलता नहीं मिल पायी। हिंदू और सिखों के बीच बेहतरीन भाई चारे की मुहिम देखने को मिली।
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने पूरा जोरदार बयान दिया कि आंदोलन की लपेट में पूरा प्रदेश न आए। लेकिन वे सफल नहीं हुए। हालात ये बने हैं कि सरकार के मंत्रियों को भी गांवों में अपने कार्यक्रम लगाने में दिक्कत हो रही है। आंदोलनकारी तो करनाल किले में मुख्यमंत्री के एक कार्यक्रम में भारी पड़े थे। उनका हेलीपैड भी गुस्से का शिकार बना था। मुख्यमंत्री की सफलता यही है कि तमाम जन दबाव के बावजूद उनकी सरकार अब तक बची हुई है। ताजा हालात यही हैं कि सत्ता पक्ष के विधायक भी अपने इलाकों में धुर विरोध का सामना कर रहे हैं। कई विधायकों को किसान जलील कर चुके है।
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी किसान पंचायतें बुला रहे है। इनकी सभाओं में भारी भीड़ हो रही है। पिछले दिनों पंजाब के बरनाला रैली में करीब दो लाख लोग जुटे थे। केरल में भी राहुल गांधी की बड़ी किसान रैलियां कर चुके हैं। कर्नाटक, ओडिशा से लेकर महाराष्ट्र तक किसान पंचायतों का बिगुल तेज हो गया है। बिहार में भी आंदोलन तेज है। किसान नेता राकेश टिकैत ने अगले महीने पांच सौ ट्रैक्टरों के साथ प. बंगाल में किसान पंचायतें करने का ऐलान किया। वहां पर अप्रैल में विधानसभा के चुनाव हैं। किसान आंदोलन से वहां भी भाजपा के खिलाफ जन अवधारणा बन जाने का डर है।
जबकि, भाजपा के रणनीतिकार प. बंगाल के चुनाव से खासी उम्मीद लगाए बैठे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में इस पार्टी को अप्रत्याशित सफलता मिली थी। इसे 40 प्रतिशत वोट भी मिल गये थे। मोदी जादू ने करतब दिखाया था। तृणमूल कांग्रेस वहां दस साल से सत्ता में है। तमाम प्रयासों के बावजूद वहां वाम दल और कांग्रेस हाशिए पर है। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मुकाबले में हैं। ऐसे में किसान आंदोलन की धमक कोलकता तक पहुंची, तो भाजपा का चुनावी हिसाब बिगड़ सकता है। दबाव बनाने के लिए टिकैत बंगाल के लिए हुंकार भर रहे हैं।
कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना और तमिलनाडु में भी आंदोलन की आंच पहुंच रही है। तमिलनाडु में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। हालांकि, पड़ोसी केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी में भाजपा ने ह्यतोड़-फोड़ह्य के हथियार से कांग्रेस की सरकार गिरवा दी है। इससे कुछ राहत है। पंजाब के निकाय चुनावों में आंदोलन का असर रहा। इससे भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। लेकिन उसे गुजरात के निकाय चुनाव से राहत मिली है। एक बार फिर उसका परचम लहरा गया है। लेकिन गुजरात के अलावा पूरा देश ह्यहारह्य जाने का डर है। किसान बीच का रास्ता मानने को तैयार नहीं है। सरकार झुकती रही है, लेकिन नाक नहीं कटवाना चाहती। बात यहीं अटकी है। किसान नयी रणनीतियों पर बढ़ रहे हैं। पहली बार मोदी सरकार फंस गयी है, मकड़ जाल में।