- महीनेभर बाद भी दिल्ली की ठिठुरती रातों में डटे किसान
- तीनों कृषि कानूनों को वापस कराने की मांग को लेकर हैं आंदोलित
किसानों को दिल्ली में घेरा डाले महीनेभर से ज्यादा हो गए हैं। वे अपना घर-द्वार, खेती-किसानी सब छोड़कर दिल्ली की ठिठुरती रातों में डटे हुए हैं। लेकिन उनके हौसले हिमालय की तरह अडिग हैं। उन्हें किसी चीज की परवाह नहीं है। बस उनके अंदर एक ही धुन सवार है कि तीनों कृषि कानूनों को वापस कराकर ही घर जाएंगे।पहले कहा जा रहा था कि यह आंदोलन सिर्फ पंजाब के किसानों का है। लेकिन इसमें हरियाणा के किसानों की भी भागीदारी साफ-साफ दिख रही थी। जब केंद्र सरकार ने योजना बनाकर यह कहना शुरू किया कि इसमें हरियाणा के किसान हिस्सा नहीं ले रहे हैं तो हरियाणा के किसानों ने आंदोलन से एकजुटता दिखाने के लिए और बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया। यहां तक कि उन्होंने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को एक चुनाव प्रचार सभा में भी नहीं जाने दिया। हरियाणा सरकार ने इस आंदोलन से हरियाणा के किसानों को अलग करने और पंजाब के प्रति नफरत पैदा करने के लिए सतलुज-यमुना जोड़ नहर और उसके पानी का दशकों पुराना मुद्दा भी उठाया, लेकिन हरियाणा के किसान टस से मस नहीं हुए। अब पंजाब के किसान बहुत फक्र से कहते हैं कि हरियाणा के किसान छोटे भाई की तरह कंधे से कंधा मिला कर इस आंदोलन के साथ खड़े हैं। यह एकजुटता दिखाने के लिए और यह बताने के लिए ही कि यह आंदोलन सिर्फ पंजाब के किसानों का नहीं है, बल्कि इसमें हरियाणा के किसान भी समान रूप से शामिल हैं। किसानों के क्रमिक भूख हड़ताल में प्रतिदिन हरियाणा के भी पांच किसान मंच पर धरने पर बैठते हैं।
लेकिन सच्चाई इससे भी अलग है। यह आंदोलन सिर्फ पंजाब और हरियाणा के किसानों का नहीं है, बल्कि इसमें पूरे देश के किसान शिरकत कर रहे हैं। भले दिल्ली में उनकी संख्या कम दिख रही है, लेकिन भागीदारी हर जगह के किसानों की है। आप सिंघु बॉर्डर पर जाएंगे तो देखेंगे कि आपको सिर्फ पंजाब-हरियाणा के ही नहीं, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के भी किसान दिखेंगे। दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर तो उत्तर प्रदेश के किसानों का ही जमावड़ा है। इसके अलावा आंदोलन जितना लंबा खिंच रहा है इसका असर देश और यहां तक कि विदेशों में भी दिख रहा है। किसानों के समर्थन में न केवल देश के विभिन्न हिस्सों में, बल्कि विदेशों में भी प्रदर्शन हुए हैं। बीच में किसानों ने एक दिन हर जिला मुख्यालय पर धरना की अपील की थी। उसका असर देश के व्यापक हिस्से पर पड़ा था। देश के डेढ़ दर्जन से ज्यादा राज्यों के किसानों ने उस दिन अपने-अपने जिला और तहसील मुख्यालयों पर धरना दिया। और तो और इस आंदोलन में महिलाओं तक की भूमिका दिख रही है। यदि पंजाब और हरियाणा की महिलाएं अपने परिवारों के साथ दिल्ली में धरना स्थल पर पहुंची हुई हैं तो बाकी जगह की महिलाएं भी किसानों के कार्यक्रम में अपनी-अपनी जगहों से ही इसमें शिरकत कर रही हैं। तो सच्चाई यही है कि यह आंदोलन सिर्फ पंजाब और हरियाणा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसकी धमक देश के दूसरे हिस्सों के साथ ही विदेशों तक में दिखाई और सुनाई दे रही है। हां, ये जरूर कहा जा सकता है कि इसमें पंजाब और हरियाणा के किसान अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे जो चाह रहे हैं वही हो रहा है। आप धरना स्थल सिंघु बॉर्डर पर जाएं तो पता चलेगा कि यहां पंजाब के 30 से ज्यादा संगठन हैं। अगर किसी मुद्दे पर फैसला लेना होता है तो ये सभी संगठन अलग-अलग बैठक करके अपना फैसला लेते हैं। बाद में किसान मोर्चा (संयुक्त किसान आंदोलन) की बैठक होती है। उस बैठक में जो फैसला लिया जाता है वही आखिरी फैसला होता है। किसान मोर्चा में पंजाब और हरियाणा के साथ ही देश के बाकी हिस्सों के भी किसान हैं।
किसान आंदोलन की सबसे खास बात है लंबा खिंचने के बावजूद उसका शांतिपूर्ण बने रहना। सरकार की कोशिश है कि आंदोलन को लंबा खींचा जाए, ताकि किसान निराश होकर अपने घरों को लौट जाएं। जैसा कि पहले किसान आंदोलनों के साथ इस केंद्र सरकार ने किया है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु के किसान पहले दिल्ली आते रहे हैं, महीनों यहां जमे रहे, नंगा होकर प्रदर्शन किया, लेकिन सरकार ने उनकी नहीं सुनी और वे थक-हारकर लौट गए। सरकार इन किसानों के साथ भी वही करना चाहती है। पर इन किसानों की स्थिति और हालात अलग हैं। ये किसान दूर-दराज से नहीं आए हैं। बल्कि, ये दिल्ली से सटे इलाकों के हैं। साथ ही, ये पूरी तैयारी करके आए हैं। अपनी ट्रैक्टर ट्रालियों को इन्होंने अपना घर बना लिया है। वहीं इनका खाना बन रहा है, वहीं ये नहा रहे हैं, वहीं ये सो रहे हैं और जिस तरह से धार्मिक और आस्थावान लोग प्रवचन सुनते हैं उसी तरह से ये अपने नेताओं के भाषण सुन रहे हैं।