उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में हैंगिंग ग्लेशियर के टूटने से आई त्रासदी में अब तक 58 लोगों की जान जा चुकी हैं, करीब 146 लापता हैं जो लापता है उनके जीवित होने की संभावनाएं बहुत कम हैं। हादसे को 10 दिन से ज्यादा चुके है, आधुनिकतम तकनीकों के सहारे बचाव और राहत का काम जारी हैं, लेकिन अब लापता श्रमिकों का पता नहीं लगाया जा सका है।
दूर-दराज से अपनों की तलाश में आये परिजनों की आंखे पथराने लगी हैं, धौलीगंगा नदी और ऋषिगंगा में आया सैलाब तो शांत हो चुका है, लेकिन अपनों को खोने वाले स्वजनों की आंखों से जारी आंसुओं के सैलाब से दिल दहल जाता है। कई सुहाग उजड़े हैं तो कई बच्चों के सर से बाप का साया उठ गया है। रोजी-रोटी की तलाश में हिमालय की शांत फिजाओं में मेहनत करने आये अब मानव जनित त्रासदी का शिकार होकर अपना जीवन खो चुके हैं, तमाम एजेंसियां हादसे के कारणों को तलाशने में जुट गई हैं। शुरुआती जांच में हैंगिंग ग्लेशियर के टूटकर गिरने से आई बाढ़ को हादसे का कारण माना जा रहा है। हिमालय के सीने को चीर कर जिस विकास के रास्ते को मानव ने बनाने की कोशिश की है, कहीं यह रास्ता इंसानी सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक ताने-बाने, जैव विविधता के गौरव को न जख्मी कर दे, इस पर गंभीर विचार करने की जरूरत है।
इंसानी दखल के चलते मौन हिमालय का सीना चाक हुआ तो, शांत स्वभाव के अति संवेदनशील पर्वतों-ग्लेशियरों में हल्की सी हलचल ने जलप्रलय का रूप धारण कर लिया, मानव जनित ‘खोखले विकास’ ने विनाश की लीला रच डाली। वैज्ञानिकों की अनदेखी, पर्यावरणविदें की चीख-पुकार और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में बनी रवि चोपड़ा कमेटी की सिफारिशों को दरकिरार करने अधिक बिजली उत्पादन की लालसा आपदाएं ही लाएंगी, और यह आपदाएं उत्तराखंड के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति, सभ्यता ही नहीं, यहां के खूबसूरत वातावरण, दिलकश नजारों, अपनी ओर आकर्षित करती कलकल बहती नदियों को बेनूर कर देंगी, समय रहते नहीं जागे तो उत्तराखण्ड की सियासत भी जलप्रलय की जद में होगी, सत्ता की हनक-सियासी भविष्य भी बाढ़ के तेज बहाव में जलमग्न हो सकता है। बीते रविवार (7 फरवरी 2021) को जनपद चमोली के जोशीमठ से आगे रौंथी पर्वत पर 5600 मीटर की ऊंचाई से टूटे हैंगिंग ग्लेशियर ने जो तबाही मचाई उससे यही संदेश मिला कि कुदरत के ‘निजाम’ को अपने हिसाब से ढालने का जोख्मि मानव के लिए नुकसानदेह है।
7 फरवरी को आई बाढ़ का स्पष्ट कारण तो अभी पता नहीं चल पाया है, इसरो, आईआईटी रुड़की, उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान की जांच में यही कहा जा रहा है कि जोशीमठ के पास स्थित देश की दूसरी सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी ग्लेशियर एक हिस्सा टूटकर धौलीगंगा नदीं में गिरा, इसकी वजह से ऋषिगंगा नदी में तेज सैलाब आया, और ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट सहित 200 से अधिक लोगों की जान चली गई। कहा यह भी जा रहा है कि ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र से निकली जलप्रलय महज एक घटना नहीं थी, बल्कि इसमें कई घटनाक्रम और परिस्थितियां शामिल रहीं।
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के विज्ञानिकों ने नौ फरवरी से 11 फरवरी के बीच आपदाग्रस्त क्षेत्रों का जो धरातलीय और हवाई सर्वे किया, उसके आधार पर आपदा के घटनाक्रम को बयां किया गया है। इसकी रिपोर्ट भी राज्य सरकार को सौंप दी गई है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. कालाचांद साईं के मुताबिक, आपदा की शुरुआत छह फरवरी की मध्य रात्रि के बाद रौंथी पर्वत से हुई। रात करीब 2.30 बजे समुद्रतल से 5600 मीटर की ऊंचाई पर करीब आधा किलोमीटर लंबे हैंगिंग ग्लेशियर के नीचे की चट्टान खिसकी और उसके साथ ग्लेशियर भी 82 से 85 डिग्री के ढाल पर जा गिरा। ग्लेशियर और उसका मलबा नीचे रौंथी गदेरे पर 3800 मीटर की ऊंचाई पर गिरा। इस घटना से इतनी जोरदार आवाज निकली कि गदेरे के दोनों छोर के पर्वत पर जो ताजी बर्फ जमा थी, वह भी खिसकने लगी। इसी के साथ रौंथी पर्वत की बर्फ, चट्टान और आसपास की बर्फ पूरे वेग के साथ ऋषिगंगा नदी की तरफ बढ़ने लगी। करीब सात किलोमीटर नीचे जहां पर गदेरा ऋषिगंगा नदी से मिलता है, पूरा मलबा वहां डंप हो गया। इससे नदी का प्रवाह रुक गया और झील बनने लगी।
करीब आठ घंटे तक झील बनती गई और जब पानी का दबाव बढ़ा तो सुबह साढ़े 10 बजे के आसपास पूरा पानी मलबे के साथ रैणी गांव की तरफ बढ़ गया। यहां पानी और मलबे के वेग ने एक झटके में ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट को तबाह कर दिया। जलप्रलय यहीं नहीं थमी और जहां पर धौलीगंगा मिलती है, वहां तक पहुंच गई। जलप्रलय ने धौलीगंगा नदी के बहाव को भी तेजी से पीछे धकेल दिया। लेकिन, धौलीगंगा नदी का पानी त्वरित रूप से वापस लौटा और जलप्रलय का हिस्सा बन गया। रिपोर्ट के मुताबिक, निचले स्थानों पर जहां घाटी थी, वहां पानी का वेग और तेज होता चला गया और सीधे विष्णुगाड परियोजना के बैराज से टकरा कर आपदा के रूप को और भीषण बना दिया। इस तरह रौंथी पर्वत से विष्णुगाड तक करीब 22 किलोमीटर भाग पर जलप्रलय की रफ्तार कहीं पर भी मंद नहीं पड़ी। शुक्र यह रहा कि जैसे-जैसे निचले क्षेत्रों में नदी चैड़ी होती गई, जलप्रलय का रौद्र रूप भी शांत होता चला गया। वाडिया संस्थान के निदेशक डॉ. साईं ने बताया कि आपदा के घटनाक्रमों का विश्लेषण करने के लिए सेटेलाइट चित्रों का भी अध्ययन किया गया है। आपदाग्रस्त क्षेत्रों से मलबे वाले पानी के साथ ही हिमखंड के सैंपल भी एकत्रित किए गए हैं। इनकी जांच की जा रही है। ताकि आपदा के कारणों का और गहनता के साथ विश्लेषण किया जा सके।
Prev Post