- 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों में बंगाल का चुनाव अहम माना जा रहा
- राज्य में केवल सत्ता ही नहीं, बल्कि नए राजनीतिक परिवर्तन के भी संकेत
ममता सिंह, वरिष्ठपत्रकार
वर्ष 2021 में छह राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें पश्चिम बंगाल का चुनाव सबसे अहम है, क्योंकि इस राज्य में केवल सत्ता ही नहीं, बल्कि एक नए राजनीतिक परिवर्तन के संकेत भी दिख रहे हैं। 2016 के तिक्त अनुभवों के बाद भी कांग्रेस और वाम मोर्चा को गठबंधन में आने पर विवश होना पड़ा, इसका साफ-साफ मतलब है कि कांग्रेस-नीत संप्रग और माकपा-नीत वाम मोर्चा, दोनों ही दल इस बात की खुली आधिकारिक स्वीकारोक्ति दे रहे हैं कि उनका आधार और आत्मविश्वास हिल चुका है। राजनीतिक विश्लेषण के नजरिए को छोड़, आम नागरिकीय समझ और राय को ही सामने रखें तो तीन खानों में बंटने जा रहे वोट, प्रतिद्वंद्वी खेमे, यानी भाजपा को मजबूत करेंगे। कांग्रेस-वाम गठबंधन समय-सापेक्ष जरूर है, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणाम पश्चिम बंगाल के मतदाताओं के परिवर्तनकामी रुझान की ओर ही इशारा कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के प्रबुद्ध भद्र लोग कहते हैं कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में जब ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस एक सांसद से 19 सांसद तक पहुंच गई थी, तभी यह ध्वनि आने लगी थी कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन आने वाला है। …और ऐसा ही हुआ। दो साल बाद ही वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने वाम मोर्चे की विश्व की पहली दीर्घकालिक लोक-निर्वाचित सत्ता को उखाड़ कर उसे राजनीतिक कालखंड के अंधेरे सुरंग में धकेल दिया। तब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा की 294 सीटों में से 184 सीटों पर जीत हासिल की थी। पश्चिम बंगाल के लोगों को 2009 की प्रतिध्वनि फिर सुनाई दे रही है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की 18 सीटें जीत कर वैसे ही परिवर्तन की सनद दी है। 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की अप्रत्याशित जीत से घबराए वाम दल और कांग्रेस ने 2016 में गठबंधन कर लिया था, लेकिन वाम मोर्चा और बुरी दशा में पहुंच गया। 2011 में वाम मोर्चा को 63 सीटें मिली थी, जिसमें माकपा को 40 सीटें हासिल हुई थीं। वहीं, वाम मोर्चा, कांग्रेस से गठबंधन कर 2016 के विधानसभा चुनाव में 32 सीटों पर पहुंच गया, जिसमें माकपा को मात्र 26 सीटें मिलीं। 2011 के विधानसभा चुनाव में शून्य पर आउट हुई भाजपा ने 2016 के चुनाव में तीन सीटें हासिल कीं। इस चुनाव में सबसे अधिक नुकसान वाम मोर्चा को ही हुआ। इस हानि से हतप्रभ वाम मोर्चा ने 2019 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा और संसदीय पटल से पूरी तरह सफाचट हो गया। पश्चिम बंगाल की कुल 40 लोकसभा सीटों में से ममता की तृणमूल कांग्रेस ने 22 सीटें जीतीं। भाजपा ने 18 संसदीय सीटें जीत लीं। कांग्रेस दो सीटों पर सिमट गई और वाम का काम लग गया। इस हार से झनझनाए वाम फ्रंट ने फिर कांग्रेस से हाथ मिला लिया। 2021 का विधानसभा चुनाव दोनों साथ मिल कर लड़ेंगे।
पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक सत्ता सुख लेने वाले वाम फ्रंट के ऐतिहासिक राजनीतिक पतन तक पहुंचे वरिष्ठ वाम नेता ममता बनर्जी को ही अपना मुख्य राजनीतिक शत्रु मानते हैं। वाम नेता भाजपा को अपना मुख्य वैचारिक शत्रु जरूर मानते हैं, लेकिन वे बंगाल में भाजपा को अपना मुख्य राजनीतिक शत्रु नहीं मानते। वे कहते हैं कि तृणमूल कांग्रेस को समाप्त करने के बाद उन्हें भाजपा को फिर से पुरानी स्थिति पर पहुंचाने में अधिक वक्त नहीं लगेगा। वाम दल यह स्वीकार करते हैं कि पश्चिम बंगाल के वाम-ढांचे में तृणमूल कांग्रेस ने ही घुसपैठ की और उसे ध्वस्त किया। लिहाजा, वाम दल उस राजनीतिक अपमान का प्रतिकार चाहते हैं। कांग्रेस-वाम गठबंधन की घोषणा होते ही मीडिया-नभ पर राजनीतिक विश्लेषणों की तमाम पतंगें उड़ने लगीं। सब यह बताने लगे कि पश्चिम बंगाल में भाजपा के बढ़ते असर को रोकने के लिए कांग्रेस और वाम दल में गठबंधन हुआ है। जो लोग वाम मोर्चा की अंदरूनी रणनीति से वाकिफ हैं, उन्हें यह पता है कि वाम मोर्चा ममता बनर्जी को धराशाई करने पर आमादा है और सारे प्रयास इसी रणनीति के तहत हो रहे हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव में वाम-कांग्रेस गठबंधन ममता को नुकसान पहुंचाएगा, भले ही इसका फायदा भाजपा उठा ले जाए। वाम मोर्चा के अध्यक्ष बिमान बोस का बयान भी इस आशय की ओर ही संकेत देता है।
बोस ने पिछले दिनों कहा, पश्चिम बंगाल को धार्मिक धु्रवीकरण से बचाने के लिए हम (वाम मोर्चा और कांग्रेस) भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। वाम दल के वरिष्ठ नेता यह मानते हैं कि पश्चिम बंगाल में धार्मिक धु्रवीकरण की कोशिशें दोनों ही पार्टियां कर रही हैं। लिहाजा, दोनों ही पार्टियों से पश्चिम बंगाल को निजात दिलाना आवश्यक है।
पश्चिम बंगाल की जमीन पर जमीनी पत्रकारिता करने वाले वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि इस बार के विधानसभा चुनाव में न विकास का मुद्दा होगा, न कृषि नीति का… यदि कृषि और कृषक मुद्दा होता तो क्या नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुए किसान आंदोलन को बर्बरतापूर्वक कुचलने वाली कांग्रेस पार्टी से वाम दल कभी हाथ मिलाता? और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने वाले वाम दल से क्या कांग्रेस हाथ मिलाती? यदि भाजपा ही एकमात्र शत्रु होती तो तृणमूल कांग्रेस, वाम दल और कांग्रेस का महागठबंधन क्यों नहीं कायम हुआ? यदि कृषि और कृषक मुद्दा होता तो क्या सिंगूर में जमीन अधिग्रहण का विरोध कर सत्ता हासिल करने वाली ममता बनर्जी कृषि और कृषक को छोड़ कर रैडिकल इस्लामिक तत्वों से हाथ मिला लेतीं? पश्चिम बंगाल के कई पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और श्रमजीवियों ने कहा, ह्यआप किसी गलतफहमी में न रहिए, इस बार का विधानसभा चुनाव देश बनाम धर्मांधता के मुद्दे पर ही होगा। भाजपा पर हिंदूवादी होने का घटाटोप खड़ा कर मुस्लिमपरस्त हो चुकी तृणमूल कांग्रेस इस बार के विधानसभा चुनाव में अपनी इसी छवि से मुकाबला करेगी।
वोट के प्रलोभन में ममता बनर्जी की एकतरफा मुस्लिम-पक्षधरता के बारे में पश्चिम बंगाल के गांव-गांव में आम चर्चा सुनने को मिल रही है। तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे शुभेंदु अधिकारी से लेकर बनश्री मैती तक और सुनील कुमार मंडल से लेकर शीलभद्र दत्ता, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सुदीप मुखर्जी, दीपाली बिस्वास, सैकत पांजा, शुक्र मुंडा, तापसी मंडल, अशोक डिंडा, बिस्वजीत कुंडू और दसरथ टिर्के जैसे नेताओं के भाजपा में शामिल होने की वजहें यही बताई जा रही हैं। अन्य पार्टी के विधायकों के भाजपा में शामिल होने की वजह से विधानसभा में भाजपा के विधायकों की संख्या 16 हो गई है।
मुस्लिम वोट के ध्रुवीकरण में कामयाब रहीं ममता बनर्जी अब इसी वजह से मुस्लिम बहुल पॉकेट्स में सिमटती जा रही हैं। शेष बंगाल तृणमूल कांग्रेस की पकड़ से बाहर होता दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में कुल मुस्लिम आबादी 27 प्रतिशत है, लेकिन कई इलाकों में मुस्लिम आबादी अन्य समुदायों से अधिक है। मुर्शिदाबाद की मुस्लिम आबादी 66 प्रतिशत और मालदा की मुस्लिम आबादी 51 प्रतिशत से अधिक पर पहुंच गई है। उत्तर दिनाजपुर में भी मुस्लिमों की आबादी 49.9 प्रतिशत है। आबादी का यह प्रतिशत 2011 की जनगणना पर आधारित है। वर्तमान में यह संख्या निश्चित तौर पर बढ़ गई है। उत्तर, मध्य और दक्षिण के जिलों में मुस्लिम आबादी पर पकड़ के कारण ममता की पार्टी मजबूत है, लेकिन यहां कांग्रेस और वाम दल भी पहले काफी प्रभावी रहे हैं। अब भाजपा मुस्लिम बहुल इलाकों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है। इसमें शुभेंदु अधिकारी भाजपा के लिए काफी मददगार साबित हो रहे हैं। शुभेंदु अधिकारी ममता सरकार में मंत्री हुआ करते थे। शुभेंदु पूर्वी मेदिनीपुर जिले के प्रभावशाली राजनीतिक परिवार के सदस्य हैं और लोकसभा सांसद भी रह चुके हैं। अभी वे नंदीग्राम से तृणमूल कांग्रेस के विधायक थे।
लपकती भी नहीं, झटकती भी नहीं…
वाम दलों से गठबंधन करने वाली कांग्रेस पार्टी ममता बनर्जी की पार्टी को न पूरी तरह गले लगाती हैं और न पूरी तरह झटक कर बाहर करती हैं। कांग्रेस नेतृत्व का यह उहापोही आचरण कांग्रेस कार्यकर्ताओं और छोटे स्तर के नेताओं को भी काफी खल रहा है। पश्चिम बंगाल कांग्रेस के कई नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चैधरी पश्चिम बंगाल में भाजपा के मजबूत स्थिति तक पहुंचने के लिए ममता बनर्जी को ही जिम्मेदार मानते हैं तो केंद्र में भी इसी सोच और नीति पर क्यों नहीं चलते हैं? फिर सोनिया गांधी केंद्र की सियासत में ममता बनर्जी की पार्टी का सहयोग क्यों लेती हैं? कुछ इस तरह की बातें पश्चिम बंगाल के आम लोग भी करते हैं। पश्चिम बंगाल के लोग राजनीतिक तौर पर अत्यंत जागरूक हैं, वे सियासत की दोगलई अच्छी तरह समझते हैं। तृणमूल कांग्रेस के कांग्रेस में विलय कर देने का ममता बनर्जी को दिया गया अधीर रंजन चैधरी का प्रस्ताव भी इसी सियासी दोगलई का नमूना है। इसे भांपते हुए ही तृणमूल कांग्रेस के सांसद सौगत राय ने कहा कि यदि वाम मोर्चा और कांग्रेस असलियत में भाजपा के खिलाफ हैं तो उन्हें ममता बनर्जी का साथ देना चाहिए। इस पर अधीर रंजन चौधरी का जो बयान आया वह रेखांकित करने योग्य है। अधीर रंजन ने कहा, ह्यहमें तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल को साम्प्रदायिकता की ओर धकेलने की जिम्मेदार है। यदि ममता बनर्जी भाजपा के खिलाफ लड़ना चाहती हैं तो उन्हें कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहिए, क्योंकि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाला कांग्रेस ही एकमात्र मंच बचा है। अधीर का यह बयान कांग्रेस पार्टी के अधीर होने का साफ-साफ संकेत देता है। ठीक है कि विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और वाम मोर्चा में गठबंधन हुआ है, लेकिन सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाला अकेला मंच मानने वाली कांग्रेस, वाम दलों के प्रति उसके वास्तविक लगाव को अच्छी तरह ज्ञापित कर रही है। जिन वरिष्ठ पत्रकार-समीक्षकों को पश्चिम बंगाल की राजनीति का नब्ज पता है, उन्हें यह मालूम है कि ममता बनर्जी ने भाजपा के खिलाफ कांग्रेस और वामदल का साथ मांगा था। ममता ने व्यापक गठबंधन की इच्छा जताई थी। लेकिन कांग्रेस ने यह सलाह खारिज कर दी थी। बाद में वाम मोर्चा ने भी कांग्रेस के सुर में सुर मिला दिया।
कांग्रेस और वाम मोर्चा के बीच हुए गठबंधन को लेकर कई वाम नेता ही आपत्ति भरे सवाल उठा रहे हैं। गठबंधन की घोषणा होते ही सीपीआईएमएल नेता दीपंकर भट्टाचार्य ने अपनी नाखुशी जाहिर कर दी थी। दीपंकर कहते हैं कि वाम दलों को ममता बनर्जी के साथ मिल कर भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहिए था। दीपंकर यह मानते हैं कि भाजपा और तृणमूल दोनों ही दुश्मन है, लेकिन इनमें वे भाजपा को दुश्मन नंबर-एक मानते हैं और कहते हैं कि भाजपा के खिलाफ रणनीति बना कर लड़ना चाहिए। दीपंकर भट्टाचार्य के विचार से पश्चिम बंगाल के वाम नेता कतई सहमत नहीं हैं। वे ममता बनर्जी को अपना दुश्मन नंबर-1 मानते हैं और कहते हैं कि तृणमूल का सफाया करने के बाद वे भाजपा को तो कभी भी निपटा देंगे। वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में भाजपा के उभार के लिए ममता बनर्जी को ही जिम्मेदार मानता है। वाम मोर्चे के इस दृढ़ विचार को थोड़ा परिष्कृत करता हुआ माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी का बयान आया। येचुरी ने कहा कि माकपा का मुख्य लक्ष्य पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा को हराना है। लेकिन इस लड़ाई में वे तृणमूल कांग्रेस को साथ नहीं ले सकते क्योंकि ममता सरकार के खिलाफ पश्चिम बंगाल के लोगों में काफी नाराजगी है। ममता के कभी भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का प्रमुख सदस्य होने की पृष्ठभूमि को सीताराम येचुरी भूल ही नहीं पा रहे। येचुरी कहते हैं, तृणमूल के पिछले 20 साल का रिकॉर्ड हम अच्छी तरह जानते हैं। हमें याद है जब तृणमूल का भाजपा से गठबंधन था और उसके नेता राजग गठबंधन में मंत्री हुआ करते थे और क्या कर रहे थे। तृणमूल कांग्रेस की सरकार के खिलाफ आज पश्चिम बंगाल के लोगों की चिढ़ बहुत गहरा गई है। तृणमूल के साथ गठबंधन करने से वहां के लोग हमारे ही खिलाफ हो जाएंगे और भाजपा की तरफ चले जाएंगे।
अमित शाह का बंगाल-टार्गेट
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का बंगाल-टार्गेट तृणमूल नेताओं और कार्यकर्ताओं को बहुत परेशान कर रहा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय बंगाल-टार्गेट साधने के अभियान में ही लगातार जुटे पड़े हैं। तृणमूल कांग्रेस के कई बड़े और प्रभावशाली नेताओं को भाजपा में लाकर अमित शाह और उनकी टीम ने तृणमूल को हिला कर रख दिया है। मुकुल राय को भाजपा में लेकर वे पहले झटका दे ही चुके हैं। यह जमीनी सच्चाई है। शुभेंदु अधिकारी जैसे नेताओं का भाजपा में शामिल होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शुभेंदु उसी नंदीग्राम के विधायक रहे हैं, जहां से ममता बनर्जी और उनकी पार्टी का जोरदार उत्थान हुआ था और उस प्रभावशाली राजनीतिक उभार में शुभेंदु अधिकारी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। आप याद करें, नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ ममता बनर्जी ने आंदोलन शुरू किया था और वह इतना प्रगाढ़ हुआ था कि उसने पश्चिम बंगाल की पूरी राजनीतिक धारा ही बदल कर रख दी। इस बार ममता ने फिर नंदीग्राम से विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। ममता नंदीग्राम-फ्लैशबैक का भावनात्मक-इस्तेमाल कर राजनीतिक लाभ लेना चाहती हैं, जबकि नंदीग्राम-फ्लैशबैक का भावनात्मक इस्तेमाल करने की प्रक्रिया में ममता बनर्जी शुभेंदु अधिकारी के योगदान की कैसे उपेक्षा करेंगी, इस पर राजनीतिक समीक्षकों की निगाह लगी है। लोग यह भी कहते हैं कि दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर विधानसभा क्षेत्र पर लगातार बढ़ती भाजपा की पकड़ से चिंतित होकर ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का निर्णय किया है।
वैसे, बृहत्तर कोलकाता को समेटता हुआ पश्चिम बंगाल का दक्षिणी हिस्सा तृणमूल कांग्रेस की पकड़ वाला महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। आठ जिलों वाले इस क्षेत्र में ही पश्चिम बंगाल की सबसे अधिक विधानसभा सीटें आती हैं। राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि सबसे अधिक जनसंख्या-घनत्व वाले इस इलाके से पश्चिम बंगाल की सत्ता का दरवाजा खुलता है। लिहाजा, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा दोनों यह मानती हैं कि पश्चिम बंगाल जीतने के लिए दक्षिण बंगाल जीतना जरूरी है… और इसीलिए इस क्षेत्र में राजनीतिक सक्रियता बहुत तेज है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 18 सीटें जरूर जीतीं, लेकिन ममता के इस दक्षिण बंगाल प्रभाव-क्षेत्र पर प्रभाव नहीं डाल पाई। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेता ममता के प्रभाव वाले क्षेत्र में अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश लगातार कर रहे हैं।
राष्ट्रीयता बनाम प्रांतीयता
भारतीय जनता पार्टी पश्चिम बंगाल की चुनावी राजनीति को राष्ट्रीयता के व्यापक फलक की तरफ ले जाने की कोशिश कर रही है। इसके जवाब में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी प्रांतीयता की भावना उभार कर अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती हैं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती पर ये दोनों बातें सार्वजनिक तौर पर परिलक्षित हुईं। भाजपा ने 23 जनवरी का दिन पराक्रम दिवस के रूप में मनाया और इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोलकाता पहुंचे। इसके जवाब में ममता बनर्जी ने पदयात्रा निकाल ली, लेकिन अपना गुस्सा पचा नहीं पाईं। ममता ने अपनी खीझ उस मंच पर ही सार्वजनिक कर दी, जिस मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य अतिथि मौजूद थे। मोदी ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के योगदान को राष्ट्र के सम्मान और गौरव से जोड़ा और कहा कि नेताजी की इंडियन नैशनल आर्मी के साथ देश के सभी राज्यों के लोग जुड़े थे। इस पर ममता बनर्जी ने कहा, बंगाल को और बंगालियों की भावनाओं को बाहर के लोग नहीं समझ सकते। भाजपा सरकार इतिहास बदलना चाहती है। ममता ने सुभाषचंद्र बोस को राष्ट्र-नायक का दर्जा दिए जाने की भी मांग कर डाली और प्रांतीयता की भावना उभारने के लिए यह भी मांग कर दी कि देश की चार राजधानी होनी चाहिए और रोटेशन में चारों राजधानियों से देश संचालित होना चाहिए। ममता बनर्जी के इस बयान से बंगाल के प्रबुद्ध लोग क्षुब्ध हैं और इसे ममता बनर्जी का बचकानापन बताते हैं। वे यह मानते हैं कि इसका फायदा भाजपा को ही मिल रहा है।
कितना अहम होगा ओवैसी फैक्टर..!
बिहार विधानसभा चुनाव में पांच सीटें जीतने वाली पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल इलाकों में काफी तरजीह मिल रही है। पार्टी के नेता असदुद्दीन ओवैसी बिहार के बाद बंगाल की तरफ गंभीरता से बढ़ने की रणनीति तैयार कर रहे हैं। इसी रणनीति के तहत ओवैसी ने तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन का प्रस्ताव दिया था, लेकिन ममता ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुस्लिम समुदाय ओवैसी को अपना नेता मानता है। लिहाजा, मुस्लिम वोटरों पर अच्छी पकड़ होने के बावजूद ममता बनर्जी को ओवैसी-फैक्टर ध्यान में रख कर चलना चाहिए था। पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ राजनीतिक समीक्षक ऐसा ही मानते हैं।
बंगाल समेत छह राज्यों में विधानसभा चुनाव
वर्ष 2021 में छह राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें जम्मू-कश्मीर भी शामिल है, जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। अभी हाल ही बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए। अब इस साल पश्चिम बंगाल सहित छह राज्यों में चुनाव होने हैं।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव
पश्चिम बंगाल विधानसभा की 294 सीटों के लिए इसी वर्ष चुनाव होने हैं। पश्चिम बंगाल में 27 मई 2016 से शुरू हुआ ममता बनर्जी की सरकार का कार्यकाल 26 मई 2021 को खत्म हो रहा है। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस 2016 के चुनाव में सबसे ज्यादा 211 सीटें जीत कर सत्ता पर दाखिल हुई थी। इस चुनाव में कांग्रेस ने 44, वामदल ने 32 और भाजपा ने 3 सीटें जीती थीं।
केरल विधानसभा चुनाव
केरल विधानसभा का चुनाव भी इसी वर्ष होना है। राज्य में विधानसभा की 140 सीटें हैं। बहुमत का आंकड़ा 71 है। मौजूदा समय में यहां सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार है और पिनाराई विजयन यहां के मुख्यमंत्री हैं। पिछले चुनाव में एलडीएफ ने 91 और कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) ने 47 सीटें जीती थीं।
असम विधानसभा चुनाव
इस वर्ष अप्रैल में असम में विधानसभा का चुनाव निर्धारित है। असम में विधानसभा की 126 सीटें हैं। बहुमत के लिए 64 सीटों पर जीत अनिवार्य है। असम में अभी भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार है और सर्बानंद सोनोवाल यहां के मुख्यमंत्री हैं। 24 मई 2016 से शुरू हुआ मौजूदा असम सरकार का कार्यकाल 23 मई 2021 को समाप्त होने वाला है। 2016 के चुनाव में भाजपा 89 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसने 60 सीटें जीती थीं। असम गण परिषद ने 14 सीटें और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने 12 सीटें जीती थीं। 122 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस सिर्फ 26 सीटें जीत पाई थी। सत्ताधारी भाजपा को दिसपुर की सत्ता से हटाने के लिए राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने समान विचारधारा वाली एक महागठबंधन की घोषणा कर दी है। कांग्रेस के नेतृत्व में गठित इस महागठबंधन में मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी अखिल भारतीय संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (एआईयूडीएफ), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और राज्यसभा सांसद अजीत भुइयां की पार्टी आंचलिक गणमोर्चा को शामिल किया गया है। उल्लेखनीय है कि इस महागठबंधन के लिए सर्वप्रथम प्रयास पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तरुण गोगोई ने किया था और पार्टी ने इसे मूर्त रूप देकर उनकी इच्छाओं को अमली जामा पहना कर उन्हें वास्तविक श्रद्धांजलि दे दी। वोट के आंकड़ों पर नजर डालने से लगता है कि निचले असम में भाजपा गठबंधन को कड़ी चुनौती मिलेगी, वहीं बराक वैली में कुछ सीटों पर भाजपा को चुनौती मिल सकती है। दूसरी ओर, ऊपरी असम में राजनीतिक जानकार बताते हैं कि यहां कांग्रेस को एआईयूडीएफ के साथ जाने से कुछ नुकसान उठाना पड़ सकता है। बागानी इलाकों में सरकार की तमाम लाभकारी योजनाएं इसके कारण हैं, वहीं दूसरी ओर ऊपरी असम में कांग्रेस का जो आहोम वोट था उसमें आसू से बनी नवगठित पार्टी असम जातीय परिषद (एजेपी) नेता लुरिन ज्योति गोगोई की मजबूत पकड़ मानी जा रही है। यानी यह कहा जा सकता है कि आहोम वोट दो हिस्सों में बंटता नजर नजर आ रहा है, जिसका फायदा भाजपा को मिल सकता है।
पुडुचेरी विधानसभा चुनाव
केंद्र शासित राज्य पुडुचेरी में विधानसभा की कुल 30 सीटें हैं। बहुमत के लिए यहां मात्र 16 सीटें अनिवार्य हैं। पुडुचेरी में अभी कांग्रेस की सरकार है और वी. नारायणसामी मुख्यमंत्री हैं। 2016 के चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसे 15 सीटें मिली थीं। ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस ने 8 सीटें जीती थीं।
तमिलनाडु विधानसभा चुनाव
234 सीटों वाली तमिलनाडु विधानसभा के लिए भी इस साल मई में चुनाव होंगे। यहां बहुमत के लिए 118 सीटें अनिवार्य हैं। अभी तमिलनाडु में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) की सरकार है। ई. पलनीस्वामी तमिलनाडु के मौजूदा मुख्यमंत्री हैं। 2016 के चुनाव में एआईएडीएमके ने 136 सीटें और डीएमके ने 89 सीटें जीती थीं। तमिलनाडु में होने वाला 2021 का विधानसभा चुनाव महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि जयललिता और करुणानिधि जैसे लोकप्रिय नेताओं की अनुपस्थिति में इस बार का चुनाव होगा। वर्ष 2016 में जे. जयललिता का और 2018 में एम. करुणानिधि का निधन हो गया।
जम्मू-कश्मीर चुनाव: एक अलग ही राजनीतिक परिदृश्य
अनुच्छेद 370 हटने के बाद केंद्र शासित प्रदेश बने जम्मू-कश्मीर में वर्ष 2021 में ही विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। जम्मू-कश्मीर से लद्दाख डिवीजन के अलग होने के बाद यहां विधानसभा की कुल सीटें 87 से घटकर 83 हो जाएंगी। लेह, कारगिल, जांस्कर और नुब्रा की चार सीटें अब जम्मू-कश्मीर विधानसभा में नहीं रहीं। लेकिन विधानसभा सीटों को लेकर तेजी से किसी नतीजे पर पहुंचने के बजाय जम्मू-कश्मीर राज्य और उसकी विधानसभा सीटों को लेकर उलझी गुत्थी को समझने की जरूरत है। अलग केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा सीटों में सात सीटों का इजाफा हो जाएगा। अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन होना है। जम्मू-कश्मीर में अभी 87 विधानसभा सीटें हैं। इनमें कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख की चार सीटें हैं। 24 सीटें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) की मानी जाती हैं। इन 24 सीटों को जोड़कर अभी 111 सीटें हैं। लद्दाख की 4 सीटें हटने के बाद ये 107 हो गईं। परिसीमन हुआ तो सीटों की संख्या बढ़कर 114 हो जाएगी। यह इजाफा जम्मू की 37 और कश्मीर की 46 सीटों में होगा।